रह गईं दिशाएं इसी पार


वरिष्ठ लेखक संजीव ने अपने नए उपन्यास 'रह गईं दिशाएं इसी पार' में जैविकी को अपना विषय बनाया है। जाहिर है यह एक शोधपूर्ण उपन्यास है। इससे पहले उन्होंने भिखारी ठाकुर के जीवन पर भी एक शोधपूर्ण उपन्यास 'सूत्रधार' लिखा था। लेकिन उनका यह उपन्यास किंचित शोध-आक्रांत हो गया है। उन्होंने इसमें विषय के इतने मोर्चे खोल दिए हैं कि कथानक उनमें फंसा हुआ नजर आता है। टेलीपैथी से लेकर लिंग परिवर्तन, सरोगेट मातृत्व से लेकर जींस और हारमोंस के जरिए व्यक्तित्व परिवर्तन तक कोई मुद्दा इसमें छूटा नहीं है। इन सारे प्रसंगों से गुजरते हुए अनास्था की एक ऐसी दुनिया आबाद होती है जिसका कोई ओर-छोर या धुरी नजर नहीं आती। मनुष्य मनुष्य नहीं एक लोथ है, जिसकी आंतरिक और बाह्य संरचनाओं को बदल कर उसे कैसी भी शक्ल दी जा सकती है। उपन्यास का एक किरदार बिस्नू बिजारिया मांस और मछली का कारोबार करता है और बुढ़ापे में अपनी सेक्स की लस्ट को पूरा करने के लिए कायांतरण चाहता है। संजीव ऐसी बहुत सी स्थितियों की मदद से सृष्टि और जिजीविषा के दुर्द्धर्ष रूपों को पेश करते हैं। सुंदरबन के बंदर मछली खाते हैं, क्योंकि खारे पानी की वजह से खाद्य वनस्पति वहां पनप नहीं पाती, जैसे तथ्यों से लेकर प्रयोगशालाओं और बूचड़खाने के भीतर के दुर्दांत दृश्य उपन्यास में निरंतर प्रस्तुत होते रहते हैं। इसीके समांतर और इसी से जुड़ी एक छोटी कथा मछुआरिन बेला की है। बेला की मार्फत थोड़ा रोमांस, थोड़ा यथार्थ, थोड़ा संघर्ष उपन्यास में जगह बनाते हैं। मछली के व्यापार में कोल्ड स्टोरेज में काम की अमानवीय स्थितियां और मछुआरों की रोजी छीनते बड़ी पूंजी के ट्रालरों की यह कथा जाहिर है अपने यथार्थवाद के कारण ज्यादा जीवंत है।
संजीव प्लॉट के लेखक हैं। प्लॉट में स्थितियों के समायोजन से जो नैरेटिव बनता है, उसके वे पुराने सिद्धहस्त हैं। इस तरह एक कहानी बनती है जो लेखक की उंगलियों पर नाचती है। लेकिन यह उपन्यास सिर्फ कहानी नहीं है, उसमें विचार की एक भंगिमा भी है। इस अर्थ में सिर्फ विषय ही नहीं बल्कि विन्यास के स्तर पर भी यह परंपरा से अलग तरह का उपन्यास है। उसके वैज्ञानिक पात्र अक्सर साहित्य और  समाजशास्त्र आदि की भी चर्चा करते हुए दिखते हैं। इस तरह कई कथासूत्रों, कई विषय बिंदुओं से गुजरते हुए संजीव कहानी ही नहीं पाठक को भी इधर-उधर कुछ ज्यादा नचाते हैं। वे जब चाहे सार्त्र और फूको से लेकर ठाकुर प्रसाद सिंह और देवेंद्र मेवाड़ी तक के जिक्र उसमें खोंस देते हैं। उनके पात्र एक पंक्ति में लंदन और दूसरी में कोलकाता या आर्कटिक या राजस्थान पहुंचे हुए होते हैं। कुछ मौकों पर तो उनकी लेखकीय स्वेच्छाचारिता किसी चुटकुले नुमा स्थिति को अध्याय की लंबाई में बरतती दिखाई देती है। 'शुद्धता के प्रबल समर्थक डॉक्टर बलविंदर समलैंगिकता के समर्थक क्योंकर बने' नामक प्रसंग में डॉक्टर ने किसी बाहुबली के लिए ग्यारह साल की बच्ची को सोलह साल की बनाने का उपक्रम किया। लेकिन हारमोन ट्रीटमेंट से उसके मूंछ-दाढ़ी उग आए और वह फातिमा से फत्ते खां बन गई, और डॉक्टर सिंह को जा पकड़ा। इसी तरह समुद्र से डरने वाले घरघुसरा में डर के जींस को निष्क्रिय करने के नतीजे में वह समुद्र में चलता चला गया और मर गया। इस तरह संजीव अपने नैरेटिव में बहुत कुछ यहां-वहां फिट करते हुए उसे एक वंडरलैंड