संदेश

फ़रवरी, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पूंजी और परंपरा की छवियां

एच एस शिवप्रकाश का कन्नड़ नाटक 'मस्तकाभिषेक रिहर्सलु' परंपरा और पूंजी की दो स्थितियों को दिखाता है। एक नाट्य-मंडली बाहुबली गोम्मटेश्वर के जीवन पर नाटक तैयार कर रही है, जिसपर एक उद्योगपति का पैसा लगा हुआ है। लेकिन उद्योगपति भाइयों की मुकदमेबाजी में एक भाई के हार जाने पर दूसरा भाई नाटक के प्रसारण अधिकार एक अमेरिकी टीवी चैनल को बेच देता है। जिस बीच नाटक का रिहर्सल चल रहा है, उसी दौरान गोम्मटेश्वर की मूर्ति का महामस्तकाभिषेक भी हो रहा है। निर्देशक सुरेश अनगल्ली की इस प्रस्तुति में हर बारह साल में आयोजित होने वाले जैन धर्म के इस उत्सव के वास्तविक वीडियो फुटेज भरपूर मात्रा में इस्तेमाल किए गए हैं। इससे परंपरा में शामिल बीहड़पन के दृश्य अपने में ही एक कथानक बनते हैं। पूर्णतः नग्न साधु..., उनके चक्कर लगाती स्त्रियां। टीवी चैनल के पत्रकार पूरे जोशोखरोश से आयोजन को कवर कर रहे हैं। मंच के बैकड्रॉप में लगे परदे पर खुद ही अपना केश-लुंचन करते साधु दिखाई देते हैं। सिर और दाढ़ी-मूंछों का एक-एक केश खींच-खींचकर उखाड़ने की दर्दनाक प्रक्रिया को अपनी आस्था से फतह करते हुए। लेकिन साधु के लिए जो आ

सिद्धांत भी एक नाटक है

भारत रंग महोत्सव में पोलैंड के थिएटर ग्रुप कोरेया की प्रस्तुति 'ग्रोटोव्स्की- एन एटेंप्ट टु रिट्रीट' का प्रदर्शन सोमवार को कमानी प्रेक्षागृह में किया गया। जर्जी ग्रोटोव्स्की पिछली सदी के उत्तरार्ध में सक्रिय रहे पोलैंड के रंगकर्मी और रंग-सिद्धांतकार थे। उनकी पूअर थिएटर की अवधारणा रंगमंच को सिनेमा के प्रभावों से बरी रखने के अर्थ में थी। उनका राय में थिएटर को वह नहीं होना चाहिए, जो वह नहीं हो सकता। उनका कहना था कि रंगमंच अगर सिनेमा से ज्यादा वैभवशाली नहीं हो सकता, तो इसे गरीब ही रहने देना चाहिए। हमारे यहां मोहन राकेश भी अभिनेयता की तुलना में लाइट्स, मंच-सज्जा आदि के जरिए अतिरिक्त प्रभाव निर्मित किए जाने के खिलाफ थे, पर ग्रोटोव्स्की ने इस विचार को ज्यादा मुकम्मल शक्ल में पेश किया। उन्होंने अभिनेता और दर्शक के रिश्ते में अन्यमनस्कता पैदा करने वाली हर चीज को खारिज किया। उनके लिए मंच पर किया जा रहा अभिनय ही बुनियादी चीज थी। लेकिन वे 'मैथड एक्टिंग' के नपेतुलेपन के पक्षधर भी नहीं थे। अभिनय उनके लिए स्तानिस्लाव्स्की और स्ट्रासबर्ग पद्धतियों का हुनर मात्र न होकर अभिनेता की मानसि

टॉलस्टॉय के ईश्वर

ईश्वर की खोज में मनुष्य सदियों से लगा है। ऋग्वेद के जमाने से लेकर तरह तरह के सवाल उसे लेकर उठते रहे हैं। कि आखिर उसका स्वरूप कैसा है? अगर वो स्रष्टा और नियंता है तो इस समूची सृष्टि को लेकर उसका प्रयोजन क्या है? हमारे दैनंदिन जीवन में उस पर आस्था की भूमिका क्या है? क्या वो हमारी प्रोग्राम्ड जिंदगियों के सॉफ्टवेयर का एक ऑपरेटर है, जो अपने कंप्यूटर का एक बटन दबाता है और हमारे जीवन में भारी हलचल शुरू हो जाती है। वगैरह वगैरह। खास बात यह है कि सदियों की खोजबीन के बावजूद आज भी ईश्वर एक अस्पष्ट और अराजक अवधारणा है। हमारे शुरुआती पूर्वजों ने ईश्वर के साकार या निराकार स्वरूप की एक कल्पना की। उनके बाद के पूर्वजों ने उस स्वरूप की आराधना की पाबंदियां निर्धारित कीं। ये पाबंदियां धीरे धीरे धर्म का रूप लेती गईं। आज की तारीख में दुनिया भर के आस्तिक अपने अपने धर्मों की रक्षा में जमीन आसमान एक किए हुए हैं। वे अपने ईश्वर को लेकर बेहद असुरक्षित दिखाई देते हैं। नासदीय सूक्त की 'स्वर्ग रचयिता सृष्टिकर्ता ईश्वर रक्षा कर' अब एक पुरानी प्रार्थना हो चुकी है, आज का आस्तिक तो खुद अपने ईश्वर की हिफाजत में ज