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मार्च, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कस्तूरबा गांधी का जीवन

मुंबई के आविष्कार और कलाश्रय ग्रुप की प्रस्तुति 'जगदंबा' यूं तो कस्तूरबा गांधी के जीवन पर केंद्रित है, लेकिन अंततः उसके केंद्र में महात्मा गांधी ही दिखाई देते हैं। प्रस्तुति में तीन पात्र हैं लेकिन उसकी शक्ल एकालाप की है। मुख्य एकालाप में कस्तूरबा महात्मा गांधी के साथ अपने जीवन को बयान करती हैं और उनके बयान की संवेदना को ज्यादा प्रामाणिक बनाते दो सहयोगी एकालाप उनके पुत्रों- मणि और हरि- के हैं। यह एक पारंपरिक भारतीय स्त्री के संस्कार और उसकी उम्मीदों के बरक्स उसके आत्मोत्सर्ग की कथा है। प्रस्तुति इस उत्सर्ग का महिमामंडन करने के बजाय इसे यथार्थ की जमीन पर देखती है और ऐसे में कस्तूरबा के मन पर लगने वाली चोटें, खुद के साथ उनका समझौता और हालात के आगे झुकना बार-बार दिखाई देता है। प्रस्तुति की कस्तूरबा पति की शुद्धतावादी जिदों के आगे लाचार दिखाई देती हैं। सिद्धांत के धरातल पर सोचते पति के आगे उनकी व्यावहारिक बुद्धि की एक नहीं चलती। वे युवा हो रहे पुत्र और पड़ोस की लड़की में दूरी रखने की हिमायती हैं, लेकिन गांधी दूरी के बजाय संयम के कायल हैं। पुत्र मणि के संयम न रख पाने की सजा वे उपवा

डार से बिछुड़ी

आख्यानमूलक साहित्यिक कृतियों पर नाट्य प्रस्तुति करने का प्रचलित तरीका यही है कि उन्हें संक्षिप्त करके उनके साहित्यिक कलेवर में ही प्रस्तुत किया जाए। लेकिन ऐसी प्रस्तुतियां रंगमंचीय तत्त्वों से रिक्त होने से अक्सर मंच के लिए सपाट भी साबित होती रही हैं। लेकिन उपन्यास 'डार से बिछुड़ी' के मंचन में ऐसा नहीं था। निर्देशकद्वय अंजना राजन और केएस राजेंद्रन ने कृष्णा सोबती के उपन्यास का मंच पर एक सांगीतिक रूपांतरण किया है, जिसमें उपन्यास के पात्र मुकम्मल चरित्रों के तौर पर नहीं बल्कि संकेतों के रूप में दिखते हैं। उन्होंने उपन्यास का संक्षेपण नहीं किया है, लेकिन कथावस्तु के विस्तार के लिहाज से स्थितियों को एक सांकेतिक दृश्य के तौर पर बरतने की विधि अपनाई है। हर स्थिति यहां समूचे विन्यास का एक विवरण मात्र है। उसकी कोई दृश्यात्मक स्वायत्तता नहीं है। वह मंच पर घटित नहीं होती, बल्कि प्रस्तुत की जाती है। इस प्रस्तुतीकरण में जो अभिनेता एक स्थिति में नायिका का हमदर्द शेख बना है, वही बाद में उसका सबकुछ छीन लेने वाला क्रूर बरकत। इस तरह निर्देशकगण एक साहित्यिक पाठ को दर्शक के लिए एक रंगमंचीय अनुभव म

