संदेश

भारतीय रंगमंच की यह चौथाई सदी

  कला-संस्कृति के क्षेत्र में बदलाव अक्सर नामालूम तरह से घटित होते हैं। वे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक बदलावों की अनुगूँज के रूप में सामने आते हैं। ये परिवर्तन हमेशा यूरोपीय रेनेसाँ की तरह नहीं हो सकते, जब नए यथार्थबोध से लैस कलादृष्टियाँ सर्वांगीण बदलाव की युगांतरकारी प्रक्रिया में बराबर के दर्जे से शामिल थीं। हमारे यहाँ भी एक रेनेसाँ 19वीं सदी के बंगाल और महाराष्ट्र में घटित हुआ था, जब समाज की हीन नागरिक समझी जाने वाली तवायफों को पहली बार स्टेज कलाकार की इज्जत मिली। बहरहाल, इस परिप्रेक्ष्य में अपना चौथाई हिस्सा गुजार चुकी इस सदी के रंगमंच में आए बदलावों को समझना इतना आसान नहीं है, जब टेक्नालाजी और वैश्विक पूँजी ने एक छोटे से वक्फे में जीवन की मूलभूत मान्यताओं की नींव को ही हिला दिया है। फर्क कर पाना मुश्किल है कि रंगमंच अपनी केंचुल बदल रहा है या अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। इस फर्क को समझ पाना यूँ तो एक बड़ी रिसर्च का विषय है, पर यहाँ संक्षेप में उन परिघटनाओं, ईवेंट्स और प्रभावों को पहचानने की कोशिश की गई है जिनसे इन परिवर्तनों और परिवर्तनों की प्रवृत्तियों को चिह्नित किया जा सके।...

एक कलाकार की यात्रा

  रंगकर्मी-पत्रकार आलोक शुक्ला की पुस्तक ‘एक रंगकर्मी की यात्रा’ एक पठनीय आत्मकथ्य है। हालाँकि आत्मकथ्य के बजाय इसे खुद का चिट्ठा कहना ज्यादा बेहतर होगा, क्योंकि इसमें गुजरे जीवन के तमाम अच्छे-बुरे प्रसंग बेलाग तरह से लिख दिए गए हैं। इस क्रम में नाकाम मोहब्बत की दास्तान से लेकर फिल्मी दुनिया में मिले धोखों को एक जैसी सहजता से बताया गया है। पुस्तक में कोई गहरा आत्ममनन तो नहीं पर एक दुनियादार आत्मालोचना अवश्य है। होम टाउन रीवा से लेकर मुंबई होते हुए दिल्ली तक के इस सफर में उन्होंने कई तरह के काम किए, जिनमें सचमुच की सीआईडी में काम करने से लेकर ‘एफआईआर’ और ‘पुलिस फाइल’ जैसे सीरियलों में काम करने तक के अनुभव शामिल हैं। सिनेमा-टीवी-रंगमंच में अभिनय के साथ-साथ मीडिया में काम किया। बासु चटर्जी, सागर सरहदी और हबीब तनवीर जैसी हस्तियों के संपर्क में आए। हबीब तनवीर के ग्रुप में जर्मनी की यात्रा की। और इस क्रम में इस यात्रा से जुड़े व्यवधानों और उनके निराकरण का उतार-चढ़ाव से भरा दिलचस्प किस्सा भी पुस्तक का हिस्सा बन गया है। हबीब तनवीर शंगेन वीजा चाहते थे जिसके लिए एंबेसी तैयार नहीं थी। इस अड़ं...

