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दो किताबें

बलत्कार की पीड़ा का बयान ज्ञानप्रकाश विवेक का उपन्यास ‘ डरी हुई लड़की ’ सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई एक लड़की की मनोदशा की कहानी है।   एक सुबह वह उपन्यास के ‘ मैं ’ को बदहाल दशा में सड़क के किनारे पड़ी मिली। बैचलर ‘ मैं ’ उसे अपने फ्लैट पर ले आया। इस तरह दो-तीन कमरों के दायरे, दो पात्रों, तीन महीने के वक्फे और प्रायः एक घटनाविहीन परिस्थिति में सिमटा या पसरा यह कथानक पाठकों के आगे पेश होता है। बलात्कार के सामाजिक पक्षों की चर्चा उपन्यास में ज्यादा नहीं है। और न्याय पाने की भाग-दौड़, विभीषिका की चीख-पुकार—ये सब तो बिल्कुल भी नहीं है। इसके बजाय लेखक ने विषय को छोटी-छोटी स्थितियों में इतने शांत ढंग से बुना है कि लड़की की जेहनी उथल-पुथल, उसकी आंतरिक पीड़ा महीन छवियों में पाठकों के आगे प्रस्तुत होती है। यह बलात्कार नामक अपराध की सामाजिक और फोरेंसिक चर्चाओं से परे इस अपराध की शिकार का एक माइक्रो यथार्थ है। जिस बीच लड़की अपने भीतरी-बाहरी दर्द से जूझ रही है उसी बीच उपन्यास का दूसरा पात्र, जो खुद भी उसका हमउम्र युवा है, धीरे-धीरे लड़की के प्रति आकर्षण की एक अलग ही भावना से घिर रहा है

बेगूसराय में रंग-ए-माहौल

युवा रंग-निर्देशक प्रवीण गुंजन ने अभिनेता की एनर्जी को एक मुहावरे की तरह बरतने की एक दिलचस्प शैली विकसित की है। उनका अभिनेता मंच पर इस कदर सक्रिय होता है कि देखने वाले में गर्मजोशी आ जाए। मुझे उनकी ‘गबरघिचोर’ और ‘मैकबेथ’ जैसी प्रस्तुतियाँ याद हैं जिनमें देहगतियों की तीव्रता एक आकर्षक तरकीब बन जाती है, और अंततः शैली का रूप ले लेती है। यह भी याद है कि अपनी ‘समझौता’ शीर्षक एकल प्रस्तुति में उन्होंने अभिनेता की शारीरिक ऊर्जा का इतना दोहन  किया है कि उससे सहानुभूति होने लगती है। यह तीव्रता और एनर्जी खुद गुंजन के किरदार में भी है, जिसे कुछ लोग जुनून कहते हैं और जिसकी गूँज रह-रहकर उनके गृह-जनपद बेगूसराय से दिल्ली तक भी पहुँचती रही है। रानावि पास करने के बाद गुंजन ने अपने गृह जनपद को ही अपना ठिकाना बनाया, जहाँ वे ‘रंग-ए-माहौल’ नाम से नाटकों का सालाना जलसा करते हैं, जिसमें नाटक होते हैं, पुरस्कार दिए जाते हैं और रंगमंच की जानी-मानी हस्तियाँ शिरकत करती हैं। इस बार प्रवीण गुंजन के निमंत्रण पर मैं भी वहाँ था, और पुरस्कार समारोह सहित दो नाटक देखने को मिले। नाटक ‘बंद अकेली औरत’ उन्हीं की निर्देशित