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गिरीश कर्नाड का जीवन

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गिरीश कर्नाड की हिंदी में सद्य प्रकाशित संस्मरणात्मक पुस्तक ‘यह जीवन खेल में’ कई कारणों से पढ़ने लायक है। एक वजह है कि इसमें पिछली सदी के उत्तरार्ध का एक विहंगम बौद्धिक-सांस्कृतिक दृश्य दिखाई देता है। दूसरी वजह है कि लेखक ने इसमें बीच-बीच में आत्मकथा के एक जरूरी समझे जाने वाले अवयव बेबाकी का भी आवश्यकतानुसार समावेश किया है। तीसरी वजह इसे पढ़ते हुए होने वाली यह प्रतीति है कि लेखक अपने परिवेश से काफी गहरे संपृक्त है। लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं इन तीनों ही वजहों में एक लोचा दिखाई देता है। लगता है जैसे बातें आधे-अधूरे ढंग से बताई जा रही हैं। कि लेखक के ऑब्जर्वेशन बहुत किताबी ढंग के हैं। कि किताब में जो भी किरदार आ रहे हैं उनकी छवियाँ बहुत स्पष्टता से नहीं दिख पा रहीं। कि ज्यादातर पात्र और स्थितियाँ लेखक की व्याख्या के निमित्त से छोटे-छोटे, अधूरे और एकांगी जिक्रों के रूप में एक रूखे संदर्भ के तौर पर पेश हो रहे हैं। जैसे कि फिल्म ‘वंशवृक्ष’ के निर्माण के दौरान ब.व.कारंत के साथ रहे उनके लंबे साथ और संबंधित विवरणों के बावजूद उनकी शख्सियत की कोई ठोस तस्वीर न बन पाना। इस समस्या की एक वजह जो

इतिहास की गलतफहमियाँ

हिंदूवादी उभार के बाद से कुछ गलतफहमियाँ जो आम धारणा की तरह दिखाई दे रही हैं उनमें से एक यह है कि अब तक अंग्रेजों और मुस्लिम शासकों ने अपनी तरह से गलत इतिहास लिखवाया जो अब नहीं चलेगा। जबकि सच्चाई यह है कि भारत का ज्यादातर प्रामाणिक इतिहास मुस्लिम शासन और अंग्रेजी राज के दौरान ही लिखा गया। हिंदुओं में चूँकि जीवन और काल की अवधारणा ही बिल्कुल भिन्न थी इसलिए उनके यहाँ इतिहास लिखे जाने का चलन नहीं था। अल बिरूनी ने सन 1030 के आसपास लिखी अपनी किताब ‘तारीख-उल-हिंद’ में हिंदुओं में अपनी विरासत के प्रति लापरवाही, गद्य के प्रति अरुचि और छंद के लिए दीवानगी का जिक्र किया है। उसके कहे का उदाहरण बाद में ‘पृथ्वीराज रासो’ जैसी रचना में देखने को मिलता है जो हिंदुओं के आहत अहं के लिए भले ही उपयोगी हो, पर उसमें वर्णित ब्योरों का इतिहास के अन्यत्र उपलब्ध तथ्यों से कोई तालमेल नहीं है। इसके उलट मुसलमानों में अपने वक्त के ब्योरे दर्ज करने का चलन हमेशा से था। उन्हें झूठ लिखने की भी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि काफिरों की हत्याएँ और मंदिर विध्वंस उनके लिए एक पवित्र काम था। इसीलिए मुसलमान इतिहासकारों ने इस्लामी रा

