लड़की जो वायलिन हो गई
इंद्रियों से संचालित होने वाले शरीर को एक वस्तु की तरह बरतो तो वह एक दिलचस्प शै बन जाता है। आप खड़े-खड़े धड़ाम से गिर रहे हैं, पर चोट लगने का कोई भय नहीं। कोई कहीं भी छू रहा है कोई मायने नहीं। गुदगुदी होती है तो एक जैविक खिलखिलाहट निकलती है। अचानक एक शख्स बेतरतीब ढंग से कांपने लगता है। यानी शरीर अपनी फितरत में कुछ क्रियाएं करता है, पर वह इंद्रियबोझिल शख्सियत से बरी होकर एक स्वयंसक्षम इकाई बन चुका है। आध्यात्म की विदेह-अवस्था के जैसी ही मानो यह व्यक्तित्व-मुक्ति की कोई दशा है, जो एशियाइयों के वश की चीज नहीं। सामाजिक वर्जनाओं का बंधापन खुद को खुद से परे रखकर बरतने की मुक्ति तक जाने नहीं देता। यह तो पश्चिमी मानस है जो जान गया है कि शरीर को इतना तूल मत दो कि इस शरीर के भीतर रहने वाला मनुष्य उसका बंधक बन जाए। कुछ रोज पहले दिल्ली आर्ट फेस्टिवल के तहत श्रीराम सेंटर में हुई हंगारियन प्रस्तुति 'एग शैल' शरीर की उन्मुक्त क्षमताओं का एक नायाब कोलाज थी, जिसके बारे में बताया गया कि वह 'वह हमारी दैनिक चर्याओं की प्राकृतिक भाषा में संबंध को बगैर शब्दों के परिभाषित करती है.'