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रामकृष्ण परमहंस के जीवन पर प्रस्तुति

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सोमवार को कमानी प्रेक्षागृह में दिल्ली के रंगभूमि थिएटर ग्रुप की प्रस्तुति ‘युगपुरुष’ देखने को मिली। रामकृष्ण परमहंस के जीवन पर आधारित इस प्रस्तुति के लेखक और निर्देशक जयवर्धन उर्फ जेपी सिंह हैं। रामकृष्ण परमहंस का आध्यात्मिक व्यक्तित्व अपनी स्वाभाविकता में ही एक अतिनाटकीय शै है, जिस वजह से उसे मंच पर पेश करना आसान नहीं है। मान्यता है कि वे हमेशा अपने भीतर के अतींद्रिय भावजगत में रहते थे, जिस वजह से उनका भावातिरेकपूर्ण व्यवहार कई बार सामान्य लोगों को अस्वाभाविक जान पड़ता था; और जिस वजह से नरेन्द्र यानी विवेकानंद उन्हें पागल तक कहते थे। मान्यता यह भी है कि उन्होंने अपनी साधना से कुछ दिव्य शक्तियाँ अर्जित कर ली थीं। नाटक में नरेन्द्र के गायन को सुनकर वे उनकी अद्वितीय प्रतिभा को पहचान लेते हैं और अपनी दिव्य शक्ति से उन्हें उनके पूर्व जन्म के दर्शन कराते हैं जहाँ विवेकानंद वशिष्ठ मुनि थे और खुद परमहंस अत्री ऋषि। ऐसी अलौकिकता के जरिए प्रस्तुति में भव्य दृश्य रचे गए हैं। पूरी प्रस्तुति अपने चाक्षुष संयोजन में दर्शकों को बाँधे रखती है, जिसमें बड़ा स्केल, तकनीकी कौशल, रोशनी के चमत्कार और प्रस...

चितरंजन त्रिपाठी की प्रस्तुति 'तमस'

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  परसों अभिमंच प्रेक्षागृह में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल की नई प्रस्तुति ‘तमस’ देखी, जिसका निर्देशन खुद विद्यालय के निदेशक चितरंजन त्रिपाठी ने किया है। यह प्रस्तुति वस्तुतः दो साल पहले तैयार की गई थी। लेकिन तब इसके शो टिकट बिक चुकने के बावजूद रद्द कर दिए गए थे। वजह थी पूर्व भाजपा सांसद बलबीर पुंज की ‘अपनी सरकार’ होते हुए भी एक ‘वामपंथी लेखक’ के उपन्यास के मंचन पर आपत्ति। उस वक्त रानावि के निदेशक नौकरशाही से आए हुए रमेशचंद्र गौड़ थे, जिन्होंने कोई रिस्क न लेते हुए आखिरकार उसे रद्द कर दिया। लेकिन अब चितरंजन त्रिपाठी खुद रानावि निदेशक भी हैं, लिहाजा ‘तमस’ की प्रस्तुतियाँ नई रिहर्सल के बाद दोबारा मंचित की जा रही हैं। अस्सी के दशक में इसी उपन्यास पर बने टीवी सीरियल में आरएसएस से जुड़े एक गौण प्रसंग को विस्तार से दिखाने के कारण भी इसपर विवाद हुआ था। भाजपा कार्यकर्ताओं ने इसके खिलाफ प्रदर्शन किए थे और लेखक-निर्देशक के पुतले फूँके थे। दिलचस्प यह भी है कि तब अदालत से इसपर रोक लगाने की माँग हालाँकि जावेद सिद्दिकी नाम के व्यक्ति की ओर से की गई थी, पर पूरे घटनाक्रम से कुल छवि यह बनी थी ...

