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सोवियत संघ क्यों ढहा

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1990 के आसपास सोवियत संघ और उससे जुड़े देशों में कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं के एकाएक ढह जाने का सबसे प्रकट कारण वहाँ की अर्थव्यवस्थाओं का जड़ हो जाना था। इस स्थिति को मार्क्सवादी सिद्धांत, जो निजी लाभ की प्रेरणा को सामूहिक हित के लक्ष्य में रूपांतरित करता है , की विफलता के तौर पर भी देखा गया। कम्युनिज्म को एक कृत्रिम व्यवस्था और निजी लाभ को एक नैसर्गिक प्रवृत्ति मानने वालों के लिए यह समूचा विघटन एक स्वाभाविक चीज था, जिसे देर-सबेर घटित होना ही था। लेकिन इस निष्कर्ष की कुछ खामियाँ हैं। पहली मुश्किल ये खड़ी होती है कि फिर हम रूस में करीब 73 साल तक चले समाजवादी प्रयोग और उसकी उपलब्धियों को कैसे देखें ! बहुत से कम्युनिज्म विरोधी इन्हें तानाशाह व्यवस्था की डंडे के जोर पर अर्जित उपलब्धियाँ मानते रहे हैं, पर सच्चाई की कसौटी पर यह एक खामखाँह किस्म की बात ही है। पहले विश्वयुद्ध के बाद खस्ताहाल एक देश पहले तो एक नई व्यवस्था में खुद को खड़ा करे, फिर खुद पर थोपे गए दूसरे विश्वयुद्ध का विजेता बन जाए, और तत्पश्चात शुरू हुए शीत युद्ध में अन्वेषण के कई मोर्चों पर अमेरिका को मात दे सके, आदि उपलब्धियों क

रीवा में रंग-अलख

रीवा में मनोज मिश्रा ने एक बैंक्वेट हॉल को प्रेक्षागृह की शक्ल दे दी है। मशक्कतों से तैयार किया गया इसका स्टेज अच्छा-खासा किंतु अस्थायी है। शादियों के सीजन में उसे उखाड़ देना पड़ता है। रंग-अलख नाट्य उत्सव में इसी स्टेज पर मंडप आर्ट्स की प्रस्तुति ‘एक विक्रेता की मौत’ देखने को मिली। कुछ साल पहले बघेली में ‘वेटिंग फॉर गोदो’ कर चुके मनोज ने आर्थर मिलर के इस नाटक को भी बघेली भाषा में ही मंचित किया है। मुख्य किरदार का नाम यहाँ रमधरिया है और उसके बेटों  का बुधी और सुक्खी। यह एक शहरी हकीकत की आंचलिक भाषा में प्रस्तुति ही नहीं है, बल्कि आज की उत्तरआधुनिकता में एक खारिज होती जा रही जीवन शैली के मूल्यों का पाठ भी है। अपने बारे में जरूरत से ज्यादा सोच रहा आज का इंसान अचानक से रिश्तों की एक दुनिया में जा पहुँचता है, जहाँ हालात के अपने बहुत से द्वंद्व एक मारक यथार्थ रचते हैं। अमरीकियों द्वारा लिखे गए नाटकों में जॉन स्टीनबैक के ‘ऑफ माइस एंड मेन’ की तरह ही ‘डेथ ऑफ ए सेल्समैन’ भी यथार्थ की उन अंतर्भूत त्रुटियों को दिखाता है जहाँ से एक नियति गहरे संवेदनात्मक रूप में प्रकट होती है। यह प्रस्तुति का

ग्वालियर में तीन नाटक

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ग्वालियर के नाट्य मंदिर प्रेक्षागृह में जाने से लगता है मानो आप वक्त के किसी लंबे वक्फे का हिस्सा हों। यहाँ की दीवारों, कुर्सियों, पंखों तक में कई दशक पुराना माहौल आज भी अक्षुण्ण है। प्रेक्षागृह का स्वामित्व आर्टिस्ट कंबाइन नाम की जिस 75 साल पुरानी संस्था के पास है उसके साथ मिलकर योगेन्द्र चौबे ने यहाँ तीन नाटकों का एक समारोह आयोजित किया। योगेन्द्र चौबे अभी डेढ़ साल पहले ही शहर की मानसिंह तोमर यूनीवर्सिटी के ड्रामा विभाग प्रमुख मुकर्रर हुए हैं। वे जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में छात्र थे तब उनका जो काम देखा था वह अब तक भूल भाल गया था। लेकिन इस समारोह में अपने छात्रों के लिए निर्देशित दो नाटकों में योगेन्द्र डिजाइन के बिल्कुल नए तेवरों के साथ नमूदार हुए। पहली प्रस्तुति ‘युगद्रष्टा’ में उन्होंने हिंदी की कुछ कविताओं को एक थीम में बाँधा है। प्रारंभिक दृश्य में लंबे सफेद कपड़े के आरपार व्यास जी और गणेश जी बैठे हैं। इस तरह शुरू हुई कथा चीरहरण के दृश्य की उत्तेजक बहस ‘उठो द्रोपदी शस्त्र उठा लो, अब गोविंद ना आएँगे‘ की काव्यात्मकता तक पहुँचती है। संवादों में अच्छी वक्रोक्तियाँ हैं, जिनमें

