न्यायप्रियता जहाँ ले जाती है
अल्बेयर कामू के नाटक ‘जस्ट एसेसिन’ उर्फ ‘जायज़ हत्यारे’ को परवेज़ अख्तर ने ‘न्यायप्रिय’ शीर्षक से मंचित किया है। नाटक कामू के प्रिय विषय ‘एब्सर्ड’ की ही एक स्थिति पेश करता है, और शायद समाधान भी। इसकी थीम 1905 के दौरान सोवियत क्रांतिकारियों के एक ग्रुप से जुड़ी एक वास्तविक घटना पर आधारित है, पर प्रस्तुति में इसे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा गया है। एक अंग्रेज अफसर की हत्या की जानी है। लेकिन ऐन बम फेंके जाने के वक्त दो बच्चे वहाँ मौजूद होने से क्रांतिकारी मस्ताना बम नहीं फेंक सका। ग्रुप के एक क्रांतिकारी तेजप्रताप को ऐतराज है कि उद्देश्य की राह में भावुकता को आड़े क्यों आने दिया गया। लेकिन मस्ताना के लिए यह मुमकिन नहीं था कि वह बच्चों के ऊपर बम फेंक पाए। बहरहाल दूसरी कोशिश में अफसर मार दिया जाता है, और मस्ताना जेल में है। यहाँ एक दूसरा एब्सर्ड अफसर की बीवी के आगमन के रूप में पेश आता है। वह अपने मार दिए गए अफसर पति के कई मानवीय पक्षों के बारे में बताती है, और उसका यह बताना एक नया विरोधाभास पैदा करता है। उसके जाने के बाद एक सरकारी एजेंट का प्रवेश होता है जो एक कबूलनामे के एवज में उसे और उसके साथियों के फायदे का एक प्रस्ताव, और न मानने पर उसे एक विश्वासघाती के तौर पर प्रचारित करने की धमकी, देता है। लेकिन मस्ताना के लिए इन सब प्रलोभनों का कोई अर्थ नहीं। उसने अगर अपने किए की सजा को नहीं भुगता तो खुद को हत्यारे के रूप में देखने के अलावा कोई रास्ता उसके लिए नहीं होगा।
कामू ने यह नाटक 1949 में लिखा था। यह वही वक्त था जब मार्क्सवाद के मुद्दे पर सार्त्र से उनके स्थायी मतभेद सामने आए थे। वही सार्त्र जिनके नाटक ‘मेन विदाउट शेडो’ में भी कुछ क्रांतिकारी कैद में एक ऐसी ही दुविधापूर्ण स्थिति का सामना कर रहे हैं-- उनके साथ का एक कमउम्र लड़का उनके सीक्रेट्स को उजागर करके संभावित सजा से बच निकलने की धमकी देता है। लेकिन उस नाटक का एक विद्रोही अपने ‘कॉज’ के लिए लड़के की हत्या कर देता है। जबकि इसीसे मिलते-जुलते कारण से मस्ताना पहली बार में बम नहीं फेंक पाया था।
कामू ने अपने पहले नाटक ‘कालिगुला’ में इसी नाम के रोमन बादशाह का चरित दिखाया था, जिसका जीवन सबसे बड़ी समस्या एब्सर्ड को जीवनशैली के रूप में चुनने का उदाहरण था, जिस वजह से उसकी हत्या कर दी गई थी। क्या वह एक तरह की आत्महत्या ही नहीं थी? बाद में अपनी किताब ‘मिथ ऑफ सिसिफस’ में जीवन के व्यर्थताबोध की मीमांसा करते हुए कामू आत्महत्या को एक नतीजे के रूप में चुनने के विचार को खुद ही एब्सर्ड मानते हुए ठुकरा चुके थे। वे इस नतीजे पर पहुँचे कि जीवन की असंगति का समाधान है उसे कबूल कर लेना। इससे जीवन जीने के लिए एक उद्देश्य का चुनाव किया जा सकता है। नाटक ‘जस्ट एसेसिन’ का नायक इसी विचार का प्रतिनिधि है। उसने जीवन को मृत्यु के आमंत्रण के तौर पर आत्मसात कर एक उद्देश्य का चुनाव किया है, और इसी क्रम में उद्देश्य से जुड़ी गतिविधि और नतीजे का भी। लेकिन मुश्किल यही है कि जो तार्किक समाधान है वह मानवीय समाधान साबित नहीं हो पा रहा।
