असभ्यता की सड़क पर
दिल्ली में एक सड़क, जिसे बीआरटी कॉरिडोर कहा जाता है, पिछले सालों में लगातार चर्चा और विवादों में रही है. कई साल पहले जब इसपर काम शुरू हुआ था तब मेरे जैसे बहुत से लोग उधर से गुजरते हुए देखते थे कि आखिर यह हो क्या रहा है. बीच की आधी सड़क को ट्रैफिक से खाली करवा कर उसे सीमेंटेड किया जा रहा था, उसपर छोटे-छोटे फुटपाथ और पटरियां वगैरह बनाए जा रहे थे. और इधर पूरी सड़क का ट्रैफिक आधी सड़क में इन कारगुजारियों को निहारता हुआ फंसा रहता. फिर पता चला कि सड़क को सीमेंटेड करने और फुटपाथ बनाने में करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं, और इस तरह सरकार ने सार्वजनिक यातायात को व्यवस्थित करने की दिशा में एक नया झंडा गाड़ दिया है. उधर लगभग नियमित रूप से अखबारों और चैनलों में बीआरटी कॉरिडोर पर ट्रैफिक जाम की खबरें भी दिखाई देने लगीं. सरकार की उपलब्धि जनता को बेहाल किए हुए थी और लोग समझने लगे कि बीआरटी खुद में ही कोई राक्षसी नीति है.
उसी दौरान एक स्वैच्छिक संस्था इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड सस्टेनिबिलिटी के सौजन्य से हुए एक स्लाइड शो में इसकी अवधारणा के तमाम पहलू जानने को मिले. उस शो में ऑस्ट्रिया से आए एक प्रोफेसर एक स्क्रीन पर दिख रही तस्वीरों के समांतर अपनी कमेंट्री के जरिए दुनिया के कई शहरों में यातायात के परिदृश्य और उसमें बीआरटी की भूमिका को स्पष्ट कर रहे थे. बीआरटी यानी बस रैपिड ट्रांजिट अर्थात एक ऐसी व्यवधानरहित सड़क जिसपर सिर्फ बसों को ही चलने की अनुमति होती है. दुनियाभर में विकास के अमेरिकी मॉडल का अनुसरण करने के कारण कारों की तादाद तमाम शहरों को आक्रांत किए हुए है. कार की वजह से बहुत कम लोग सड़क पर बहुत ज्यादा जगह घेरे रहते हैं. इस तरह बढ़ते ट्रैफिक को प्रवहमान बनाए रखने के लिए फ्लाईओवर बनाए गए. फ्लाईओवर यानी कंक्रीट का ऐसा ढांचा, जो उस मंजर को विकराल, असहज और असुंदर बनाता है. शो में कुछ ऐसी तस्वीरें दिखाई गईं, जिनमें दक्षिण कोरिया के सियोल शहर में बीआरटी की सफलता के बाद कई फ्लाईओवरों को तोड़ दिया गया. तोड़ने के बाद वाली तस्वीरों में वहां एक बगीचा, उसमें लगे फूल और खुलापन था. शो में मेट्रो ट्रेन की भी चर्चा हुई, जिसके सबसे बड़े अरबों रुपए की लागत वाले निर्लज्ज प्रोजेक्ट चालीस फीसदी भूखी-नंगी आबादी वाले हमारे देश में इन दिनों बड़े पैमाने पर चल रहे हैं. उन्होंने दिखाया कि कैसे किसी मेट्रो स्टेशन तक पहुंचने के लिए एक यात्री को या तो काफी नीचे सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं, या काफी ऊपर चढ़नी पड़ती हैं, और अगर यह सारा समय जोड़ लें तो अंततः उसके लिए वक्त की कोई ज्यादा बचत नहीं हो पाती. फिर मेट्रो की यह सीमा भी है कि एक शहर की बसावट में हर जगह तक उसकी पहुंच नहीं हो सकती. उसकी तुलना में बीआरटी सड़क के लिए सिर्फ इतना ही करना होता है कि उसपर खुलने वाली तमाम उप-सड़कों को निषिद्ध करना होता है और उसे अधिकतम सिग्नल फ्री बनाना होता है. इस पद्धति में कोई तकनीकी तामझाम नहीं. यात्री सीधे सड़क पर बने बस स्टाप पर आता है, बस पकड़ता है और निर्बाध चल रही बस उसे एक लगभग निर्धारित समय में उसके गंतव्य पर पहुंचा देती है. शो में प्रोफेसर ने एक तस्वीर दिखाई जिसमें एक कार खड़ी थी. उन्होंने देख रहे लोगों से पूछा कि क्या इस तस्वीर में उन्हें कुछ असामान्य दिखाई दे रहा है. किसी ने भी हां नहीं कहा तो वे बोले- इसका मतलब है कि आपकी निगाह खुद में ही असामान्य हो चुकी है. उस निगाह में उस खाली जगह को देखने का बोध समाप्त हो चुका है, जो इस तस्वीर में कार से भरी हुई है. उन्होंने विएना में बीआरटी की सफलता के बाद उसके आसपास के रिहायशी इलाकों में बढ़े साइकिल के चलन, कारों से मुक्त प्राकृतिक स्पेस के इजाफे और नतीजतन प्रदूषण के स्तर में आई गिरावट को भी दिखाया.
लेकिन हमारे यहां बीआरटी के अंजाम कुछ अलग ही हुए. स्वैच्छिक संस्था से जुड़े एक मित्र ने मेरे इस विचार की पुष्टि की कि दिल्ली का बीआरटी दरअसल बीआरटी है ही नहीं. वह पूर्ववत सिग्नलों से युक्त एक सामान्य सड़क है, जिसे बसों के लिए सीमित करते ही बाकी सड़क पर दबाव बहुत बढ़ गया है, और बसों को भी कोई विशेष फायदा नहीं हुआ है. यह सड़क हमारी व्यवस्था के भ्रष्टाचार, मूर्खता, निरंकुशता और केऑस को समझने का एक बहुत अच्छा उदाहरण है. जब से यह बनी है तब से इसने लोगों को परेशान करने के अलावा भले ही कुछ न किया हो, पर व्यवस्था को व्यस्त बने रहने के लिए इसने एक वजह दे दी है. कभी उसपर जनहित याचिका होती है, कभी मुख्यमंत्री एक आधुनिक प्रणाली के बतौर उसके पक्ष में दलील देती हैं, कभी कोर्ट उसके स्टेटस को बहाल रखा जाए या नहीं इसपर अपना निर्णय सुनाती है. न्यूज चैनल उसपर खबर बनाते हैं और सड़क से कोई सीधा ताल्लुक न रखने वाला दर्शक इस खबर को अदालती निर्णय के पक्ष या विपक्ष के किसी सिरे से थाम लेता है. लब्बोलुबाब यह कि इस तरह एक व्यवस्था गतिशील बनी रहती है.... अभी कुछ रोज पहले दिल्ली में 20 और बीआरटी कॉरिडोर बनाने की घोषणा की गई है. इनका क्या स्वरूप होगा ये तो भगवान जाने, पर आम लोगों के लिए दी जाने वाली सब्सिडियां घटाने से जमा हुई रकम का एक हिस्सा इनपर जरूर खर्च हो जाएगा. उधर ट्रैफिक की समस्या को बढ़ाने वाली कारें फिर भी कम नहीं होंगी, क्योंकि वे तरक्की और समृद्धि की निशानी हैं.
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