मर्चेंट ऑफ वेनिस के बहाने

पिछले दिनों बापी बोस ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय छात्रों के लिए नाटक ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ निर्देशित किया। उन्होंने पूछा- कैसा लगा नाटक? मैंने बात को घुमाते हुए कहा- कई लोग तो तारीफ कर रहे थे, कुछ को तो काफी अच्छा लगा। उन्होंने फिर दोहराया- आपको कैसा लगा? मैं- मुझे तो यथार्थवादी ट्रीटमेंट ही पसंद आता है। वो- शेक्सपीयर का नाटक यथार्थवादी नहीं है। मैं- उस अर्थ में यथार्थवादी न सही, पर शेक्सपीयर के अपने स्टाइल का यथार्थवाद (जिस वजह से ब्रेख्त का आर्तुरो उई शेक्सपीयरियन तौर-तरीके सीखता है) तो है... वो- वो स्टाइल उन्होंने निर्माण किया है और दुनिया भर में फैलाया है। लेकिन शेक्सपीयर रियलिस्टिक कैसे हो सकता है? उसकी आधुनिक व्याख्या हो सकती है, हम उसमें रियलिज्म की कुछ चीजें जरूर इस्तेमाल करते हैं, विशेष रूप से एक्टिंग में, क्योंकि इस विषय पर जर्मन एक्सप्रेशनिस्ट्स ने काफी काम किया है। उसका प्रेजेंटेशन ग्रैंड होता है लेकिन एक्टिंग एक लॉजिक पर स्थिर होकर शेप लेती है। मैं- ये बताइये, पोर्शिया जब घर से निकल रही है तो जो जिप वाले सूटकेस दिखाए हैं वो क्या शेक्सपीयर के जमाने में चलते थे? वो- इसको कही

आधुनिक थिएटर के विकास में महिलाओं का योगदान

भारत में आधुनिक रंगमंच के विकास में महिलाओं के योगदान की बात करने से पहले भारतीय आधुनिकता पर थोड़ी रोशनी डाल लेना उचित होगा। हम सब जानते हैं कि भारत की मौजूदा आधुनिकता उन्नीसवीं सदी के भारतीय पुनर्जागरण के जरिए अस्तित्व में आई। ब्रिटिश राज में शिक्षा, प्रशासन और न्याय की नई प्रणालियाँ लागू होने से पढ़े-लिखे तबके में आम नागरिक के अधिकार की बहस पैदा हुई। स्त्रियों के अधिकार की बात भी इसमें शामिल थी। महिलाओं से जुड़े प्रश्न उस दौर के सामाजिक नाटकों में उठाए जाने लगे थे। लेकिन यह उतना आसान नहीं था। एक तबका अगर उनके अधिकारों का समर्थक था वहीं उनके विरोधी भी भरपूर मात्रा में थे। औरतों के हक की बात को भारतीयों ने शुरुआती दौर में किस रूप में लिया, इसका पता सैयद अहमद की किताब ‘असबाब-ए-बगावते हिंद’ से चलता है। सैयद अहमद ने इस पुस्तक में सन 1857 के विद्रोह के कारणों की पड़ताल की है कि यह बगावत क्यों हुई! वे लिखते हैं- “फौजदारी अदालतों में महिलाओं के स्वतंत्र अधिकारों को मान्यता देने वाला कानून लागू होने से भारतीय लोगों की इज्जत और गरिमा को गंभीर चोट पहुँची। क्योंकि ये उनके रीति-रिवाजों के खिलाफ

कला दृष्टियों का फर्क

भारतीय और पश्चिमी कला-दृष्टियों के फर्क को अमूमन प्रस्तुति-विन्यास के अर्थ में देखा जाता है। इसीलिए इसका ज्यादातर जिक्र संगीत, नृत्य, चित्रकला अथवा नाट्य शैलियों के संदर्भ में ही होता है। विभिन्न सेमिनारों, पुस्तकों और पाठ्यक्रमों में इन दो कला-दृष्टियों की चर्चा होती है, उनके फर्कों को समझाया जाता है, लेकिन मैंने ऐसी कोई व्याख्या कहीं नहीं देखी जो वास्तव में यह बता पाए कि ये दो दृष्टियाँ अपने मूल रूप में हैं क्या, और एक समाज के रूप में हमें उन्हें किस तरह लेना चाहिए। इसकी वजह शायद यह है कि ये दृष्टियाँ जिन जीवन प्रणालियों से उद्भूत होती हैं वे हेड और टेल की तरह सिक्के के दो ऐसे सर्वथा विपरीत छोर हैं कि कभी एक-दूसरे को देख नहीं पाते। इसीलिए भारत और पश्चिम दोनों ही ओर के बड़े से बड़े विद्वान कुछ लक्षणों की चर्चा करके ही रह जाते हैं। लेकिन वहीं राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था के स्तर पर पिछले ढाई-तीन सौ सालों से ऐसी प्रक्रियाएँ सघन से सघनतर और सघनतम होती गई हैं कि भारतीय और पश्चिमी जीवन प्रणाली में एक गहरा अंतर्ग्रंथन होता गया है। लेकिन क्या यह अंततः दो अपरिचितों का सहवास ही नहीं है? कभी