वसंत काशीकर की प्रस्तुतियाँ

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जबलपुर के दिनेश ठाकुर स्मृति प्रसंग में वसंत काशीकर की प्रस्तुति ‘खोया हुआ गाँव’ देखी। वसंत काशीकर में आंचलिकता की अच्छी सूझ है। उनकी पिछली प्रस्तुति ‘मौसाजी जैहिंद’ में तो फिर भी पड़ोस के बुंदेलखंड का परिवेश था, पर इस बार तो बिल्कुल ही बेगानी जगह कश्मीर को दिखाया गया है। मोतीलाल केमू के इस नाटक में पाँच गाँवों के डाकघर में सारंगी का शौकीन एक नया डाकिया आया है। डाकिए की लोककलाकारों के उस गाँव में बड़ी रुचि है जहाँ कोई चिट्ठी नह ीं आती। वह वहाँ जाने की तरकीब निकालता है। इसी बीच एक प्रेम कहानी भी नत्थी होती है। कहानी तो जो है सो है, पर असली चीज है उसकी छवियाँ। प्रस्तुति के पात्र कुछ लोककथानुमा हैं। डाक को इकट्ठा करने में तन्मय डाक बाबू उम्र की ताजगी लिए नए डाकिये को चारों गाँवों के बारे में बता रहा है। फिर रास्ते में डाकिये को भेड़ों का रेवड़ लिए आ रहा एक चरवाहा मिलता है। चरवाहे को आँख मिचमिचाने की आदत है। कपड़ों के मुखौटों के पीछे उसकी भेड़ों की व्यग्रता भी देखते ही बनती हैं। चरवाहा जब उन्हें समेटकर विंग्स की तरफ ले जा रहा है तो एक उनमें से निकलकर औचक भाग खड़ी हुई है। साइकिल पर जा रह

मल्लाह टोली

मल्लाह टोली ========= नीलेश दीपक की प्रस्तुति ‘मल्लाह टोली’ एक बस्ती का वृत्तचित्र है। ‘कैमरा’ यहाँ ठहर-ठहरकर कई घरों के भीतर जाता है, और एक छोटे से परिवेश में तरह-तरह के किरदारों से बनी एक दुनिया को दिखाता है। यह मिथिलांचल के तीन बड़े कथाकारों में से एक राजकमल चौधरी की कहानी है, जिसमें एक आम यथार्थ के भीतर कुछ खास पात्र दिखाई देते है। ये पात्र अचानक कोई ऐसी हरकत कर बैठते हैं कि उससे एक घटना पैदा होती है। हट्टा-कट्टा महंता अपने खास दोस्त से मारपीट कर उसकी नई ब्याहता को हड़प ल ेता है। सब शराब के साथ मछली खाते हुए जश्न मना रहे हैं कि उसकी उपेक्षित हस्ती ऐसा उबाल मारती है कि वो जाकर पिरितिया से लिपट जाता है और छुड़ाने आए उसके पति को उठाकर पटक देता है। ऐसी एक्शनपैक्ड स्थितियों से जो रुचि बनती है उसे नीलेश ने लोक संगीत के साथ नत्थी कर एक निरंतरता बनाए रखी है। कहानी में एक ओर दबंग की बीवी होने को मजबूर पिरितिया है, तो वहीं अपने अशक्त पति की सेवा-सुश्रूषा में पूरी मोहब्बत से जुटी केतकी भी है, जो काफी लंबे अंतिम दृश्य में तिरपित मिसिर की गुप्ती उसी के पेट में उतार देती है। प्रस्तुति में नए-नए

रायपुर में सखाराम बाइंडर

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रायपुर में 20 से 23 मई तक आयोजित ‘रंग-जयंत’ में शामिल प्रस्तुतियों में ‘सखाराम बाइंडर’ सबसे नई थी। यह इसका दूसरा ही शो था। निर्देशक जयंत देशमुख ‘आधे अधूरे’ के बाद एक बार फिर इसमें मंच-सज्जा की एक विशद विवरणात्मकता के साथ मौजूद थे। सखाराम के घर में दो कमरे हैं। छोटा कमरा रसोई है। वहाँ रखी लोहे की अँगीठी में छोटी-छोटी लकड़ियाँ ठुँसी हुई हैं, जिसपर रखे भगोने से धुआँ उठ रहा है। लक्ष्मी जब जलती हुई तीली लकड़ियों में डालती है तो अँगीठी में हिलती हुई लाल रोशनी दिखने लगती है। मैंने विदेशी नाटकों में तो देखा है, पर हिंदुस्तानी थिएटर में इस किस्म की डिटेलिंग एक दुर्लभ चीज है। रसोई में घड़ा, ड्रम, डालडे का पुराना डिब्बा, थाली-बर्तन आदि बहुत कुछ है। एक मुख्य दरवाजा और उसके बाहर एक टप्पर है, जहाँ बारिश की एक रात लक्ष्मी आसरा पाती है। एक लंबे अरसे में इकट्ठा हुआ बहुत सा जरूरी-गैरजरूरी सामान सखाराम के इस घर में पैबस्त है, और इस सज्जा का प्रस्तुति के कुल यथार्थ में एक गहरा दखल है। कमरे और रसोई की खिड़कियों के बाहर भी एक बस्ती, लोग और चिड़िया-कौए आदि हैं, जिनके आभास अनायास (और कई बार प्रत्यक्ष) प्रस