धन्यवाद

जैसे जेब में रहता है बटुआ जैसे बटुए में रहता है आधार कार्ड उसी तरह मेरी जबान पर रखा रहता है -- धन्यवाद सुबह-सुबह निकल पड़ता हूँ उन चीजों की तलाश में जिन्हें कह सकूँ धन्यवाद टिकटिक करती घड़ी को रुके हुए ट्रैफिक को मुँह बाए खड़ी मौत को सिर नवाकर कहता हूँ धन्यवाद दिन पर दिन विशाल होते जाते भाषा के ढेर में अर्थहीन होती जाती अभिव्यक्तियों के दरम्यान मुश्किल विचारों को आसान तरह से कैसे कहूँ इसलिए जिनके हर काम में है कपट और जो खाते हैं अपने नसीब की उन सभी को कह देता हूँ धन्यवाद धन्यवाद उस परम दयालु ईश्वर को जो हमें परखने के लिए निरंतर बुनता रहता है दुख, आपदाएँ और विरोधाभास ओ मेरे वामपंथी और दक्षिणपंथी भाइयो किसी भी विचारधारा और अंतर्विरोध से बड़ा होता है धन्यवाद बस्ती के लोगो मुझे एक लोटा पानी दो, थोड़ा गुड़ दो ताकि कह दूँ आज का अंतिम धन्यवाद

सरनेम में क्या रखा है

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युवा रंगकर्मी फहद खान के नव-अन्वेषित थिएटर-स्पेस में पिछले सप्ताह अशोक लाल का नया नाटक ‘ह्वाट इज इन सरनेम’ देखा। उन्होंने हौज खास स्थित दृष्टिबाधित लड़कियों के हॉस्टल में उपलब्ध अपने ग्रुप के रिहर्सल-स्पेस को ही स्टूडियो थिएटर नुमा शक्ल दे दी है, जहाँ हुआ यह नाटक एक आधुनिक प्रहसन है। नाटक में जातिवाद और बेरोजगारी को एक मज़ाकिया थीम में पेश किया गया है। बैकस्टेज को स्टेज पर दिखाने की तरकीब भी इसमें आजमाई गई है, जिसमें एक पात्र दूसरे से कहता है-यह तो मेरा डायलाग था। इसके दोनों मुख्य पात्र आपस में दोस्त हैं, जिनके नाम हैं- अग्निहोत्री और परमार। एक ब्राह्मण, दूसरा शेड्यूल कास्ट। पहला दूसरे में ‘रिजर्व कोटा के कारण नौकरी मिलने के प्रबल आत्मविश्वास’ को देखकर कुंठित है, और सोचता है कि क्यों न वह खुद शेड्यूल कास्ट बन जाए। लेकिन उसकी माँ उसे बताती है कि उनके लिए अगर रिजर्वेशन है तो क्या हुआ, हम ऊँची जात वालों में भाई-भतीजावाद चलता है। उधर दूसरे की समस्या है कि उसकी एक ब्राह्मण लड़की से मोहब्बत है। अपनी-अपनी हसरतों को अंजाम तक पहुँचाने के लिए वे अपना सरनेम बदल लेते हैं। इस बीच दोनों लड़कों और लड...

कहानी का रंगमंच : एक रंग प्रयोग

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वरिष्ठ रंग निर्देशक देवेंद्रराज अंकुर ने करीब तीस साल पहले ‘कहानी का रंगमंच’ नाम से एक कथित सिद्धांत प्रतिपादित किया था, जिसके अंतर्गत उन्होंने कहानी के मंचन को नाट्यालेख, चरित्रांकन, कास्ट्यूम, सेट और यहाँ तक कि निर्देशन आदि तमाम ‘बंधनों’ से मुक्त कर दिया। इसके पीछे उनका तर्क रहा है कि ‘यदि हम कहानी के साथ कोई छेड़छाड़ करते हैं तो फिर वह कहानी कहाँ रह जाएगी!’ बहुत सी आपत्तियों से अविचलित अपने इस सिद्धांत को वे निरंतर कार्यरूप में परिणत करते रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने खुद की भूमिका निर्देशक के बजाय परामर्शदाता की मुकर्रर की है। अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल ने एक प्रयोग के जरिए उनके सिद्धांत की असलियत परखने की कोशिश की है। रंगमंडल ने उनसे धर्मवीर भारती की कहानी ‘बंद गली का आखिरी मकान’ की दो प्रस्तुतियाँ एक साथ तैयार करवाई हैं। एक प्रस्तुति ठेठ अंकुर-शैली में है, लेकिन दूसरी में रंगमंच के अवयवों का इस्तेमाल किया गया है। ‘बंद गली का आखिरी मकान’ एक सघन कथानक वाली लंबी कहानी है, जिसमें कथोपकथन पर्याप्त मात्रा में है। इस आसानी के बावजूद प्रस्तुति देखकर एक बात तय मालूम देती है कि इसके...

