संदेश

जुलाई, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हिमाचल की वादियों में करियाला

चित्र
यह हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले का कुठाड़ इलाका है। यहाँ के दाड़वा नाम के गाँव में लोक नाट्य करियाला के कलाकार जुटे हुए हैं। जून के महीने में भी रात को इतनी ठंड है कि दो तरफ के घेरे में बैठे दर्शकों ने ऊनी दुशाले लपेटे हुए हैं। करियाला सोलन, शिमला और सिरमौर जिलों का लोक नाट्य है। इसकी प्रस्तुति रात-रात भर चलने का दस्तूर रहा है, जो कुठाड़ रियासत के ईष्टदेव ब्रजेश्वर महादेव को समर्पित होती हैं। एक वक्त था जब रियासत में श्राद्धों के अवसर पर राजा के दरबार हाल में करियाला की प्रस्तुतियों के लगातार 16 दिनों तक प्रदर्शन होते थे, और यह आयोजन दशहरा उत्सव को संपन्न होता था। अब न राजा रहा, न राजा का दरबार, पर करियाला की परंपरा आज भी बची हुई है। राजा का महल भी बचा हुआ है, पर उसे अब कुठाड़ पैलेस रिजॉर्ट के तौर पर जाना जाता है। काफी ऊँचाई पर स्थित इस पैलेस से दिन में दूर तक वादियों की हरियाली दिखाई देती है, और रात को शिमला और कसौली की रोशनियाँ। माइक लगाया जा चुका है। अभिनेतागण मंच पर आ चुके हैं। हारमोनियम, ढोलक, नक्कारे और थोड़े छोटे आकार की शहनाई, जिसे ‘ नपीरी ’ कहा जाता है, के साथ साजिंदे भी तै

नीलकंठ निराला

हिंदी थिएटर में देशज होने का मतलब है एक तरह की अस्तव्यस्तता। धोती-मुरैठा बाँधे पात्र मंच पर किसी भी छोर से चले आ रहे हैं, जुमलों की तरह के संवाद बोले जाते हैं और वैसी ही स्थितियों की घिचपिच वाला कथानक अंत में किसी लोकगीत के कोरस में निष्पत्ति पाता है। सभ्य भाषा में देशज के इस व्याकरण को अनगढ़पन कहा जाता है। मध्यप्रदेश ड्रामा स्कूल के निदेशक संजय उपाध्याय का यह योगदान माना जा सकता है कि उन्होंने हिंदी रंगमंच में अनगढ़पन के अनपढ़पन के बरक्स देशज संवेदना का प्रभावी परिष्कार किया है। कितनी भी बड़ी टीम हो, कितनी भी जटिल कथावस्तु हो, संजय का मिडास टच मंच पर उसका कुछ-न-कुछ परिपाक कर ही देता है। पिछले सालों में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के छात्रों के साथ किये हृषिकेश सुलभ के नाटक ‘ माटी गाड़ी ’ को उन्होंने एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया था, और पीयूष मिश्रा के अपेक्षाकृत बिखरे आलेख ‘ गगन दमामा बाज्यो ’ को सामूहिकता की युक्तियों से एक दिलचस्प रंगत दी थी। नाट्य विद्यालय के इस साल जबलपुर में हुए सत्र समापन समारोह में  हुई ‘ नीलकंठ निराला ’ भी इसी क्रम में एक संवेदनशील प्रस्तुति थी। ‘ नीलकंठ निराला ’