ममताजभाई पतंगवाले

पिछले कुछ वर्षों के दौरान युवा आलेखकार और निर्देशक मानव कौल ने हिंदी रंगमंच में एक महत्त्वपूर्ण जगह बनाई है। हर साल दिए जाने वाले महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड (मेटा) के लिए इस साल उनके दो नाटक नामित किए गए। इनमें से एक 'ममताज भाई पतंगवाले' दो अलग-अलग वक्तों की कहानी है। करीब बीस-पच्चीस साल पहले गुजर चुके और हमारे आज के वक्त की। इस बीच समय की गति में कोई ऐसा पेंच रहा है कि व्यक्ति वो नहीं रहा जो वह था। यह बदला हुआ व्यक्ति पूरी तरह अन्यमनस्क है। वह चीजों में रस लेता हुआ दिखता है, लेकिन तत्क्षण ही हर रसास्वाद को भूल जाता है। वह फुर्तीला और स्मार्ट हो गया है, लेकिन उसमें अपने वक्त की कोई तल्लीनता नहीं है। वह फोन पर नया जोक सुनकर ठहाका लगाता है और लगभग भूल चुका है कि उसके बचपन में घर के पड़ोस में एक सच्चे पतंगबाज ममताज भाई थे। नाटक फ्लैशबैक में जाकर उस पूरे जीवन को याद करता है जिसमें ममताजभाई के अलावा अवस्थी मास्टर साहब, मां, बहन, दोस्त आनंद और इनके केंद्र में पतंगबाजी का दीवाना विकी हुआ करता था, जो मानता है कि ममताजभाई के बीवी-बच्चे नहीं हो सकते, क्योंकि वे तो पतंगबाज हैं न!

नौटंकी शैली में ओथेलो

बीते दिनों अभिमंच प्रेक्षागृह में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दूसरे वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति 'मौन एक मासूम सा' का मंचन किया गया। त्रिपुरारी शर्मा के निर्देशन में शेक्सपीयर के ओथेलो पर आधारित यह कथित रूप से नौटंकी शैली की प्रस्तुति थी। शैलीकरण के लिए त्रिपुरारी शर्मा ने अपने रूपांतरण में- वालिदा, खाबिंद, अब्बा हुजूर, शमशीर आदि- काफी उर्दू शब्दों का इस्तेमाल किया है। प्रस्तुति में बहरे तबील की लय को पकड़ने की कोशिश जरूर है लेकिन अक्सर उसमें तल्लीनता और मीटर की कमी दिखती है, और आधी अधूरी गलेबाजी रस-निर्माण के बजाय रसभंग ज्यादा करती है। पूरी प्रस्तुति में गढ़न बहुत स्पष्ट दिखाई देती है। डेस्डिमोना का नाम यहां दिव्या है, रोडरिगो का रुद्रो, इयागो का योग्या और कैसियो का मधुकर कश्यप। लेकिन नाम में कुछ नहीं रखा, शायद इसीलिए ओथेलो का नाम ओथेलो ही रहने दिया गया है। छंद की गढ़न के लिए उसे बार-बार जंगी कहा जाता है- 'नजर रखना जंगी अगर तेरी आंख देख सकती, धोखा दिया वालिद को तुझे भी दे सकती' या 'इधर आ जंगी मेरे, मौका है ये खास/ तहेदिल से देता तुझे, जो है पहले से तेरे पास'। इ

शरीर में अभिनय की पहचान

रंग-अभिनय के क्षेत्र में शरीर का कई तरह से संधान किया गया है। भारंगम में प्रदर्शित अर्जेंटीना की दो युवा अभिनेत्रियों- मरीना क्वेसादा और नतालिया लोपेज- की 'मुआरे' नामक प्रस्तुति इसका एक उदाहरण है। यह प्रस्तुति एक उपन्यास से प्रेरित है जिसमें लेखिका ने गहरे मृत्युबोध में हर स्मृति और वस्तु को मानो बड़े आकार में और बहुत पास जाकर देखा है। यथार्थ को देखने के इस ढंग ने इन अभिनेत्रियों को मंच पर एक 'गति आधारित भाषा' रचने का विचार दिया। दरार पड़े शरीर और उसमें स्वायत्त हो चुके अंगों की भाषा। अपने एकांगीपन में हर अंग क्या कर सकता है- इसकी देहाभिव्यक्ति। मंच में बने एक दरवाजे में शीशा लगा है, जिसमें सबसे पहले उंगलियां, फिर हथेली, पूरा हाथ और फिर एक लहराती हुई काया दिखती है। थोड़े से खुले दरवाजे से एक-एक अंग करके बहुत कोशिशों के साथ यह दुबली-पतली काया भीतर आती है। एक जर्जर, कांपती हुई-सी स्त्री-देह। बहुत कोशिश करके खड़ी होती और चलती, गिरती-पड़ती, वहीं पड़ी मेज पर खुद को मरोड़ती-तोड़ती और फर्श पर आड़े-तिरछे, किसी निर्जीव की तरह ऊटपटांग ढंग से फैल जाती। थोड़ी देर में वैसी ही एक दूस