रायपुर में सखाराम बाइंडर

रायपुर में 20 से 23 मई तक आयोजित ‘रंग-जयंत’ में शामिल प्रस्तुतियों में ‘सखाराम बाइंडर’ सबसे नई थी। यह इसका दूसरा ही शो था। निर्देशक जयंत देशमुख ‘आधे अधूरे’ के बाद एक बार फिर इसमें मंच-सज्जा की एक विशद विवरणात्मकता के साथ मौजूद थे। सखाराम के घर में दो कमरे हैं। छोटा कमरा रसोई है। वहाँ रखी लोहे की अँगीठी में छोटी-छोटी लकड़ियाँ ठुँसी हुई हैं, जिसपर रखे भगोने से धुआँ उठ रहा है। लक्ष्मी जब जलती हुई तीली लकड़ियों में डालती है तो अँगीठी में हिलती हुई लाल रोशनी दिखने लगती है। मैंने विदेशी नाटकों में तो देखा है, पर हिंदुस्तानी थिएटर में इस किस्म की डिटेलिंग एक दुर्लभ चीज है। रसोई में घड़ा, ड्रम, डालडे का पुराना डिब्बा, थाली-बर्तन आदि बहुत कुछ है। एक मुख्य दरवाजा और उसके बाहर एक टप्पर है, जहाँ बारिश की एक रात लक्ष्मी आसरा पाती है। एक लंबे अरसे में इकट्ठा हुआ बहुत सा जरूरी-गैरजरूरी सामान सखाराम के इस घर में पैबस्त है, और इस सज्जा का प्रस्तुति के कुल यथार्थ में एक गहरा दखल है। कमरे और रसोई की खिड़कियों के बाहर भी एक बस्ती, लोग और चिड़िया-कौए आदि हैं, जिनके आभास अनायास (और कई बार प्रत्यक्ष) प्रस्तुति में दाखिल हुए रहते हैं। विजय तेंदुलकर के नाटकों में ‘सखाराम’ अपनी यथार्थपरकता में जितना सर्वथा त्रुटिहीन नाटक है, जयंत देशमुख की यह प्रस्तुति भी उसी अनुपात में 24 कैरेट सॉलिड है। और यह भी कि यह हिंदी की नहीं बल्कि बुंदेली भाषा की प्रस्तुति है। नाटक के भदेस को बनाए रखने के लिए निर्देशक ने इसे बुंदेली में रूपांतरित करवाया। और जिस तरह यह रूपांतरण उसी तरह सटीक चरित्रांकन मिलकर इसे एक ऊँचे दर्जे की प्रस्तुति बनाते हैं। यह एक बेधक यथार्थ है जिसके पात्र दुनियादारी के लिहाज में ज्यादा नहीं पड़ते। ऐसे बेलिहाज पात्रों के तौर तरीकों की एक अपनी ही नाटकीयता है जहाँ देह में लिप्त या उससे निढाल सखाराम और चंपा देर तक बेपरवाह टाँगें फैलाए लेटे दिखाई देते हैं। लेकिन पूजापाठ करने वाली लक्ष्मी का सताया हुआ वजूद अपने लिए एक शुचिता ढूँढा करता है। और सखाराम के साथ चिलम की दिव्य दोस्ती निभाने वाला दाऊद है। कश मारने के बाद दोनों बोलते हैं बमबमबम। गणपति बप्पा की क्या मजाल कि इस दोस्ती में दखल दें-- ये साली लक्ष्मी ढोंग करती है। चिलम की आग इसी हाथापाई में गिर गई है। लक्ष्मी उसे उठा रही है। दर्शक देखते हैं कि ये सचमुच के सुलगते हुए कोयले हैं। 
 अभिनय जब छवि में तब्दील होता है तो एक सच्चा किरदार निकलकर आता है। यहाँ सभी किरदार इसी पाए के हैं। अपनी जैविकी में दो टूक ढंग से जीने वाले सखाराम को शायद याद भी नहीं कि दाऊ मुसलमान है। लक्ष्मी के खोखले दुराव पर उसकी नफरत देखते ही बनती है। उसकी जरूरियात बिल्कुल स्पष्ट हैं--- उसे एक औरत चाहिए, बदले में वह उसे जिंदा रहने का सामान मुहैया कराता है। यह बात खोखले वजूद वाली लक्ष्मी को कभी समझ नहीं आती, पर चंपा को आती है। कुल मिलाकर यह निम्नवर्गीय जीवन की वैसी ही असंतुष्ट दुनिया है जैसी कि ‘आधे अधूरे’ के मध्यवर्गीय पात्रों के जरिए एक रोज पहले भी ‘रंग जयंत’ में नमूदार हुई थी। जयंत देशमुख निर्देशित ‘आधे अधूरे’ की यह प्रस्तुति जब पहले देखी थी तब भी अच्छी लगी थी, पर इस बार यह और ज्यादा कसी हुई थी। काफी ब्योरों में विन्यस्त प्रस्तुति का सेट यहाँ भी पूरी शिद्दत से मौजूद था। अलबत्ता इस बार सावित्री बनी गरिमा मिश्रा अपनी ऊर्जा में अलग से नजर आईं। हालाँकि यही बात सखाराम बाइंडर के बारे में नहीं कही जा सकती-- वहाँ सभी अभिनेता-- शोबित खरे, लता साँगड़े, अजय श्रीवास्तव, बिशना चौहान-- अपने अपने प्रभाव के साथ मौजूद थे। बिशना चौहान ने इसका रूपांतरण भी किया था।

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