ऊबे हुए सुखी
पोलैंड की रहने वाली तत्याना षुर्लेई से मैंने पूछा कि उन्हें भारत में सबसे अनूठी बात क्या लगती है। उन्होंने ‘ मुश्किल सवाल है ’ कहकर आधे मिनट तक सोचा , फिर बोलीं- ‘ यहां कोई किसी नियम-अनुशासन की परवाह नहीं करता , फिर भी सब कुछ चलता रहता है , यह बहुत यूनीक है... लेकिन अच्छा है। ’ मुझे याद आया कि कुछ सप्ताह पहले दफ्तर में आए एक अमेरिकी गोरे युवक जॉन वाटर ने भी कहा था- ‘ वस्तुनिष्ठता फालतू चीज है ’। मैंने तत्याना से कहने की कोशिश की कि अपने समाज की नियमबद्धताओं की ऊब के बरक्स वे दिल्ली के एक छोटे से हिस्से की जिंदगी के सहनीय केऑस को देखकर मुग्ध न हों , क्योंकि परवाह न करने की आदत से पैदा हुए नरक उन्होंने अभी नहीं देखे हैं। उदाहरण के लिए मैं उन्हें बताना चाहता था कि मैं जिस रिहायशी कॉम्प्लेक्स में रहता हूं वहां काम करने वाले गार्डों को साढ़े पांच हजार रुपए वेतन में रोज बारह घंटे और सातों दिन नौकरी करनी होती है ; और यह कि ऐसे सैकड़ों परिसरों , दफ्तरों , फैक्ट्रियों में हजारों की तादाद में ऐसे गार्ड और गार्डनुमा लोग काम करते हैं और इस मुल्क में कोई नहीं है जो उनकी जीवन स्थितियो