ढाई साल का युग

राजेन्द्र जी से मेरा साथ उनकी 84 बरस की उम्र के अंतिम ढाई सालों में रहा. इन ढाई में से बाद वाले एक-डेढ़ साल में हमारी अच्छी घनिष्ठता हो गई थी. यानी वह खुलापन और भरोसा आ गया था कि हम आपस में दुनियाभर के संदर्भों पर बेलाग हो सकें. राजेन्द्र जी खुलेपन के बगैर नहीं रह सकते थे, और बढ़ती उम्र और शारीरिक असमर्थताओं ने उनके भरोसे की एक भावनात्मक परिधि बना दी थी. इस परिधि में बहुत से लोग अपनी-अपनी वजहों से घुसना चाहते थे, पर जिसपर वस्तुतः दो एक लोगों का ही ठोस ढंग से कब्जा था. राजेन्द्रजी इन घुसने वालों और कब्जा बनाए रखने वालों के रोमांचक खेल में अंपायरिंग करते हुए लगभग हमेशा ही गलत फैसले लिया करते थे. ऐसा वे जानबूझकर नहीं करते थे, बल्कि ये गलत फैसले उनमें इनहेरेंट थे. उनमें उलझावों में जीवन गुजारने की एक अदभुत क्षमता थी. इस तरह वे विपत्तियों से घबराए बगैर निरंतर सक्रिय बने रहते थे. इस लिहाज से यह उपयुक्त ही था कि मैं भावनात्मक के बजाय उनके ज्ञानात्मक भरोसे की परिधि में ही कहीं रहता था. वैसे जहाँ तक भरोसे की बात है, तो राजेन्द्रजी के साथ जीवन का लंबा समय गुजार चुके बहुत से लोग खुद उन्हें एक गैरभरोसेमंद इंसान मानते रहे हैं, पर मुझे लगता है कि ऐसे मामलों में जब हम दूसरों की जटिल बुद्धि को चिह्नित कर रहे होते हैं तो अपनी सरल समझ को अनदेखा भी कर रहे होते हैं. इस अर्थ में यह रिश्तों में गैरभरोसे की समस्या वास्तव में अक्सर अन-सूटेबिलिटी की समस्या होती है. जो भी हो, भारतीय समाज की संरचना के हिसाब से राजेन्द्रजी एक अन-सूटेबल ब्वाय ही थे. वे दूसरों के किरदार से जरूरत भर सूटेबिलिटी का इस्तेमाल करते और आगे बढ़ जाते, और वे सरल हृदय लोग कहते- देखो इन्होंने हमें धोखा दिया है. मेरे हंस में आने के कुछ महीनों बाद एक बार उन्होंने कहा था- अब तक आप कहाँ थे!’ तो मुझे लगा कि हमारा रिश्ता एक-दूसरे को जानने के बाद अब सही तरह से स्थिर हो चुका है.
राजेन्द्रजी एक जटिल किरदार तो थे, पर इसकी वजह उस शारीरिक खोट में निकालना शायद ठीक नहीं होगा, जिसमें कई लोगों ने उनकी ग्रंथियाँ तलाशी हैं. यों मनुष्य की मनोवैज्ञानिक बनावट को समझना हमेशा बहुत पेचीदा मसला होता है, पर फिर भी लगता यह है कि अपनी शारीरिक असमर्थता की हीनता को शायद वे बहुत पहले फतह कर चुके थे. अगर वैसा न होता तो उनके साहित्य में उसकी कोई झलक या भनक जरूर होती. आखिर किसी वैसी कुंठा में जी रहा व्यक्ति जीवन को उस फलक पर कैसे देख सकता था जैसा उनके साहित्य में दिखाई देता है? उनके निजी रिश्तों में जो भी जटिलताएँ रही हैं उनके अपने तर्ईं इसका कारण एक अलहदा किस्म की स्थानच्युतता में है. वे जीवन भर एक अनुपयुक्त समाज के साथ अपने निजता और आधुनिकता के गड्डमड्ड बोध का नाकाम तालमेल बैठाते रहे.
