संदेश

मई, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कोर्ट मार्शल और सबसे बड़ा सवाल

कोर्ट मार्शल पिछले दो दशकों में हिंदी थिएटर में सबसे ज्यादा खेला गया नाटक है। वह यों तो स्वदेश दीपक की रचना है, पर उसका रंगमंचीय संस्कार रंजीत कपूर ने किया था। उनके निर्देशन में पीयूष मिश्रा और गजराज राव जैसे अभिनेताओं के साथ वह पहली बार 1991 में खेला गया था। तब से विभिन्न थिएटर ग्रुप लगातार उसे खेल रहे हैं। इधर रंजीत कपूर ने इसकी एक नई प्रस्तुति तैयार की है। लखनऊ की भारतेंदु नाट्य अकादेमी के छात्रों के लिए निर्देशित इस प्रस्तुति का श्रीराम सेंटर में मंचन किया गया। 'कोर्ट मार्शल' की विशेषता है कि वह दर्शक को मोहलत नहीं देता। वह हमारी दलिद्दर सामाजिकता का एक युक्तिपूर्ण और डि-रोमांटिसाइज्ड पाठ है। उसकी यह विशेषता है कि दलित विमर्श की अत्युक्तियों के बगैर वह ऐसी सही जगह चोट करता है कि बिलबिलाते वर्णवाद को खुद ही अपना चोगा फेंककर नंगा हो जाना पड़ता है। यह नाटक कला में विचार की तार्किक एप्रोच का भी एक अच्छा उदाहरण है। सच को छुपाना एक बात है, उसके प्रति उदासीन रहना दूसरी। रामचंदर का वकील विकाश राय जब पर्त दर पर्त इस उदासीनता को उघाड़ता है, तो वहां एक बड़ा भारी अन्याय छिपा नजर आता है

अभिनय में एक दृश्य था

रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी 'क्षुधित पाषाण' याकि भूखे पत्थर की प्रस्तुति बुधवार को संगीत नाटक अकादेमी के मेघदूत प्रेक्षागृह में की गई। आलोक चटर्जी के एकल अभिनय वाली इस प्रस्तुति का आयोजन अकादेमी की कार्यक्रम श्रृंखला रवींद्र प्रणति के अंतर्गत किया गया। क्षुधित पाषाण में कहानी के भीतर एक कहानी है। कहानी सुना रहा नायक रूई का महसूल वसूलने वाला एक इंस्पेक्टर है। उसे बरीच नाम की एक सुरम्य जगह पर तैनाती मिली है। यह कहानी यहीं के एक जनशून्य प्रासाद की है, जहां उसे रहना है। प्रासाद के कर्मचारी दिन में तो उसकी सेवा को तत्पर हैं लेकिन शाम के बाद वे वहां नहीं रुकना चाहते। अकेले नायक को यहां कुछ ऐसा अदभुत देखने को मिलता है कि 'दिन की शाला पर एक दीर्घ कृष्ण यवनिका' के घिरते ही वह इसमें घिरने लगता है। रुकने के पहले रोज ही उसे कुछ रमणियां नजदीक से गुजरती दिखती हैं और फिर पानी में छपाक-छपाक के स्वर। और दिखती है अभिसार की प्रतीक्षा में एक अरब देश की तरुणी। नायक को लगा मानो यह अवास्तविक व्यापार ही जगत का एक मात्र सत्य हो। कि यथार्थ में साढ़े चार सौ रुपए पाने वाला रूई का महसूल इंस्पेक्टर

