राजस्थानी गोग स्वांग
कुछ अरसा पहले त्रिवेणी सभागार में हिंदी अकादमी की ओर से राजस्थानी गोग स्वांग का मंचन कराया गया। सांबर के राजा की इस कथा को मंच पर महबूब खिलाड़ी एंड पार्टी ने पेश किया। प्रस्तुति के लिए मंच पर सिर्फ तीन माइक खड़े कर दिए गए थे। पात्रगण इन्हीं के सामने खड़े होकर अपनी गायकी और अभिनय का मुजाहिरा करते हैं। स्त्री पात्रों में भी पुरुष ही हैं। राजस्थानी चटकीले रंग हर किसी की वेशभूषा में दिखाई देते हैं। स्वांग की विधा नाटक के ढांचे के साथ कैसे खेल करती है, यह प्रस्तुति उसका एक नायाब उदाहरण थी। एक कहानीनुमा कुछ है जिसके बीच लंबे-लंबे आलापों वाली गायकी और पारंपरिक नाच वगैरह भी चलते रहते हैं। स्वांग का नायक पगड़ी, मूछों, काजल, कटार वाला राजा गोप चवाण है। एक दिन उसके पास उसकी मौसीमां ने आकर कहा कि 'बेटे गोप चवाण मैं तेरी जगह पे अपने बेटों अर्जन और सर्जन को राज कराना चाहूं हूं।' लेकिन भांजे के बात न मानने पर उसने कहा 'आज से जैसे राम के लिए कैकेयी वैसे ही तेरे लिए मैं'। मौसी के बाद मां आई पर गोप चवाण नहीं माना। इस वाकये के बाद मौसीमां का बेटा सर्जन सिंह जाकर बादशाह सलामत से मिल लेता है। वो बताता है कि मायके जा रही गोप चवाण की बीवी बाई सा के पास दस लाख रुपए हैं। वो रुपए लूटकर बादशाह को दे देगा ताकि वो उसे राजा बनाने के लिए गोप चवाण से युद्ध करे। अपने इस इरादे पर अमल के लिए वो मायके जा रही बाई सा के पास जा पहुंचा और बोला- 'बाई सा मैं आपको लूटने को आया हूं। आप रकम दे दो, वरना मैं आपकी बेस्ती करूंगा।' क्षत्राणी बाई सा ने उसे रकम तो दे दी लेकिन साथ ही कह दिया- 'तू ले जा, पर याद रखियो, तीसरे से चौथे दिन का सूरज तू नहीं देख पाएगा।' यह किस्सा जाकर उसने गोप चवाण को सुनाया और बदला लेने के लिए भड़काया। पगड़ी पहने हुए गोप ने जब टोपी पहने बादशाह सलामत से इस बारे में दरयाफ्त की तो उसने कहा- 'चोर हमारे पेट में है'। लब्बोलुबाब यह कि कहीं पर युद्ध हुआ जिसका अंतिम दृश्य ही स्वांग में घटित होता है। गोप चवाण मोटा सा बेंत लिए खड़ा है जिससे वो बादशाह सलामत की ओर से लड़ने आए अपने ही भांजे को एक ही चोट में मार गिराकर युद्ध जीत लेता है। लेकिन जब गोप चवाण की मां को पता चला तो उसने कहा- 'तूने पालू भानजो को मार दियो पापी। चले जा मेरी आंख के सामने से।' इसके बाद गोप चवाण 12 साल तक जंगल में भटकता रहा।
स्वांग को देखते हुए लगता है कि जैसे अभिनय कोई मसला नहीं है। पात्रों को कहानी की एक लीक और मोटे तौर पर अपना किरदार मालूम है जिसके आधार पर वे अभिनय करने का स्वांग करते हैं। असली चीज है कहानी के छोटे-मोटे मसलों पर देर तक चलती गलेबाजी और उसे कुछ और जोरदार बनाते दो छोटे नक्कारे और हारमोनियम। ये मुद्दे बेहद मामूली हैं, जैसे कि बाई सा मायके जाए या नहीं, पर हाथरस शैली की नौटंकी से मिलती-जुलती गलेबाजी में देर तक उनपर बहस चलती है। हरियाणवी स्वांग की तुलना में राजस्थानी स्वांग ज्यादा उन्मुक्त मालूम देता है, क्योंकि सामाजिक नैतिकता के किसी संदेश का कोई बंधापन यहां नहीं है। अभिनय के लिहाज से अहम किरदार उसमें एक है- जो कभी हरकारा गोपाल बना हुआ है, कभी बादशाह का कारिंदा शकूर। दरअसल वो स्वांग का विदूषक है। उसके शरीर की लय देखते ही बनती है। बाद में वो शहर भटिंडा का एक मौलवी भी बना हुआ है। वह गोप चवाण को 'मोहम्मडन' बनाने के लिए उससे 'ला इल्लाह लिल्लिलाह रसूल लिल्लाह' बुलवाता है, और इस काम में बार-बार उसके नाकाम रहने पर आखिर उसे दी टोपी के जरिए उसे मोहम्मडन घोषित कर देता है। मंच पर सब कुछ इतना अनौपचारिक है कि नेपथ्य की ज्यादा जरूरत मालूम नहीं देती। जो पात्र माइक पर खड़ा है दृश्य में असल में वही पात्र है। बाकी पात्र उनके पीछे की जगह में टहलते या बैठे नजर आते हैं। बीच बीच में जरूरत के मुताबिक हारमोनियम साज भी मायके जा रही बाई सा के अंगरक्षक की भूमिका निभा कर वापस अपनी जगह पहुंच जाता है। लोक शैलियों की एक सहज तल्लीनता आम तौर पर प्रायोजित शहरी मंचों पर उस तरह बनी नहीं रह पाती। लेकिन स्वांग की इस प्रस्तुति के साथ ऐसा नहीं था। प्रस्तुति के आखिर में एक पात्र ने माइक पर यह भी बताया कि 'हमारा प्रोग्राम अब खतम हो गया है'।
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