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कला दृष्टियों का फर्क

भारतीय और पश्चिमी कला-दृष्टियों के फर्क को अमूमन प्रस्तुति-विन्यास के अर्थ में देखा जाता है। इसीलिए इसका ज्यादातर जिक्र संगीत, नृत्य, चित्रकला अथवा नाट्य शैलियों के संदर्भ में ही होता है। विभिन्न सेमिनारों, पुस्तकों और पाठ्यक्रमों में इन दो कला-दृष्टियों की चर्चा होती है, उनके फर्कों को समझाया जाता है, लेकिन मैंने ऐसी कोई व्याख्या कहीं नहीं देखी जो वास्तव में यह बता पाए कि ये दो दृष्टियाँ अपने मूल रूप में हैं क्या, और एक समाज के रूप में हमें उन्हें किस तरह लेना चाहिए। इसकी वजह शायद यह है कि ये दृष्टियाँ जिन जीवन प्रणालियों से उद्भूत होती हैं वे हेड और टेल की तरह सिक्के के दो ऐसे सर्वथा विपरीत छोर हैं कि कभी एक-दूसरे को देख नहीं पाते। इसीलिए भारत और पश्चिम दोनों ही ओर के बड़े से बड़े विद्वान कुछ लक्षणों की चर्चा करके ही रह जाते हैं। लेकिन वहीं राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था के स्तर पर पिछले ढाई-तीन सौ सालों से ऐसी प्रक्रियाएँ सघन से सघनतर और सघनतम होती गई हैं कि भारतीय और पश्चिमी जीवन प्रणाली में एक गहरा अंतर्ग्रंथन होता गया है। लेकिन क्या यह अंततः दो अपरिचितों का सहवास ही नहीं है? कभी