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परिंदे और गदल

निर्मल वर्मा की कहानी ' परिंदे ' का मंचन सतीश (आनंद) जी ने करीब महीना भर पहले किया तो मुझसे पूछा कि कैसा लगा। मैंने उनसे प्रस्तुति की कुछ त्रुटियों का जिक्र किया , और पाया कि उनका सोचने का तरीका बिल्कुल अलग था। ' परिंदे ' कई लोगों की बहुत प्रिय कहानी है। वर्षों पहले पढ़़ी थी तो मुझे भी ठीकठाक लगी थी। लेकिन उम्र के साथ जब जिंदगी की हकीकत उसके संभ्रमों को लात मारकर दूर फेंकती जाती है , तब उसके रूमान की शक्ल पहले जैसी नहीं रह जाती। यही वजह है कि अब उसे दोबारा पढ़ने पर उसकी स्थितियाँ बनावटी न सही पर बेवजह फैलाई हुई जरूर लगती हैं। फिर भी कहानी का अपना एक मिजाज तो है। मैंने सोचा कि दिनेश खन्ना की प्रस्तुति ' प्रेम की भूतकथा ' का मंच (जिसमें बड़ी मेहनत से मसूरी का पहाड़ी दृश्य बनाया गया था) अगर हूबहू इस प्रस्तुति के लिए इस्तेमाल किया जाता तो यह काफी कारगर होता। लेकिन सतीश जी ने प्रॉपर्टी का निहायत सांकेतिक इस्तेमाल किया है , जिसमें पेड़ के नाम पर एक खंबा खड़ा था। मैंने उनसे जब इस बात का जिक्र किया तो उन्होंने बताया कि उनसे हिंदी अकादमी ने वादा किया था कि वह उन्हें इस