राजेन्द्रजी को पारिभाषिक अर्थ में विचारक कहना पूरी तरह गलत होगा. विचार उनके लिए सचेत बुद्धि का उपक्रम नहीं था. वे कलाकार थे, जो चिंतना को अवचेतन के बोध के रूप में ग्रहण करते थे. उनकी जवानी के दिनों में पश्चिमी दुनिया में जो विचार और अवधारणाएँ प्रचलित थीं, उन सबका थोड़ा-थोड़ा रस उन्होंने ग्रहण किया. पर उन्हें सुलझे हुए ढंग से समझना और तब जीवन में शामिल करना एक मूल रूप से केऑटिक समाज के प्रतिनिधि के बतौर न उनके वश में था, न उनकी एशियाई फितरत को सूट करता था. वरना क्या यह कम अजीब बात है कि सारे बड़े अस्तित्ववादी लेखक राजेन्द्र जी के प्रिय थे, पर खुद उनकी शख्सियत पर (हाल के वर्षों के कुछ डायरी-अंशों को छोड़कर) मृत्युबोध या व्यर्थताबोध को किसी भी तरह फिट नहीं किया जा सकता. यहाँ तक कि कट्टर भगवान-विरोधी होने के बावजूद सार्त्र की तरह ईश्वर की मृत्यु को लेकर आश्वस्त होना उनके लिए जरूरी नहीं था, और इस मसले को स्थगित रखकर ही वे काम चलाते रहे. उनके संपादित आखिरी अंक में अंतिम क्षणों तक कुछ न लिख पाने पर मैंने अपना एक पुराना लिखा हुआ टुकड़ा टॉलस्टाय के ईश्वरउसमें दिया था. पढ़कर वे बोले थे- बहुत अच्छा लिखा है, पर तुम कहाँ इस भगवान-वगवान के चक्कर में पड़े हो. कामू और काफ्का उनके चाहे कितने भी प्रिय रहे हों, पर उनका जिंदगी का अपना यकीन इन क्लासिक पश्चिमी लेखकों की तरह एक मुकम्मल रैशनल आइडिये के तौर पर नहीं हो सकता था. जिस तरह उन लेखकों को मृत्युबोध के सिरे से देखने पर जीवन की व्यर्थता, उसका नरक, और साठ-सत्तर-अस्सी साल में खत्म हो जाने वाले जीवन का इतना सारा झूठ, छल-कपट और इतनी बँधी हुई पराधीन निजता दिखाई दी थी, वैसा राजेन्द्र जी के हिंदुस्तानी आशावाद में संभव नहीं था. वे सारी बौद्धिक कवायद के बावजूद जीवन से बहुत दूर नहीं जा सकते थे. कामू के इस निष्कर्ष कि एक ऐसी दुनिया, जिससे किसी को कुछ हासिल नहीं होता, में स्पष्टता और सार्थकता की ख्वाहिश अंततः व्यक्ति को एक निरर्थकता के अहसास की ओर ले जाती है, जहाँ वह ग्रीक माइथोलॉजी के सिसिफस जैसे अभिशप्त पात्र की तरह जीवन भर उसी एक पत्थर को ढोकर दूसरी जगह पहुँचाया करता है—को राजेन्द्रजी ने अपनी एक अलग रंगत में ग्रहण किया. उनके यहाँ जीवन का नरक फ्रेंच लेदर कहानी का यथार्थवादी नरक था, जिसे तीन जगहों से लौटाया गया, और जिसके लिए उन्हें जीवन की निगेटिविटी का ह्रासोन्मुखी लेखक कहा गया.
