आनंद रघुनंदन


संजय उपाध्याय निर्देशित आनंद रघुनंदन एक देखने लायक नाट्य प्रस्तुति है। सन 1830 में रीवा के राजा विश्वनाथ सिंह द्वारा ब्रजभाषा में लिखित इस नाटक को हिंदी का पहला नाटक भी माना जाता है। प्रस्तुति के लिए रीवा के ही रहने वाले योगेश त्रिपाठी ने इसका अनुवाद और संपादन वहीं की बघेली भाषा में किया है। आनंद रघुनंदन में रामकथा को पात्रों के नाम बदलकर कहा गया है। राम का नाम यहाँ हितकारी है, लक्ष्मण का डीलधराधर, सीता का महिजा, परशुराम का रेणुकेय, दशरथ का दिगजान, केकैयी का कश्मीरी, सूर्पनखा का दीर्घनखी और रावण का दिकसिर, आदि। तरह-तरह के रंग-बिरंगे दृश्यों और गीत-संगीत से भरपूर यह प्रस्तुति एक अनछुए लेकिन पारंपरिक आलेख का शानदार संयोजन है। इसमें इतने तरह की दृश्य योजनाएँ इस गति के साथ शामिल हैं कि व्यक्ति मंत्रमुग्ध बैठा देखता रहता है। धनुषभंजन के दृश्य में पात्रों का एक समूह बैठने के तरीके को बदलकर धनुष बन जाता है। जब धनुष तोड़ा जाता है तो आधे एक ओर और आधे दूसरी ओर झुक जाते हैं। परशुराम उर्फ रेणुकेय और दोनों राजकुमारों में तब जो बहस-मुबाहसा होता है वह नौटंकी शैली में है। इसी तरह पहले मनभावन बातें करने वाली दीर्घनखी का राक्षसी रूप कथकली के परदे के पीछे से उदघाटित होता है। बाद में बहन का बदला लेने आए दूषण की धजा भी देखते बनती है, जो भयानकता में अपना होंठ चुभला रहा है। प्रस्तुति में तरह-तरह की भंगिमाओं से लेकर कास्ट्यूम तक रामलीला की सारी छवियाँ बिल्कुल नए रूप में हैं। न सिर्फ इतना, बल्कि कई बार मंच पर पात्रों के प्रवेश का ढंग भी खासा रोचक है। रावण उर्फ दिकसिर थोड़ा विलंबित ढंग से लहराता हुआ मंच पर आता है, तो हनुमान जी बिल्कुल तूफानी तरह से रावण के दरबार में जा घुसते हैं, और दो दरबारियों को चपत लगाते हुए हड़कंप मचा देते हैं। उनकी निरंतर लंबी होती पूँछ वाला दृश्य भी अच्छी तरकीब में पेश किया गया है। एक विंग्स के सिरे पर शरीर की आड़ से पूँछ का बढ़ना दिखाया गया है। फिर अन्य विंग्स में से पूँछ घूम-घूमकर निकले जा रही है। इस तरह अच्छी-खासी पूँछ मंच पर आ बिखरी है। तरह-तरह के मुखौटे लगाए लंकावासी स्थिति से निबटने में जुटे हैं। पूरी प्रस्तुति में दृश्यों के मध्य इस्तेमाल की जाने वाली ब्लू लाइट्स का इस्तेमाल इक्का-दुक्का ही दिखता है। इससे एक घंटा 50 मिनट की इस प्रस्तुति की गति का अंदाजा लगाया जा सकता है। तरह-तरह की दृश्य युक्तियों में स्थितियाँ हमेशा अप्रत्याशित तरह से पेश होती हैं। बालि-युद्ध में पेड़ों की मार्फत लड़ाई की जा रही  है। और बिल्कुल शुरू में उत्पाती राक्षसों से लड़ाई में एक विशाल चादर के भीतर ही दृश्य परिवर्तन घटित होता है। चादर के भीतर गए कोई और थे, निकले कोई और। पूरी प्रस्तुति निर्देशकीय कल्पनाशीलता की लाजवाब मिसाल है। संजय उपाध्याय के अब तक के रंगकर्म के बरक्स भी यह प्रस्तुति कहीं ज्यादा बहुविध और चाक्षुष है। स्टेज हमेशा की तरह उनके पूरे नियंत्रण में है, जिसमें कहीं कोई चूक या कोई बेडौलपन मुश्किल ही दिखते हैं; और लिहाजा दर्शक इस बिल्कुल नए मुहावरे की रामलीला में अंत तक दत्तचित्त बना रहता है। (मंचन- 14 जुलाई 2016, कालिदास अकादमी, उज्जैन)

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