कलावाद की कवायद

हिंदी थिएटर में हर कोई प्रभावात्मक किस्म के प्रयोग करने पर उतारू है। युवा रंगकर्मी राजकुमार रजक निर्देशित इलाहाबाद के थिएटर ग्रुप एक्स-ट्रा की प्रस्तुति 'सूरज का सातवां घोड़ा' कुछ इस तरह की है कि उसमें इस उपन्यास की जगह कोई भी कविता, कहानी, उपन्यास, आख्यान फिट किया जा सकता है। प्रस्तुति नैरेटिव का कोई प्रकार पेश नहीं करती, क्योंकि नैरेटिव का यहां कोई मूल्य ही नहीं है। वह एक दृश्यात्मक कलावाद में नौकर की तरह मौजूद है। एक जैसी पोशाक में छह अभिनेता मंच पर किसी शास्त्रीय ऑपेरा जैसे दृश्य निर्मित करते हैं। ये देहगतियों की लय से बनने वाले दृश्य हैं। इनमें कास्ट्यूम और प्रकाश योजना के रंग हैं। बुल्ले शाह के बोलों की सूफियाना रंगत से लेकर केसरिया बालमा आवो मोरे देस तक के आलाप हैं। दो लाठियों को पालकी में बदल देने जैसी दृश्य युक्तियां हैं। तरह-तरह की बुदबुदाहटें हैं। लेकिन कुछ नहीं है तो पाठ का संप्रेषण। प्रस्तुति के डिजाइन में संप्रेषण किसी प्रयोजन की तरह नजर ही नहीं आता। पूरी प्रस्तुति एक वायवीयता की शिकार मालूम देती है। उसके प्रभावात्मक प्रयोग में उपन्यास का एक सहयोगी इस्तेमाल भर हो

हाथरस शैली का रस

भोपाल के रवींद्र भवन में बीते सप्ताह नौटंकी-उत्सव का आयोजन किया। राज्य के संस्कृति संचालनालय के इस आयोजन में हाथरस शैली की नौटंकियां पेश की गईं। कानपुर शैली की तुलना में हाथरस शैली को गायकी प्रधान माना जाता है। बगैर स्वर को तोड़े लंबे-लंबे आलापों की गलेबाजी का इसमें काफी महत्त्व है। कई दृश्यों में अभिनेतागण इस हुनर का मुकाबला जैसा करते नजर आते हैं। कोई तय नहीं कि इस मुकाबले में गौण किरदार मुख्य किरदार से बाजी मार ले जाए। उत्सव के पहले दो दिन मथुरा के स्वस्तिक ग्रुप ने 'अमरसिंह राठौर' और 'हरिश्चंद्र तारामती' प्रस्तुतियां कीं। अमरसिंह राठौर बादशाह शाहजहां का बहादुर सिपहसालार है, जिससे 'राजपूतों का दुश्मन' वजीरेआला सलावत खां रंजिश पाले हुए है। अमर सिंह अपनी दुल्हन का गौना कराने दरबार से छुट्टी पर गया है। रास्ते में उसे प्यास से बेहाल एक पठान मिलता है। पानी पिलाने से वह अमर सिंह का मुरीद और दोस्त बन जाता है। उधर लौटने में देरी पर अमर सिंह पर साढ़े सात लाख रुपए जुर्माना लगा दिया गया है। लेकिन सवाल है कि जुर्माना वसूल कौन करे। गंवई अतिशोयक्ति की हद यह है कि नायक की न

राजस्थानी गोग स्वांग

कुछ अरसा पहले त्रिवेणी सभागार में हिंदी अकादमी की ओर से राजस्थानी गोग स्वांग का मंचन कराया गया। सांबर के राजा की इस कथा को मंच पर महबूब खिलाड़ी एंड पार्टी ने पेश किया। प्रस्तुति के लिए मंच पर सिर्फ तीन माइक खड़े कर दिए गए थे। पात्रगण इन्हीं के सामने खड़े होकर अपनी गायकी और अभिनय का मुजाहिरा करते हैं। स्त्री पात्रों में भी पुरुष ही हैं। राजस्थानी चटकीले रंग हर किसी की वेशभूषा में दिखाई देते हैं। स्वांग की विधा नाटक के ढांचे के साथ कैसे खेल करती है, यह प्रस्तुति उसका एक नायाब उदाहरण थी। एक कहानीनुमा कुछ है जिसके बीच लंबे-लंबे आलापों वाली गायकी और पारंपरिक नाच वगैरह भी चलते रहते हैं। स्वांग का नायक पगड़ी, मूछों, काजल, कटार वाला राजा गोप चवाण है। एक दिन उसके पास उसकी मौसीमां ने आकर कहा कि 'बेटे गोप चवाण मैं तेरी जगह पे अपने बेटों अर्जन और सर्जन को राज कराना चाहूं हूं।' लेकिन भांजे के बात न मानने पर उसने कहा 'आज से जैसे राम के लिए कैकेयी वैसे ही तेरे लिए मैं'। मौसी के बाद मां आई पर गोप चवाण नहीं माना। इस वाकये के बाद मौसीमां का बेटा सर्जन सिंह जाकर बादशाह सलामत से मिल लेता ह