राजेन्द्रजी के किरदार में एक ऐसी बुनियादी शिद्दत थी कि उनके बोध हृदय और मस्तिष्क से आगे बढ़कर मानो उनके रक्त और मज्जा में शामिल हो जाते थे. व्यक्ति और समाज का सनातन द्वंद्व उनके लिए एक अनसुलझा बोध था, जिसके अंतर्विरोधों को वे अपनी बहुलक्षित बेपरवाही या निर्लज्जता की मदद से जीवन भर निभाते रहे. पश्चिमी साहित्य के प्रभाव में उनके व्यक्ति को एक मुकम्मल आजादी चाहिए थी पर समाज के बगैर भी वे रह नहीं सकते थे; उनका दांपत्य इस विरोधाभास की सबसे बड़ी मिसाल कहा जा सकता है. लेकिन इस वजह से उनकी शख्सियत में चाहे जितने भी अंतर्विरोध रहे हों, पर उसमें जीवन को बहुत गहरे तक जज्ब किया गया था. उन्हें जो चाहिए था उससे उन्हें रोका नहीं जा सकता था—चाहे वह परिवार की शर्त पर हो या किसी और अंतरंग रिश्ते की शर्त पर. उनसे बराबरी के रिश्ते की एक अनिवार्य शर्त थी— खुद अपनी वास्तविकता को जानते हुए उन्हें इसका अहसास करा देना. इस अर्थ में वे सभी लोग, जिन्होंने राजेन्द्र जी से दुख पाया, को यह कबूल करना चाहिए कि उनका दुख दरअसल उनकी अपनी भावनात्मक बाध्यता थी. विशेष रूप से इसलिए, कि राजेन्द्र जी के अपने व्यक्तित्व में परदुख की कातरता न सही पर उसकी समझ पर्याप्त थी. वे अपनी तरफ से रिश्ता तोड़ना नहीं चाहते थे, पर वास्तव में जो चाहते थे उससे वह टूट ही जाता था. उनकी अंतिम किताब स्वस्थ आदमी के बीमार विचार उनकी उक्त मानसिक बनावट की बहुत अच्छी छवियाँ देती है. यह पुस्तक लिखवाने तक वे उम्र और मनोदशा के उस पड़ाव तक पहुँच चुके थे कि उनके लिए हर चीज मानो एक छवि में तब्दील हो गई थी. चाहे वह लोग हों, चाहे अतीत, या दुनियादारी. कई बार मुझे लगा कि राजेन्द्र जी जैसे स्वाभाविक लोग बहुत दुर्लभ होते हैं. वे अच्छे विश्लेषक नहीं थे, पर उनमें चीजों की बहुत गूढ़ परख थी. वे लोगों की आकृति के भीतर उनके चित्र-विचित्र मनोभावों का एक विहंगम अक्स अपने भीतर उतार लिया करते थे. मैंने किसी के प्रति उन्हें बहुत क्षोभित या प्रसन्न नहीं देखा. हर कोई अपने गुणों-दुर्गुणों के साथ उनके लिए एक छवि भर था. इनमें से कुछ छवियाँ उनके लिए इतनी जरूरी थीं कि वे अगर छुरा लेकर उनपर झपट भी पड़तीं, तो भी उनके मन में उन्हें लेकर कोई दुर्भाव पैदा नहीं हो सकता था. 
