रीवा में रंग-अलख
रीवा में मनोज मिश्रा ने एक बैंक्वेट हॉल को प्रेक्षागृह की शक्ल दे दी है। मशक्कतों से तैयार किया गया इसका स्टेज अच्छा-खासा किंतु अस्थायी है। शादियों के सीजन में उसे उखाड़ देना पड़ता है। रंग-अलख नाट्य उत्सव में इसी स्टेज पर मंडप आर्ट्स की प्रस्तुति ‘एक विक्रेता की मौत’ देखने को मिली। कुछ साल पहले बघेली में ‘वेटिंग फॉर गोदो’ कर चुके मनोज ने आर्थर मिलर के इस नाटक को भी बघेली भाषा में ही मंचित किया है। मुख्य किरदार का नाम यहाँ रमधरिया है और उसके बेटों का बुधी और सुक्खी। यह एक शहरी हकीकत की आंचलिक भाषा में प्रस्तुति ही नहीं है, बल्कि आज की उत्तरआधुनिकता में एक खारिज होती जा रही जीवन शैली के मूल्यों का पाठ भी है। अपने बारे में जरूरत से ज्यादा सोच रहा आज का इंसान अचानक से रिश्तों की एक दुनिया में जा पहुँचता है, जहाँ हालात के अपने बहुत से द्वंद्व एक मारक यथार्थ रचते हैं। अमरीकियों द्वारा लिखे गए नाटकों में जॉन स्टीनबैक के ‘ऑफ माइस एंड मेन’ की तरह ही ‘डेथ ऑफ ए सेल्समैन’ भी यथार्थ की उन अंतर्भूत त्रुटियों को दिखाता है जहाँ से एक नियति गहरे संवेदनात्मक रूप में प्रकट होती है।
यह प्रस्तुति का प्रारंभिक शो था। इस तरह के खालिस यथार्थवादी नाटकों में अच्छा अभिनय एक ऐसी चीज है जो अपने तईं ही प्रस्तुति की बाकी कमियों को ढँक देता है, और यही निर्देशक ने किया भी है। मुख्य दोनों भूमिकाओं में विपुल सिंह गहरवार और पुनीत तिवारी ने पात्रों की इमेज और स्थिति के तनाव को बहुत अच्छी तरह सँभाले रखा है। इसके अलावा बाकी पात्र भी अपने चरित्रांकन में काफी ठोस हैं। हालाँकि मंच के यथार्थ में ऐसा कुछ खास नहीं है, पर स्थितियों में एक निरंतरता है, जिससे पाठ की स्पष्टता दर्शक के लिए बनी रहती है। रमधरिया यूँ नाटक में टोकरी और सूप बेचने का काम करता है, पर प्रस्तुति के कुल स्वरूप में भाषा के अलावा आंचलिकता के तत्त्व अलग से दिखाई नहीं देते।
नाट्योत्सव में नीरज-रोशनी की ‘कर्णभारम्’ भी कुल मिलाकर तीसरी बार देखी, और फिर से इसका मुरीद हुआ। हालाँकि रीवा के दर्शकों को बताए जाने की आवश्यकता है कि नाटक के दौरान बेवजह ताली पीटना अच्छी बात नहीं है।
मंडप आर्ट की रंग-अलख ने रीवा में युवा कलाकारों की एक अच्छी-खासी तादाद तैयार कर दी है। नाटकों को देखने के लिए शहर के चित्रकार-मूर्तिकार सुधीर सिंह, नाटककार योगेश त्रिपाठी, संगीत संयोजक अभिषेक त्रिपाठी आदि भी आए हुए थे जिनसे मुलाकात हुई और बातें भी।
यह प्रस्तुति का प्रारंभिक शो था। इस तरह के खालिस यथार्थवादी नाटकों में अच्छा अभिनय एक ऐसी चीज है जो अपने तईं ही प्रस्तुति की बाकी कमियों को ढँक देता है, और यही निर्देशक ने किया भी है। मुख्य दोनों भूमिकाओं में विपुल सिंह गहरवार और पुनीत तिवारी ने पात्रों की इमेज और स्थिति के तनाव को बहुत अच्छी तरह सँभाले रखा है। इसके अलावा बाकी पात्र भी अपने चरित्रांकन में काफी ठोस हैं। हालाँकि मंच के यथार्थ में ऐसा कुछ खास नहीं है, पर स्थितियों में एक निरंतरता है, जिससे पाठ की स्पष्टता दर्शक के लिए बनी रहती है। रमधरिया यूँ नाटक में टोकरी और सूप बेचने का काम करता है, पर प्रस्तुति के कुल स्वरूप में भाषा के अलावा आंचलिकता के तत्त्व अलग से दिखाई नहीं देते।
नाट्योत्सव में नीरज-रोशनी की ‘कर्णभारम्’ भी कुल मिलाकर तीसरी बार देखी, और फिर से इसका मुरीद हुआ। हालाँकि रीवा के दर्शकों को बताए जाने की आवश्यकता है कि नाटक के दौरान बेवजह ताली पीटना अच्छी बात नहीं है।
मंडप आर्ट की रंग-अलख ने रीवा में युवा कलाकारों की एक अच्छी-खासी तादाद तैयार कर दी है। नाटकों को देखने के लिए शहर के चित्रकार-मूर्तिकार सुधीर सिंह, नाटककार योगेश त्रिपाठी, संगीत संयोजक अभिषेक त्रिपाठी आदि भी आए हुए थे जिनसे मुलाकात हुई और बातें भी।
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