की-सी शक्ल देते हैं। सच्चाई यह है कि इस तरह का नैरेटिव किसी भी सत्य से ज्यादा कहानी की परवाह करता है। कभी कोई लोमहर्षक वृत्तांत डालकर, कभी रोमांस का कोई टुकड़ा डालकर वह पाठक को ललचाए रखता है। इस क्रम में कोई यथार्थपूर्ण वर्णन भी उसके लिए एक युक्ति भर होता है। संजीव अपने शोध को 'प्रामाणिक' बनाने के लिए बीच-बीच में कुछ सूक्त वाक्य डाल देते हैं। जैसे कि उनका एक वैज्ञानिक पात्र कहता है- 'फूको ने ठीक ही कहा है- सेक्स भी एक सत्ता है'। या एक्स और वाई क्रोमोजोम्स के मिलकर भ्रूण बनाने की भांति पति-पत्नी का मिलकर एक हो जाना 'सार्त्र का दर्शन' है। 
उपन्यास का केंद्रीय पात्र जिम अपनी नानी के गर्भ से जन्मा एक सरोगेट चाइल्ड है। 18 साल की उम्र में बॉटनी से एमएससी है। वह मानवीय संवेगों को जानते हुए भी उनसे परे है। वह भीषणतम स्थितियों में सहजता से टहलता है। अक्सर उसे जैविकी और दुनियावी कार्यव्यापार के बीच रिश्ता खोजते हुए दिखाया गया है। उसकी तटस्थता और निस्संगता एकबारगी को एक लेखकीय ज्यादती लगती है। लेकिन जिम ही नहीं उपन्यास के बहुधा पात्र इस किस्म के हैं कि वे किन्हीं जीवंत पात्रों के तौर पर नहीं बल्कि भूमिकाकार राजेंद्र यादव से शब्द उधार लें तो एक 'बहस' के सबब से उपन्यास में उपस्थित हैं। राजेंद्र यादव इसे जीव वैज्ञानिक और दार्शनिक बहसों का उपन्यास कहते हैं। लेकिन वास्तव में यह उपन्यास कोई बहस नहीं बल्कि एक आख्यान है। प्राणि-शरीर के वैज्ञानिक और पूंजीगत 'गिनी पिग' रूपों की जानकारी का आख्यान, जिसे जैविकी के लोमहर्षक ब्योरों, सृष्टि और जीवन की बाबत स्फुट विचारों और अछोर प्रकृति को लेकर  काव्यात्मक उदभावनाओं से विन्यस्त किया गया है। इसका प्रयोजन विज्ञान की उन्मुक्त निरंकुशता की ओर ध्यान खींचना नहीं है, बल्कि इस उन्मुक्तता के ब्योरों की कहानी कहना है। संजीव जीवविज्ञान के भीषण ब्योरों से रोमांच का रस पैदा करते हैं और मिथ, काव्य व विज्ञान की मदद से बहुत सी आत्मगत व्याख्याएं बनाते हैं। वे जैविकी से जुड़े प्रयोगों में कोई नैतिक चिंता तलाशने के बजाय शोध-आक्रांत खुर्दबीनी से एक 'तिलिस्मे होशरुबा' बना डालते हैं। उनके नायक को ट्रेडीशनल और सिंथेटिक इंसानों में संघर्ष का भय होने लगता है। उपन्यास की संदर्भ बहुलता में स्टालिन से लेकर चाणक्य और कालिदास तक पूरी सहजता से मौजूद हैं। 
उपन्यास जिस प्रविधि में लिखा गया है वह पूर्वार्ध में किंचित ज्यादा रोचक और आश्वस्तकारी है। इसकी वजह है कि विषय का सिलसिला यहां ज्यादा सुसंगत है। उत्तरार्ध में संजीव विषय को समेटने में थोड़ा अचकचा गए हैं। वे अमृतलाल नागर की परंपरा के लेखक हैं, जहां स्थितियां चित्रों की तरह दर्ज होती हैं। वे एक ग्लोबल कथानक में एक नाचीज यथार्थ की कहानी कहते हैं। मछुआरिन बेला की इस कहानी में मनुष्य की बेबसी और उसके आवेगों के चित्र खींचते हुए उनकी कलम की रंगत देखते ही बनती है। किंतु उत्तरार्ध में चीजें कुछ ज्यादा जादुई याकि बेपर की हो गई हैं। संजीव स्थितियों को चित्रात्मक ढंग से कहने के अपने कौशल को खुद ही धूमिल हो जाने देते हैं। इस लिहाज से बिस्नू बिजारिया के रहस्यमय लोक की तुलना में भारतीय यथार्थ का एक ज्यादा प्रतिनिधि पात्र किस्नू बिजारिया उपन्यास में थोड़ा कमतर रह गया है।

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