राजेन्द्रजी को कई तरह के शारीरिक कष्ट थे, पर उनका मन जीने में इतना व्यस्त था कि कष्टों की ओर ध्यान देने की उन्हें मोहलत नहीं थी. पीड़ा के उग्रतम क्षणों में भी कष्ट उन्हें नहीं घेर पाते थे. उनकी इस जिजीविषा का एक दृश्य मुझे कभी नहीं भूलता. करीब डेढ़ साल पहले जब उनका हार्निया का ऑपरेशन होना था, तो ब्लडप्रेशर कंट्रोल में न आने की वजह से ऑपरेशन बार-बार स्थगित किया जा रहा था. बार-बार की अस्पताल की आवाजाही में, शारीरिक तकलीफ और दवाओं के असर से वे काफी कमजोर हो गए थे. पंद्रह-बीस दिन तक दफ्तर नहीं आ पाए थे. उन्हीं दिनों एक रोज मैं उनसे मिलने गया था. वे मन्नूजी के यहाँ हौजखास में थे. बिस्तर पर रजाई में लिपटे लेटे थे. उनका झाँक रहा चेहरा बेहद दुबला और कमजोर था. कमरे में चल रहे हीट कन्वेक्टर और रजाई में लिपटे होने के बाद भी उन्हें बहुत ठंड लग रही थी. किशन ने बताया कि वे बार-बार और रजाई उढ़ा देने के लिए कह रहे थे. इसी बीच और भी बहुत से लोग वहाँ पहुँच गए थे. राजेन्द्र जी को पता चला तो रजाई से खुद को बाहर निकालने के लिए कहा. वे इतने अशक्त थे कि खुद मुड़ भी नहीं सकते थे. किशन ने उनको उठाकर तकिया के सहारे बैठाने की कोशिश की, लेकिन उनकी गर्दन एक ओर को लुढ़क जा रही थी और वे तकिया पर सीधे टिक भी नहीं पा रहे थे. उनकी हालत देखते हुए उन्हें फिर से अस्पताल में भर्ती कर देने की बात हो रही थी. वहाँ मौजूद किसी ने मजाक किया, शायद अजित कुमार जी ने, कि अस्पताल में सुंदर नर्सें देखभाल करेंगी तो जल्दी ठीक हो जाएँगे. सुनकर राजेन्द्रजी बोले- बनारसीदास चतुर्वेदी का कहना था असली पाणिग्रहण तो अस्पताल में ही होता है जब नर्सें अगल-बगल होती हैं. ऐसी सघन उपस्थिति वाले व्यक्ति का जाना कितना हृदयविदारक है, समझा जा सकता है.         
राजेन्द्र जी इस दफ्तर और इस कमरे में 48 साल से बैठ रहे थे. मेरे पैदा होने और चलना, बोलना, पढ़ना-लिखना वगैरह सीखने के दौरान वे रोज इसी कमरे में आकर बैठ रहे थे. महत्त्वपूर्ण यह भी है कि वे उससे पहले ही अपने वे सारे उपन्यास आदि लिख चुके थे जिन्हें मैंने कॉलेज के दिनों में या उसके आसपास पढ़ा और जिन्हें पढ़कर भाषा और अनुभव का एक संस्कार हुआ था. वे सामने होते थे तो जैसे एक पूरा युग सामने होता था. कितने ही पुराने संदर्भ थे जिनके बारे में मैं उनसे पूछता था, या पूछ लेना चाहता था. ऐसे मौकों पर मेरी उत्सुकता के बरक्स उनकी सहजता के वे दृश्य हमेशा दिमाग में एक बिंब की तरह स्थिर रहेंगे, जब वे कहते राकेश कहता था.... और कोई अश्लील सी बात सुना देते. यह कहते हुए उन्हें शायद यह अंदाजा नहीं होता था कि खुद मोहन राकेश मेरे लिए कितनी बड़ी छवि रहे हैं.

कॉलेज के दिनों में राजेन्द्र जी का उपन्यास शह और मात मुझे बहुत प्रिय था. (अभी उनकी टेबल और आलमारियों की खोजबीन करते हुए शह और मात की बही-खाते जैसे पन्नों पर लिखी जर्जर पांडुलिपि मिली.) उसकी भाषा की चर्चा मैं हर किसी से करता था. इतनी गहरी, चित्रात्मक, पारदर्शी भाषा लिखने वाले राजेन्द्रजी इधर पिछले एक-डेढ़ साल से ठीक से लिख नहीं पाते थे. संपादकीय बोलकर लिखवाते थे, और फिर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में संपादित करते थे. उनकी बातें और वाक्य संरचना बिखरे हुए होते थे, और कई बार समझ ही नहीं आते थे. उन्हें दुरुस्त करते हुए मैं उन्हें बात के किसी छूट गए बिंदु के बारे में बताता तो कहते अब आप ही कर लो जो करना है. और मैं जिनसे भाषा सीखी उन्हीं की भाषा और भावों को सुधारते हुए जीवन के इस अदभुत संयोग के बारे में सोचने लगता.       

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