नीलकंठ निराला
हिंदी थिएटर में
देशज होने का मतलब है एक तरह की अस्तव्यस्तता। धोती-मुरैठा बाँधे पात्र मंच पर किसी भी छोर से चले आ रहे हैं, जुमलों की
तरह के संवाद बोले जाते हैं और वैसी ही स्थितियों की घिचपिच वाला कथानक अंत में
किसी लोकगीत के कोरस में निष्पत्ति पाता है। सभ्य भाषा में देशज के इस व्याकरण को
अनगढ़पन कहा जाता है। मध्यप्रदेश ड्रामा स्कूल के निदेशक संजय उपाध्याय का यह
योगदान माना जा सकता है कि उन्होंने हिंदी रंगमंच में अनगढ़पन के अनपढ़पन के बरक्स
देशज संवेदना का प्रभावी परिष्कार किया है। कितनी भी बड़ी टीम हो, कितनी भी जटिल
कथावस्तु हो, संजय का मिडास टच मंच पर उसका कुछ-न-कुछ परिपाक कर ही देता है। पिछले
सालों में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के छात्रों के साथ किये हृषिकेश सुलभ के नाटक
‘माटी गाड़ी’ को उन्होंने एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया था, और
पीयूष मिश्रा के अपेक्षाकृत बिखरे आलेख ‘गगन दमामा बाज्यो’ को सामूहिकता की युक्तियों से एक दिलचस्प रंगत दी थी। नाट्य विद्यालय के इस साल जबलपुर में
हुए सत्र समापन समारोह में हुई ‘नीलकंठ निराला’ भी इसी क्रम में एक संवेदनशील प्रस्तुति थी। ‘नीलकंठ निराला’
बिहार में लोहासिंह के नाम से मशहूर रहे रामेश्वर सिंह काश्यप का नाटक है। नाटक
में निराला की कविताओं और उनके जीवन को कुछ इस ढंग से पिरोया गया है कि यहाँ
घटनाओं का कोई निश्चित क्रम नहीं है। नाटक न सिर्फ संवादों में बल्कि अपने मुहावरे
में भी एक छंद में आबद्ध मालूम देता है। इस लिहाज से यह निश्चित ही एक मुश्किल
नाट्यालेख रहा होगा। लेकिन संजय इसका ऐसा निरूपण करते हैं कि एक घंटा चालीस मिनट
दर्शक को हिलने की मोहलत नहीं होती।
प्रस्तुति
में संजय एक गुजरे वक्त को, निराला की दग्धता और मुग्धता से युक्त खाँटी छवियों को,
कई शहरी और गँवई पात्रों को कुछ यों संयोजित करते हैं कि उनके तमाम छात्र भी उसमें
समायोजित हो सकें। निराला हिंदी के ‘आत्महंता’, ‘महाप्राण’ और ‘नीलकंठ’ हैं। उन्होंने निजी जीवन में जो दुख झेला वह
उनकी साहित्यिक छवि में शामिल हुआ। यह नाटक एक दौर की साहित्यिक भावदशाओं का भी
पता देता है। नाटक में निराला के घर में ‘चारों
ओर अभाव ही अभाव हैं’, लेकिन इससे उनका आत्मसम्मान झुकनेवाला
नहीं। अपने एक शुभचिंतक की मदद को वे ‘निराला
कभी दान नहीं लेता’ कहकर ठुकरा देते हैं और कहीं से मिले
पैसे और घर का एकमात्र कंबल भिखारिन बुढ़िया को दे देते हैं। वे ‘कृतघ्नों की भाषा हिंदी’ से दग्ध हैं और अंग्रेजी में ही लिखने की बात
कहते हैं, और कहते हैं ‘मेरे हस्ताक्षरों का मोल लोग ढाई सौ
साल बाद जानेंगे।’ निराला की विक्षिप्तावस्था के दिनों
के इन ब्योरों में निराला के मित्र हजारी पहलवान, मनोहरा, एक अफसर, उसकी
साहित्यप्रेमी पत्नी, चायवाला, डाकिया आदि पात्र दिखाई देते हैं। चाय वाला लड़का
लेटे हुए निराला के पैर पर सिर रखकर ‘पाँय
लागी दादा’ कहता है। ये छवियाँ निश्चित ही काफी
अचूक हैं। खुद आंशिक विक्षिप्त निराला भी, जो अपने वक्त के एक प्रसिद्ध व्यक्ति
हैं। लोग उनको आयोजनों में निमंत्रित करते हैं, लेकिन निराला की उनमें कोई रुचि
नहीं।
संजय
उपाध्याय के यहाँ स्टेज पूरी तरह उनके नियंत्रण में दिखता है। वे प्रस्तुति के सुर
को जानते हैं। रंगमंच में ये सुर बहुत से अंगों-उपांगों की समांतरता में सधता है। मंच
पर छह निराला हैं पर कहीं कोई लड़खड़ाहट नहीं। उनकी खड़ाऊँ है, एक मौके पर वे
हजारी से हाथापाई पर उतर आते हैं। प्रवेश-प्रस्थान में कहीं कोई व्यवधान नहीं, न
टाइमिंग का कोई अन्य व्यतिक्रम, एक-एक भंगिमा अपनी जगह पूरी तरह दुरुस्त। ‘सरोज स्मृति’ के
प्रसंग में एक जगह मेरे पड़ोस में बैठे हृषिकेश सुलभ चश्मा उतारकर आँसू पोंछते
दिखे।
हिंदी
एक भाषा नहीं, भावदशाओं की एक दुनिया है और निराला उसकी तदनुरूप व्याखायाओं के
नायक। इस दुनिया में जीने का सुख अनिर्वचनीय है। संभवतः उसके दुख में भी करुणा या
वैसा ही कोई रस मौजूद होता है। संजय इस दुनिया को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। उनकी
यह संवेदना ही उनकी देशज निपुणता को इतना ठोस बनाती है।
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