ढाई साल का युग
राजेन्द्र जी से मेरा साथ उनकी 84 बरस की उम्र के अंतिम ढाई सालों में रहा. इन ढाई में से बाद वाले एक-डेढ़ साल में हमारी अच्छी घनिष्ठता हो गई थी. यानी वह खुलापन और भरोसा आ गया था कि हम आपस में दुनियाभर के संदर्भों पर बेलाग हो सकें. राजेन्द्र जी खुलेपन के बगैर नहीं रह सकते थे, और बढ़ती उम्र और शारीरिक असमर्थताओं ने उनके भरोसे की एक भावनात्मक परिधि बना दी थी. इस परिधि में बहुत से लोग अपनी-अपनी वजहों से घुसना चाहते थे, पर जिसपर वस्तुतः दो एक लोगों का ही ठोस ढंग से कब्जा था. राजेन्द्रजी इन घुसने वालों और कब्जा बनाए रखने वालों के रोमांचक खेल में अंपायरिंग करते हुए लगभग हमेशा ही गलत फैसले लिया करते थे. ऐसा वे जानबूझकर नहीं करते थे, बल्कि ये गलत फैसले उनमें ‘ इनहेरेंट ’ थे. उनमें उलझावों में जीवन गुजारने की एक अदभुत क्षमता थी. इस तरह वे विपत्तियों से घबराए बगैर निरंतर सक्रिय बने रहते थे. इस लिहाज से यह उपयुक्त ही था कि मैं भावनात्मक के बजाय उनके ज्ञानात्मक भरोसे की परिधि में ही कहीं रहता था. वैसे जहाँ तक भरोसे की बात है, तो राजेन्द्रजी के साथ जीवन का लंबा समय गुजार चुके बहुत से लोग खुद उन्हें