बैकस्टेज के ढांचे में
बीते सप्ताह हैबिटाट सेंटर के स्टीन ऑडिटोरियम में सहर थिएटर ग्रुप ने प्रस्तुति 'जी हमें तो नाटक करना है' का मंचन किया। प्रस्तुति हल्के-फुल्के बतकही के ढंग से थिएटर की व्यावहारिक मुश्किलों का एक कोलाज बनाती है। एक खाली मंच पर पांच-छह अभिनेता रिहर्सल के लिए जमा हुए हैं। निर्देशक उन्हें तरह-तरह की एक्सरसाइज करा रहा है, पर उन्हें शिकायत है कि असली चीज यानी नाटक और किरदार वगैरह की कोई चर्चा ही नहीं हो रही। एक पात्र उनमें से कुछ ज्यादा ही बेसब्र है। वह दिल्ली देहात के लहजे में 'सरजी, तुम उट्ठक बैठक तो घणी करवाओ हो, पर कुछ सिखा तो रहे ना हो' बोलने वाला एक ठेठ दुनियादार किस्म का बंदा है। उसकी मंशा शाहरुख खान बनने की है। एक स्थिति में वह मंच पर अकेला है, और अकेले में ही इस हसरत को अंजाम देने में जुटा है। शाहरुख की तरह छाती उघाड़े है और उसी की तरह हकला-हकला कर कोई संवाद बोल रहा है। वह दर्शकों से मुखातिब होते हुए भी उनसे निस्संग है, क्योंकि हकीकत में वह अपने एकांत में है। उसकी जज्बाती आत्ममुग्धता का यह 'एकांतिक' दृश्य खासा हास्यप्रद है। युवा निर्देशक मृत्युंजय प्रभाकर ऐ