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मई, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भारत रंग महोत्सव : एक जायज़ा

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यह भारत रंग महोत्सव का अठाहरवाँ साल था। सन 1999 में संस्कृति मंत्रालय की एक ग्रांट को उसी वित्तीय वर्ष में तुरत-फुरत खर्च करने के अभिप्राय से शुरू हुआ यह महोत्सव अब भारतीय रंगमंच की एक केंद्रीय परिघटना बन चुका है। 1999 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक रामगोपाल बजाज थे। बजाज उन लोगों में थे जो नाट्य विद्यालय में सत्ता की उठापटक के पिछले कई दशकों से गहरे जानकार और भागीदार थे। वे विद्यालय में रंगमंडल प्रमुख इत्यादि पदों से होते हुए निदेशक बने थे और रंगमंच की राष्ट्रव्यापी अन्य लघु-सत्ताएँ भी उनका रुआब मानती थीं। इसी आत्मविश्वास में उन्होंने यह बीड़ा उठाया और सिर्फ दो महीने के भीतर भारंगम का आयोजन कर दिखाया। उस भारंगम में गौतम हाल्दार की एकल प्रस्तुति ‘ मेघनादेर बध काव्य ’ , रतन थियम निर्देशित अज्ञेय का नाटक  ‘ उत्तरप्रियदर्शी ’ , सतीश आनंद निर्देशित मुद्राराक्षस का नाटक  ‘ डाकू ’ , खुद रामगोपाल बजाज निर्देशित कृष्ण बलदेव का नाटक  ‘ भूख आग है ’  की बहुत अच्छी प्रस्तुतियाँ बहुत से दर्शकों को आज तक याद होंगी। ये ज्यादातर प्रस्तुतियाँ तब नवनिर्मित अभिमंच प्रेक्षा

सीधी में कर्णभारम्

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नीरज कुंदेर और रोशनी मिश्रा निर्देशित ‘कर्णभारम्’ डेढ़ साल पहले भारंगम में देखी थी। शनिवार को दोबारा उसे सीधी के मंच पर देखा। प्रस्तुति में शास्त्रीय और लोक नाट्य तत्त्वों का बहुत अच्छा संयोजन है। पिछली बार सीधी के गाँवों में ‘अहिराई लाठी’ के ओरिजिनल प्रदर्शन देखे थे। अब यह प्रस्तुति देखी तो समझ आया कि परशुराम से युद्ध-कला सीख रहा कर्ण अहिराई लाठी भी सीख रहा है। इसी तरह खुद की जाँघ पर सिर रखे सो रहे परशुराम की नींद में खलल डाले बगैर कर्ण बिच्छ ुओं से जूझ रहा है— इस दृश्य में आदिवासी ‘गुदुम बाजा’ शैली के एक अंग ‘डाँगर’ का इस्तेमाल किया गया है। बिच्छू की जगह दोमुँहा जीव डाँगर यहाँ कर्ण को लहूलुहान कर रहा है। नाटक में कोरियोग्राफी का अनुशासन और इससे पैदा होती लय भी देखने लायक है। पात्रों के हाथ में मंजीरा है और हर ‘स्टेप’ के साथ उसका स्वर कैसी तो थिरकन पैदा करता है! मंच के एक छोर पर बैठे निर्देशकद्वय में से एक रोशनी मिश्रा के स्वर, आलाप और थापों से मिलकर बने इस संयोजन का अनुशासन हिंदी पट्टी में एक दुर्लभ चीज है। प्रस्तुति में कर्ण बने नरेन्द्र सिंह की आँखों में भी कुछ बात है जो कर्ण के क

बिठूर में

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पिछले से पिछले हफ्ते कानपुर में होने से संक्षिप्त रूप से बिठूर जाना हुआ। करीब साल भर पहले जब जॉन लैंग का नाना साहब पर लिखा संस्मरण पढ़ा था तभी से वहाँ जाने का मन था। यह संस्मरण 1855 के आसपास का है जब जॉन लैंग नाना साहब के यहाँ दो दिन ठहरा था। इसके दो साल बाद की वे घटनाएँ हैं जिनके परिणामस्वरूप नाना को बिठूर से पलायन करना पड़ा। विष्णुभट्ट शास्त्री की अमृतलाल नागर अनूदित पुस्तक ‘माझा प्रवास’ में उनके बिठूर छोड़ने का मार्मिक वर्णन ह ै। मराठा राज की पीढ़ी-दर-पीढ़ी बचाकर रखी गई कई धरोहरें उन्होंने यहीं बिठूर के करीब उस वक्त गंगाजी में बहा दी थीं। एक शंख, एक बाण, शिवाजी को रामदास स्वामी द्वारा भेंट में दिया गया डेढ़ सौ साल पुराना एक लँगोट आदि। नाना के महल को अंग्रेजों ने जला दिया था। पूछने पर पता चला कि उस खंडहर की तरफ जाने कोई रास्ता नहीं है। अलबत्ता एक परिसर है जिसमें जहाँ-तहाँ से चीजें जुटाकर एक म्यूजियम बनाया हुआ है, और बीस रुपए फी बंदा कमाई की जा रही है। म्यूजियम का कोई स्वरूप नहीं है और आजादी के इतिहास में कानपुर के प्रसंग की कुछ चीजें वहाँ बेतरतीब नुमायाँ हैं। कहीं ‘प्रताप’ अखबार की