चार नाट्य प्रस्तुतियाँ

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बॉस जो प्यादा है  राजेश बब्बर निर्देशित प्रस्तुति ‘प्यादा’ एलटीजी में देखी। इसका मुख्य पात्र ‘आधे अधूरे’ के महेन्द्रनाथ से मिलता-जुलता है। उसमें आत्मविश्वास की कमी है और वह अपनी बात ठीक से कह नहीं पाता। लेकिन उसकी बीवी सावित्री से मिलती-जुलती नहीं है। यह अपने पति के दोस्त के साथ फ्लर्ट और हमबिस्तरी के रिलेशन में है। दूसरी अहम बात यह है कि ये कोई निम्म मध्यवर्गीय नहीं बल्कि उच्च वर्गीय पात्र हैं। पति एक कंपनी का बॉस है और बहुत से लोगों को नौकरी पर रखने और निकालने की हस्ती रखता है। लेकिन उसकी बीवी का अवैध रिलेशन उसकी दुनियावी हस्ती को धूल में मिला रहा है। अपमान और कुंठा से जूझता पति इससे उबरने की जो सूरतें निकालता है वे थोड़ी अटपटी हैं। जो भी हो, उसका फ्रस्ट्रेशन प्रस्तुति में बहुत अच्छी तरह सामने आया है। जिस क्रम में कुछ ऐसी उप-स्थितियाँ भी नत्थी कर दी गई हैं जिनमें एक तनावपूर्ण मेलोड्रामा है और जिस वजह से प्रस्तुति आखिर तक बाँधे रखती है। नौकरानी के पति का बखेड़ा और ऑफिस के कर्मचारी शर्मा के अन्यत्र संबंध के ये प्रसंग प्रस्तुति में डिजाइनर क्षेपक की तरह हैं। नाटक के लेखक जितेन्द...

अतुल कुमार की प्रस्तुति 'गोदे, गोदो, गोदिन'

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पाँच पात्रों का नाटक है ‘वेटिंग फॉर गोदो’। इसमें एनएसडी द्वितीय वर्ष के पूरे बैच को खपाने के लिए निर्देशक अतुल कुमार ने नौ शोरूम नुमा कमरों का एक कॉम्प्लेक्स खड़ा करवा दिया। इन कमरों में अलग-अलग डीडी और गोगो हैं। हैट लगाए डीडी और गोगो का प्रारूप दुनिया भर की प्रस्तुतियों में लगभग तय सा है। यहाँ इसी प्रारूप के भीतर कई तरह की रंगतें पैदा की गई हैं। कोई चेहरे पर रंग पोते है, किसी की पतलून नीचे खिसक जाती है, किसी का कोट ज्यादा फटीचर है, वगैरह। किसी सीढ़ी से होते हुए, कोई दरवाजा खोलकर ये स्लो मोशन में मंच पर नमूदार होते हैं। अक्सर इनका बर्ताव किसी कार्टून करेक्टर का सा है, जो नाटक के आखिरी हिस्से में बाकायदा ऐसा ही है। इस पूरे सेटअप में मूल नाटक कितना है यह तो अलग मुद्दा है, लेकिन लाइट्स और टाइमिंग की सटीकता कैसे खुद में एक खालिस दृश्य रचती है यह देखने लायक है। इस क्रम में पहले तो रोशनी किसी एक कमरे में केंद्रित होती है, फिर वहाँ के डीडी-गोगो की अधूरी बात में ही ऑफ होकर किसी दूसरे कमरे में ऑन होती है, और बाकी संवाद हम वहाँ मौजूद दूसरे डीडी और गोगो से सुनते हैं। चमकदार दृश्य कौंध की तरह ह...