संदेश

जून, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पिता की याद

चित्र
मेरे पिता दुनियादारी के लिहाज से नितांत अव्यावहारिक इंसान थे। एक गृहस्थ की सलाहियत उनमें ज्यादा नहीं थी। दरअसल वे एक सुखवादी व्यक्ति थे। कोई भी समस्या उनके लिए बहुत बड़ी नहीं थी। इसीलिए आसन्न समस्याओं को लेकर भी उनके पास कोई योजना नहीं होती थी। कई बार समस्या जब बड़ी होकर सिर पर आ खड़ी होती तो वे अपने बिस्तर पर जाकर सो जाते। उनका यह स्वभाव उनके दांपत्य को निरंतर कलहपूर्ण बनाए रखता। मेरी माँ उनकी सनातन विरोधी थीं। असल में वो हर किसी की विरोधी थीं, और स्वयं की प्रबल समर्थक थीं। कलह का एक कारण उनके पास हमेशा मौजूद होता—अनियमित और अपर्याप्त आमदनी। पिता ज्यादातर समय अस्थायी नौकरियाँ या फ्रीलांस काम ही करते रहे। इस तरह किल्लत और कलह से युक्त हमारे घर के इस वातावरण में बीती 27 नवंबर को मेरी माँ के दिवंगत होने तक 60 साल पुराना उनका दांपत्य अटूट चलता रहा। 0000 सन 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के अगले से अगले रोज जब सिख विरोधी हिंसा भड़की हुई थी, एक घटना घटी। एक व्यक्ति साइकिल के कैरियर पर कपड़े धोने के पीले साबुन का 15-20 किलो का एक गट्ठा हमारे गेट पर रखकर हड़बड़ी में चला गया। किसी ने बताया

इतिहास से मुगलों और डार्विन को हटाए जाने की पूर्वकथा

  एस.एल. भैरप्पा (प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक) वर्ष 1969-70 में श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने नेहरू-गाँधी परिवार के करीबी राजनयिक जी. पार्थसारथी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। कमेटी का काम था-- शिक्षा के माध्यम से राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोना। उस समय मैं एनसीईआरटी में शैक्षणिक दर्शनशास्त्र विषय में रीडर था और समिति के पाँच सदस्यों में चुना गया था। हमारी पहली बैठक में श्री पार्थसारथी ने बतौर कमेटी चेयरमैन प्रायः एक कूटनीतिक भाषा में हमें समिति का उद्देश्य समझाया : "यह हमारा कर्तव्य है कि हम बढ़ते बच्चों के मन में ऐसे कांटे न बोएँ जो आगे चलकर राष्ट्रीय एकता में बाधा खड़ी करें। ऐसे काँटे ज्यादातर इतिहास के पाठ्यक्रमों में मिलते हैं, और कभी-कभी भाषा और समाज विज्ञान के पाठ्यक्रमों में भी। हमें उन्हें निकाल बाहर करना है। हमें केवल ऐसे विचारों को शामिल करना है जो हमारे बच्चों के मन में राष्ट्रीय एकता की अवधारणा को मजबूती से बिठाते हों। इस समिति को यह महती जिम्मेदारी दी गई है।”   बाकी चार सदस्य उनकी बात के समर्थन में सम्मान से अपना सिर हिला रहे थे। लेकिन मैंने कहा, "सर,

सावरकर की पेंशन, सैयद अहमद की पेंशन

चित्र
सावरकर को 1924 में कैद के 13 साल बाद रत्नागिरि जेल से तो रिहा किया गया, लेकिन रत्नागिरि जिले से बाहर न जाने की बंदिश लगा दी गई, जो कि एक भिन्न तरह की कैद थी। वहाँ उन्होंने पाँच साल अपने साधनों से गुजारा किया, लेकिन जब जीवनयापन का संकट गहराने लगा तो उनकी शिकायत पर 1929 से उन्हें 60 रुपए की मासिक पेंशन ब्रिटिश प्रशासन की ओर से दी जाने लगी। ये 60 रुपए उस वक्त कितने थे? इसके लिए सावरकर-विरोधी एक दस्तावेज ढूँढकर लाए। यह वो सरकारी पत्र है जो अगले ही साल यानी 1930 में यरवदा जेल में कैद किए गए गाँधी के ऊपर खर्च होने वाली रकम के लिए जारी किया गया था। यह रकम 100 रुपए प्रतिमाह थी। प्रतिमाह के लिए अंग्रेजी शब्द mensem का अनुवाद सावरकर-विरोधियों ने ‘प्रतिवर्ष’ कर दिया और बताया कि गाँधी पर प्रतिमाह सिर्फ सवा आठ रुपए खर्च किए जाते थे। बहरहाल, गाँधी पर खर्च होने वाले 100 रुपए प्रतिमाह उनके लिए विशेष रूप से नियत की गई राशि हो ऐसा नहीं था। पत्र में बताया गया है कि यही राशि बंगाली कैदी सतीश चंद्र पर भी खर्च की जाती थी। यानी सावरकर को बतौर पेंशन दी जाने वाली राशि अपने समय के हिसाब से न्यूनतम थी। लेकिन