गिरीश कर्नाड का जीवन
गिरीश कर्नाड की हिंदी में सद्य प्रकाशित संस्मरणात्मक पुस्तक ‘यह जीवन खेल में’ कई कारणों से पढ़ने लायक है। एक वजह है कि इसमें पिछली सदी के उत्तरार्ध का एक विहंगम बौद्धिक-सांस्कृतिक दृश्य दिखाई देता है। दूसरी वजह है कि लेखक ने इसमें बीच-बीच में आत्मकथा के एक जरूरी समझे जाने वाले अवयव बेबाकी का भी आवश्यकतानुसार समावेश किया है। तीसरी वजह इसे पढ़ते हुए होने वाली यह प्रतीति है कि लेखक अपने परिवेश से काफी गहरे संपृक्त है। लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं इन तीनों ही वजहों में एक लोचा दिखाई देता है। लगता है जैसे बातें आधे-अधूरे ढंग से बताई जा रही हैं। कि लेखक के ऑब्जर्वेशन बहुत किताबी ढंग के हैं। कि किताब में जो भी किरदार आ रहे हैं उनकी छवियाँ बहुत स्पष्टता से नहीं दिख पा रहीं। कि ज्यादातर पात्र और स्थितियाँ लेखक की व्याख्या के निमित्त से छोटे-छोटे, अधूरे और एकांगी जिक्रों के रूप में एक रूखे संदर्भ के तौर पर पेश हो रहे हैं। जैसे कि फिल्म ‘वंशवृक्ष’ के निर्माण के दौरान ब.व.कारंत के साथ रहे उनके लंबे साथ और संबंधित विवरणों के बावजूद उनकी शख्सियत की कोई ठोस तस्वीर न बन पाना। इस समस्या की एक वजह जो