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बैकस्टेज के ढांचे में

बीते सप्ताह हैबिटाट सेंटर के स्टीन ऑडिटोरियम में सहर थिएटर ग्रुप ने प्रस्तुति 'जी हमें तो नाटक करना है' का मंचन किया। प्रस्तुति हल्के-फुल्के बतकही के ढंग से थिएटर की व्यावहारिक मुश्किलों का एक कोलाज बनाती है। एक खाली मंच पर पांच-छह अभिनेता रिहर्सल के लिए जमा हुए हैं। निर्देशक उन्हें तरह-तरह की एक्सरसाइज करा रहा है, पर उन्हें शिकायत है कि असली चीज यानी नाटक और किरदार वगैरह की कोई चर्चा ही नहीं हो रही। एक पात्र उनमें से कुछ ज्यादा ही बेसब्र है। वह दिल्ली देहात के लहजे में 'सरजी, तुम उट्ठक बैठक तो घणी करवाओ हो, पर कुछ सिखा तो रहे ना हो' बोलने वाला एक ठेठ दुनियादार किस्म का बंदा है। उसकी मंशा शाहरुख खान बनने की है। एक स्थिति में वह मंच पर अकेला है, और अकेले में ही इस हसरत को अंजाम देने में जुटा है। शाहरुख की तरह छाती उघाड़े है और उसी की तरह हकला-हकला कर कोई संवाद बोल रहा है। वह दर्शकों से मुखातिब होते हुए भी उनसे निस्संग है, क्योंकि हकीकत में वह अपने एकांत में है। उसकी जज्बाती आत्ममुग्धता का यह 'एकांतिक' दृश्य खासा हास्यप्रद है। युवा निर्देशक मृत्युंजय प्रभाकर ऐ

जीवट के अरुणप्रकाश

हिंदी की प्रकाश प्रत्यय वाली कहानीकार त्रयी में से अरुण प्रकाश उस क्लासिक कथा-मुहावरे के शायद अंतिम लेखक थे जहां संवेदना की डिटेलिंग धीरे-धीरे पाठक को घेरती है। उनकी बहुत पहले पढ़ीं 'जलप्रांतर', 'भैया एक्सप्रेस' और 'बेला एक्का लौट रही है' आदि कहानियों का प्लॉट अब धुंधला ही याद है। लेकिन यह याद है कि उनकी कहानियों में सुख छोटे-छोटे थे, लेकिन दुख ज्यादा बड़ा था। स्थितियों के समांतर एक अप्रकट यथार्थ वहां पात्र के भीतर घटता हुआ महसूस होता था। उनके पात्र उस दुनिया के थे, जहां कुछ छोटी-छोटी उम्मीदें होती हैं, और कुछ है जो सालता रहता है। अरुणप्रकाश का अपना जीवन भी ऐसी ही कई सालती रहने वाली कहानियों से बना था। उस दौरान पढ़ी उनकी कई कहानियों में एक होटल के स्टीवर्ड के जीवन पर भी थी। बाद में कभी हंस के स्तंभ 'आत्मतर्पण' में उनके लिखे का यह अंश पढ़ते हुए यह अनुमान हुआ कि शायद उस कहानी के किरदार वे स्वयं ही थे : ''लोदी होटल में वुडलेंड्स रेस्त्रां में अज्ञेय इलाजी के साथ आए थे. मैंने भोजन परोसा, भोजन के बाद जब टिप के पैसे इलाजी ने छोड़े तो अज्ञेय जी ने धीमे

रह गईं दिशाएं इसी पार

वरिष्ठ लेखक संजीव ने अपने नए उपन्यास 'रह गईं दिशाएं इसी पार' में जैविकी को अपना विषय बनाया है। जाहिर है यह एक शोधपूर्ण उपन्यास है। इससे पहले उन्होंने भिखारी ठाकुर के जीवन पर भी एक शोधपूर्ण उपन्यास 'सूत्रधार' लिखा था। लेकिन उनका यह उपन्यास किंचित शोध-आक्रांत हो गया है। उन्होंने इसमें विषय के इतने मोर्चे खोल दिए हैं कि कथानक उनमें फंसा हुआ नजर आता है। टेलीपैथी से लेकर लिंग परिवर्तन, सरोगेट मातृत्व से लेकर जींस और हारमोंस के जरिए व्यक्तित्व परिवर्तन तक कोई मुद्दा इसमें छूटा नहीं है। इन सारे प्रसंगों से गुजरते हुए अनास्था की एक ऐसी दुनिया आबाद होती है जिसका कोई ओर-छोर या धुरी नजर नहीं आती। मनुष्य मनुष्य नहीं एक लोथ है, जिसकी आंतरिक और बाह्य संरचनाओं को बदल कर उसे कैसी भी शक्ल दी जा सकती है। उपन्यास का एक किरदार बिस्नू बिजारिया मांस और मछली का कारोबार करता है और बुढ़ापे में अपनी सेक्स की लस्ट को पूरा करने के लिए कायांतरण चाहता है। संजीव ऐसी बहुत सी स्थितियों की मदद से सृष्टि और जिजीविषा के दुर्द्धर्ष रूपों को पेश करते हैं। सुंदरबन के बंदर मछली खाते हैं, क्योंकि खारे पानी

पैरागुए में जीवन और राजनीति

पैरागुए के लेखक ख्वान मान्वेल मार्कोस के उपन्यास 'एल इन्विएर्नो दे गुंतेर' का अनुवाद हाल में 'गुंतेर की सर्दियां' नाम से प्रकाशित हुआ है। लेखक-अनुवादक प्रभाती नौटियाल ने इसे सीधे स्पानी भाषा से अनूदित किया है। एक जमाने में हुए रूसी उपन्यासों के अनुवाद के अलावा अंग्रेजी को बिचौलिया बनाए बगैर ऐसे सीधे अनुवादों के उदाहरण हिंदी में विरल हैं। इस उपन्यास के मामले में यह इस लिहाज से भी अहम है कि यह एक जटिल पाठ है। उसका मुहावरा अपनी तहों में धीरे-धीरे पाठक के आगे खुलता है। उपन्यास के प्रचलित अनुशासन से पूरी तरह जुदा इस मुहावरे में चल रही बात के बीच में अचानक कुछ ऐसे विवरण 'टपक' पड़ते हैं, जो प्रत्यक्षतः अपनी संदर्भहीनता में थोड़ा उलझाते और कई बार खीझ भी पैदा करते हैं, पर वस्तुतः वे कई बार एक बैकड्रॉप और कई बार एक आभासी मंतव्य होते हैं। पूरा उपन्यास बेतरतीब छोटी-छोटी स्थितियों से लेकर इतिहास और पैरागुए में अस्सी के दशक की राजनीति के संदर्भों तक फैला हुआ है। स्कूल या कॉलेज की किसी कक्षा के दृश्य से लेकर किसी वेश्यालय तक का मंजर उसमें बेतकल्लुफ चले आते हैं। शिक्षक अपने