नौटंकी शैली में ओथेलो


बीते दिनों अभिमंच प्रेक्षागृह में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दूसरे वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति 'मौन एक मासूम सा' का मंचन किया गया। त्रिपुरारी शर्मा के निर्देशन में शेक्सपीयर के ओथेलो पर आधारित यह कथित रूप से नौटंकी शैली की प्रस्तुति थी। शैलीकरण के लिए त्रिपुरारी शर्मा ने अपने रूपांतरण में- वालिदा, खाबिंद, अब्बा हुजूर, शमशीर आदि- काफी उर्दू शब्दों का इस्तेमाल किया है। प्रस्तुति में बहरे तबील की लय को पकड़ने की कोशिश जरूर है लेकिन अक्सर उसमें तल्लीनता और मीटर की कमी दिखती है, और आधी अधूरी गलेबाजी रस-निर्माण के बजाय रसभंग ज्यादा करती है। पूरी प्रस्तुति में गढ़न बहुत स्पष्ट दिखाई देती है। डेस्डिमोना का नाम यहां दिव्या है, रोडरिगो का रुद्रो, इयागो का योग्या और कैसियो का मधुकर कश्यप। लेकिन नाम में कुछ नहीं रखा, शायद इसीलिए ओथेलो का नाम ओथेलो ही रहने दिया गया है। छंद की गढ़न के लिए उसे बार-बार जंगी कहा जाता है- 'नजर रखना जंगी अगर तेरी आंख देख सकती, धोखा दिया वालिद को तुझे भी दे सकती' या 'इधर आ जंगी मेरे, मौका है ये खास/ तहेदिल से देता तुझे, जो है पहले से तेरे पास'। इस तरह त्रिपुरारी शर्मा अपने आलेख में नौटंकी शैली के भदेस और लयकारी तक पहुंचने की चेष्टा करती हैं। लेकिन गढ़न की वजह से प्रस्तुति आखिरकार एक 'कंस्ट्रक्ट' होकर रह जाती है। आधुनिक थिएटर की सुविधाओं में भी वे शैली का कोई परिष्कार नहीं कर पातीं और अंततः दर्शकों के हाथ एक अधकचरा सा ढांचा ही लगता है। यहां तक कि कुछ दृश्यों में निर्देशिका अपने आधुनिकतावादी व्यामोह को भी नहीं छोड़ पाई हैं। एक दृश्य में ओथेलो और इयागो आपस में गुत्थमगुत्था हैं। इयागो ओथेलो के ऊपर लदा उसकी बांह मरोड़ता दिखता है। आधुनिक नाटक के हिसाब से वे प्रत्यक्षतः गुत्थमगुत्था नहीं हैं बल्कि ये उनके भीतरी चरित्र हैं। लेकिन नौटंकी के भदेस में आधुनिकता का यह फ्यूजन एक अटपटा प्रयोग ही कहा जाएगा।

पूरी प्रस्तुति मानो शैली का एक ढांचा बनाने की कोशिश में ही व्यतीत होती है। अगर शैली की कसरत को हटा दें तो अभिनय का स्तर प्रस्तुति में ठीकठाक है। खासकर दोनों मुख्य भूमिकाओं में प्रतीक श्रीवास्तव और कल्याणी मुले काफी बेहतर थे। लेकिन दिक्कत तब आती है जब वे बेतरतीब तुकबंदी वाले संवादों में देर तक उलझे पाए जाते हैं। संवाद का निबटना ही अपने में एक मसला बन जाता है और इस कवायद में शब्द और आशय भी धूमिल हो जाते हैं। नौटंकी की पारंपरिक प्रस्तुतियों में संगीत संवादों की क्षतिपूर्ति करता है। यहां ऐसा नहीं था। यह संगीत और आलेख का मिला-जुला व्यतिक्रम था। हालांकि शैली के मुहावरे पर आलेख में निश्चित ही काफी मेहनत की गई है, पर फिर भी उसका रस छूट गया है। कुछ बेहतर उदाहरण देखे जा सकते हैं- 'मुकद्दस सितारे तुम्हीं से, मैं क्या कहूं/ फिर भी बहाऊंगा नहीं मैं उसका लहू' या 'हर जुबान पर रहता मेरी नेकी का नाम/ वही छिन गया मुझसे आई कैसे ये शाम'। हालांकि पारंपरिक लय के इस एक पुराने उदाहरण से यह काफी भिन्न है- 'मांग ले इस घड़ी बीच दरबार में, मुझसे जिस चीज की तुमको दरकार हो/ सदके दिल से तुझे कौल हूं दे रहा, उसके देने में न मुझको इनकार हो'। प्रस्तुति में आंतरिक लय के बजाय शैलीकरण की कोशिश अलग से दिखाई देती है। उसमें थोड़ा ओथेलो है, थोड़ी बहुत नौटंकी शैली- लेकिन दोनों ही अधूरे-अधूरे हैं। यह दरअसल मिजाज का अधूरापन है, या शायद यही प्रस्तुति का मुहावरा है। मंच पर झरोखे, छज्जे और मुख्य द्वार वाला सेट काफी अच्छा था, जिसमें दाईं ओर से नीचे उतरती सीढ़ियां दिखती हैं। पेड़ों की बड़ी-बड़ी जटाएं भी अच्छा प्रभाव बनाती हैं। अंतिम दृश्य में डेस्डिमोना के कत्ल की दृश्य संरचना काफी प्रभावशाली थी। प्रस्तुति में संगीत नौटंकी शैली से जुड़ी रहीं कृष्णा कुमारी माथुर का है।

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