प्रस्तुति ‘न्यायप्रिय’ में स्थितियों का एक साफ-सुथरा किंतु भावपूर्ण चित्रण प्रस्तुत किया गया है। कामू के नाटक में ‘उद्देश्य’ एक पात्र की समस्या के तौर पर है, पर हिंदुस्तानी परिवेश में उच्चतर भावना की चीज समझा जाता है। यह फाँक प्रस्तुति में निरंतर दिखाई देती है। पात्रों की भावनाएँ कई बार इतनी प्रत्यक्ष हैं कि इससे बात का तनाव डाइल्यूट होता है। मस्ताना की प्रेमिका रही दमयंती का दर्द में डूबा चेहरा इतनी देर तक दृश्य में दिखाई देता है कि एक आनुषंगिक संदर्भ प्रमुख प्रसंग की तरह उभरा दिखाई देने लगता है। बम फेंकने जैसी कार्रवाई में असमर्थ यूसुफ का भी यही हाल है। इतने भावुक लोगों में तेजप्रताप का किरदार कुछ विलेन जैसा होकर रह जाता है। ऐसा होने की एक वजह शायद यह है कि अपने आइडिये में आश्वस्त पात्र हमारे परिवेश की चीज ही नहीं हैं। बहरहाल प्रस्तुति की अच्छी बात ये ही कि‘भावना’ के अतिरिक्त और कुछ भी उसमें बाहरी नहीं है—न रंगमंचीय युक्तियाँ, न संगीत का शोर। उस अर्थ में यह एक ठोस यथार्थवादी नाट्य प्रस्तुति है। यानी मंच पर दृश्य का कोई अतिरिक्त तामझाम नहीं है। बस उतनी ही चीजें हैं कि लोकेशन का संकेत हो जाए, और पूरा नाटक पात्रों के परस्पर व्यवहार से ही निकलता है। यह यथार्थ हिंदी नाटक में अब दुर्लभ हो चला है। हर फाँसी के बदले में सजा में एक साल की छूट पाने वाले जल्लाद कैदी का किरदार अच्छा बन पाया है। वैसे नाटक की एक अन्य समस्या शायद उसके अनुवाद में भी है, कई बार कुछ शब्द बनावटी मालूम देती है।
संगम भाई,
जवाब देंहटाएंएक बहुत अच्छी समीक्षा. सधी और विश्लेषणात्मक !
आपने 'न्यायप्रिय' की समीक्षा के लिए समय निकाला; आलेख और प्रस्तुति का विश्लेषण किया, इसके लिए धन्यवाद, बहुत आभार !
समीक्षा के उत्तरार्ध में आपकी यह टिप्पणी कुछ समझ में नहीं आयी :
" . . . कामू के नाटक में ‘उद्देश्य’ एक पात्र की समस्या के तौर पर है, पर हिंदुस्तानी परिवेश में उच्चतर भावना की चीज समझा जाता है। यह फाँक प्रस्तुति में निरंतर दिखाई देती है। पात्रों की भावनाएँ कई बार इतनी प्रत्यक्ष हैं कि इससे बात का तनाव डाइल्यूट होता है। मस्ताना की प्रेमिका रही दमयंती का दर्द में डूबा चेहरा इतनी देर तक दृश्य में दिखाई देता है कि एक आनुषंगिक संदर्भ प्रमुख प्रसंग की तरह उभरा दिखाई देने लगता है। बम फेंकने जैसी कार्रवाई में असमर्थ यूसुफ का भी यही हाल है। इतने भावुक लोगों में तेजप्रताप का किरदार कुछ विलेन जैसा होकर रह जाता है। ऐसा होने की एक वजह शायद यह है कि अपने आइडिये में आश्वस्त पात्र हमारे परिवेश की चीज ही नहीं हैं। "
कभी विस्तार से आपसे समझूँगा|
एक बार फिर आपका आभार|
- परवेज़ अख्तर
धन्यवाद, बहुत आभार संगम भाई !
हटाएंआपकी टिप्पणी देखी। बहुत हद तक मैं आपकी आलोचना का अर्थ समझ सका। ख़ासकर, परिवेश के परिवर्तन से, किस तरह किसी रचना का मूल स्वर और उसका केन्द्रीय तत्व प्रभावित होते हैं - यह भी समझा!
हटाएंधन्यवाद, हार्दिक आभार आपका !
संगम भाई,
जवाब देंहटाएं'न्यायप्रिय' की बहुत ही अच्छी - विश्लेषणात्मक समीक्षा! आपकी समीक्षा पाठक-दर्शकों और 'परफ़ाॅर्मर' को पाठ और प्रस्तुति को देखने-समझने की अन्तर्दृष्टि देती है। इस समीक्षात्मक टिप्पणी ने हमें बहुत समृद्ध किया। आपने नाट्य प्रस्तुति की समीक्षा की, इसके लिए समय निकाला; इसके लिए आपका बहुत धन्यवाद, आभार!
- परवेज़ अख़्तर।
धन्यवाद,संगम पाण्डेय जी - इस उम्दा और विश्लेषणात्मक समीक्षा के लिए!
जवाब देंहटाएंहम लाभान्वित और समृद्ध हुए! बहुत आभार!
० परवेज़ अख़्तर।