इस्लाम और ईसाइयत

अल बरूनी से लेकर मोहम्मद अली जिन्ना तक ने यह माना है कि इस्लाम और हिंदुत्व एक-दूसरे से इतने भिन्न हैं कि उनमें कोई तुलना संभव नहीं। लेकिन इस्लाम की तुलना ईसाइयत के साथ संभव है। क्योंकि दोनों में ही एक किताब, एक पैगंबर, धर्मांतरण, ईशनिंदा आदि एक जैसे कांसेप्ट मौजूद होने के साथ-साथ दोनों का ऐतिहासिक स्रोत भी एक ही है। पर इस्लामी समाजों में जहाँ ये कांसेप्ट हड़कंप का सबब बन जाते हैं वहीं ईसाई समाजों में इनका अक्सर उल्लंघन होता है और किसी को खास परवाह नहीं होती, जिसकी वजह है व्यक्ति की आजादी के सवाल को सबसे ऊपर रखना। दारियो फो के नाटक ‘कॉमिकल मिस्ट्री’ और टीवी शो ‘फर्स्ट मिरेकल ऑफ इन्फैंट जीसस’ को वेटिकन द्वारा सबसे भयंकर ब्लाशफेमी करार देने के बावजूद कई दशकों तक उनके प्रदर्शन वहाँ होते रहे। वहीं एक जमाने में धरती को ब्रह्मांड का केंद्र मानने की बाइबिल की धारणा से उलट राय व्यक्त करने पर गैलीलियो को जिस चर्च ने हाउस अरेस्ट की सजा सुनाई थी उसी चर्च ने अभी कुछ साल पहले कबूल किया कि ईश्वर जादूगर नहीं है और ‘बिग बैंग’ और ‘थ्योरी ऑफ ईवोल्यूशन’ दोनों ही अपनी जगह सही हैं। चर्च बदलते वक्त के मुताब

भारतीय फिल्म संगीत पर एक जरूरी पुस्तक

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भारतीय स्वभाव मूलतः आख्यानमूलक होने से यहाँ बातों के विस्तार में जाने की प्रवृत्ति तो खूब है, पर तह में जाने की प्रवृत्ति कम पाई जाती है। उदाहरण के लिए हमारे पास इसकी तो बहुत सी कहानियाँ हैं कि कैसे भारतीय फिल्म संगीत ने दुनिया भर में नाम कमाया, लेकिन इस लोकप्रियता के मूल में कौन-सा व्याकरण है इसपर तवज्जो ज्यादा नहीं दिखाई देती। अभिषेक त्रिपाठी की पुस्तक ‘ इंडियन फिल्म म्यूजिक एंड द एस्थेटिक्स ऑफ कॉर्ड्स ’ इस लिहाज से काफी महत्त्वपूर्ण है। इसका उपशीर्षक है ‘ डिकोडिंग द थॉट्स ऑफ अ कंपोज़र ’ । दुनियाभर के संगीत की तुलना में भारतीय संगीत की क्या विशेषता है और संगीत कैसे अपने सुनने वाले पर असर करता है आदि विषयों की बारीकी और गहराई को उन्होंने इतना सरल तरह से बताया है कि तकनीकी गरिष्ठता भी यहाँ काफी सुपाच्य हो गई है। कॉर्ड का अर्थ है स्वर-संघात। यह कम से कम तीन स्वरों से मिलकर बनी स्वर-संगति ( Harmony ) की सबसे छोटी और आरंभिक इकाई है। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल वाले प्यारेलाल शर्मा के मुताबिक- ‘ संगीत के क्षेत्र में दाखिल हो रहे व्यक्ति के लिए कॉर्ड के सिस्टम को समझना जरूरी है। जितना आप उन्हे