भारतीय रंगमंच में राजेन्द्र नाथ

दिल्ली और देश के थिएटर में राजेन्द्र नाथ जी की शख्सियत जितनी बड़ी दिखाई देती थी उससे कहीं ज्यादा बड़ी थी। वे बगैर किसी हाइप और बड़बोलेपन के 50 सालों तक सिर्फ भारतीय भाषाओं के नाट्यालेखों के ही मंचन की अपनी नीति पर कायम रहे। और वो भी ऐसे नाटक जिन्हें पहले न खेला गया हो। इस क्रम में हिंदीतर भाषाओं के बाद में काफी प्रसिद्ध हुए नाटकों को उन्होंने राष्ट्रीय पहचान दी, और विजय तेंदुलकर, बादल सरकार, देबाशीष मजूमदार, मोहित चटर्जी आदि नाटककार बड़े पैमाने पर जाने गए। उनकी सक्रियता राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना के लगभग समानांतर रही। अपने थिएटर ग्रुप अभियान के जरिये और श्रीराम सेंटर के निदेशक के रूप में उन्होंने एनएसडी से अलग एक रास्ता बनाया। उनके थिएटर में एक्टिंग सबसे केंद्रीय चीज थी; और प्रॉपर्टी का किंचित भी अतिरिक्त हस्तक्षेप उन्हें मंजूर नहीं था। इस तरह एक ऐसे समाज में जहाँ रेटॉरिक का बहुत ज्यादा महत्त्व हो उनकी प्रस्तुति नाटक के अंतरतम से दर्शक को उसके मूल तत्त्व ‘अभिनय’ के जरिए कनेक्ट करती थी। इस मायने में बंगाल और महाराष्ट्र के बरक्स दिल्ली में वे अकेले थे जिन्होंने आधुनिक यथार्थवाद...

शुद्धो बनर्जी की प्रस्तुति ‘घर बाहर’

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इस प्रस्तुति को 100 में कम से कम 95 नंबर मिलने चाहिए। टैगोर के एक सदी से भी पुराने उपन्यास पर प्रतिभा अग्रवाल के नाट्यालेख को शुद्धो बनर्जी ने बहुत ही दत्तचित्त होकर मंच पर अंजाम दिया है। इसका कथानक कई द्वन्द्वयुक्त सहकथाओं में पेश होता है। इसमें जिस वृहत्तर यथार्थ में कई निजी यथार्थ घटित हो रहे हैं उसकी अपनी जटिलताएँ भी कम नहीं हैं। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के जिस तत्कालीन आंदोलन को आज हम देशभक्ति के चश्मे से देखते हैं उसकी माइक्रो सच्चाई में कई लोचे रहे हैं। गरीब लोगों को कम कीमत और बेहतर क्वालिटी के कारण विदेशी वस्तुएँ लेना ही बेहतर जान पड़ता है, लेकिन स्वदेशी का समर्थक संदीप उनपर जबरन अपनी देशभक्ति थोपना चाहता है। यह महत्त्वपूर्ण है कि स्वदेशी आंदोलन के जो भी नैरेटिव इतिहास या सीरियलों में आज तक उद्धृत किए जाते हैं उनमें द्वंद्व का यह बिंदु गायब होता है, जो इस उपन्यास में है। ‘घर-बाहर’ इस अर्थ में भारतीय यथार्थवाद की परंपरा से अलग उपन्यास है कि इसके पात्र सिर्फ अपनी फितरत के प्रतिनिधि भर नहीं हैं, बल्कि उनका अपना सेल्फ भी है। इसी का सफल प्रस्तुतीकरण इस प्रस्तुति को ज्यादा अंतरंग...

बेवफ़ाई एक बहाना है

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श्रीराम सेंटर रंगमंडल की प्रस्तुति ‘स्टक’ में दो युवा दंपती पहाड़ पर ट्रैकिंग के लिए गए हुए हैं। इसी बीच वहाँ बर्फ गिर गई है और उन्हें अपने गढ़वाली गाइड के घर के पास कैंपों में रुकना पड़ा है। इसके बाद इस ‘मनोवैज्ञानिक हास्य’ में रिश्तों की साँप-सीढ़ी का खेल शुरू होता है, जिसके शुरू में लगता है मानो प्रस्तुति के लेखक-निर्देशक मनीष वर्मा किसी कांसेप्ट तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अंततः यह एक वैसी ट्रिकी कहानी साबित होती है जैसी आजकल सिनेमा और वेब सीरिज में भी काफी कही जा रही हैं। तरह-तरह की तरकीबों से कहानी में ऐसा उतार-चढ़ाव कायम रखना कि दर्शक उलझा रहे यही इन कहानियों का प्राप्य होता है। फिर भी, दांपत्य में बेवफाई और अविश्वास के चिरंतन काल से चले आ रहे कथ्य में आज के टेक-यथार्थ की पीढ़ी ने क्या कुछ नया जोड़ा है यह इस नाटक से मालूम किया जा सकता है। इस पीढ़ी की समस्या है कि यह बेलगाम ढंग से सब कुछ जानती है। लेकिन इसका अंतःकरण अपनी धुरी पर नहीं है। वह लिबरेट होकर आवारा हो गया है। दोनों दंपतियों में एक की बीवी ने दूसरे के पति को बेवफाई के किसी कृत्य में शामिल देख लिया है, अब इसका ख...