ग्वालियर में तीन नाटक
ग्वालियर के नाट्य मंदिर प्रेक्षागृह में जाने से लगता है मानो आप वक्त के किसी लंबे वक्फे का हिस्सा हों। यहाँ की दीवारों, कुर्सियों, पंखों तक में कई दशक पुराना माहौल आज भी अक्षुण्ण है। प्रेक्षागृह का स्वामित्व आर्टिस्ट कंबाइन नाम की जिस 75 साल पुरानी संस्था के पास है उसके साथ मिलकर योगेन्द्र चौबे ने यहाँ तीन नाटकों का एक समारोह आयोजित किया। योगेन्द्र चौबे अभी डेढ़ साल पहले ही शहर की मानसिंह तोमर यूनीवर्सिटी के ड्रामा विभाग प्रमुख मुकर्रर हुए हैं। वे जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में छात्र थे तब उनका जो काम देखा था वह अब तक भूल भाल गया था। लेकिन इस समारोह में अपने छात्रों के लिए निर्देशित दो नाटकों में योगेन्द्र डिजाइन के बिल्कुल नए तेवरों के साथ नमूदार हुए। पहली प्रस्तुति ‘युगद्रष्टा’ में उन्होंने हिंदी की कुछ कविताओं को एक थीम में बाँधा है। प्रारंभिक दृश्य में लंबे सफेद कपड़े के आरपार व्यास जी और गणेश जी बैठे हैं। इस तरह शुरू हुई कथा चीरहरण के दृश्य की उत्तेजक बहस ‘उठो द्रोपदी शस्त्र उठा लो, अब गोविंद ना आएँगे‘ की काव्यात्मकता तक पहुँचती है। संवादों में अच्छी वक्रोक्तियाँ हैं, जिनमें धर्म को निर्वस्त्र कहा गया है, और हस्तिनापुर के लोगों को अविश्वसनीय। फिर एक सूत्रधार प्रकट होता है जो आधुनिक कोट-पैंट वाली वेशभूषा में है। और अच्छी बात ये है कि इन सब चीजों के साथ एक अच्छी रवानगी भी बनी हुई है। इसमें गीता का उपदेश देते चार कृष्ण हैं, जो बड़े सलीके से कर्म, अकर्म, विकर्म की व्याख्या करते हैं। और फिर ‘हर पंचायत में पांचाली अपमानित है’, ‘राजा बने कोई प्रजा को तो रोना है’ जैसे यथार्थवादी मिसरे भी हैं। ‘जो सीमेंट से नहीं बनाया गया’ उससे पूछा जाता है- ‘बीड़ी पियोगे द्वारपाल?’ और फिर बड़े ही प्रयोगात्मक तरह से पूरे दृश्य पर आड़ी-तिरछी गिरती विजुअल्स की एक श्रृंखला है। इस भरी-पुरी प्रयोगात्मक प्रस्तुति के अलावा तीसरे रोज न दिखने वाले वस्त्र पहने नंगे राजा के अदना से कथानक पर तैयार ‘ग्लोबल राजा’ भी अच्छा दिलचस्प नाटक है। कहानी को खींचा अवश्य गया है, पर पर्याप्त चुटीलेपन के साथा। राजा को झाँसा देने वाले लोग यहाँ अमरीकी हैट लगाए किसी पश्चिमी मुल्क से आए हैं, और इस बात से हतप्रभ हैं कि राजा का मंत्री उनसे भी घूस खा गया। दोनों ही प्रस्तुतियों में डिजाइन और अभिनय की अच्छी चमक थी और रोशनी, वस्त्रभूषा, स्टेज डिजाइन और दृश्य-तरकीबों की अच्छी योजनाएँ भी।
तीसरी आर्टिस्ट कंबाइन संस्था की प्रस्तुति ‘कहे ईसा सुने मूसा’ में स्टेज बिल्कुल खाली था। विजय मोडक निर्देशित विभु कुमार का ये नाटक किताबी ढंग से कुछ जरूरी बातें कहता है। उसके एक संवाद के मुताबिक ‘कोई कुछ सोच नहीं रहा है, पर लोग सोचने का ढोंग कर रहे हैं’। हर फेडआउट के बाद अभिनेताओं की टोली अलग-अलग वेशभूषा में आकर कभी अस्पताल का, कभी बस के भीतर का, कभी कॉलेज का दृश्य बनाती है। ऐसा वे थोड़ा-बहुत भंगिमाओं और ज्यादातर संवादों के जरिए करते हैं। नाटक में हकीकतबयानी की जो चमक शुरुआत में दिखती है वह थोड़ी देर बाद घटनाविहीन दोहरावों में बुझ जाती है। हालाँकि प्रस्तुति के सपाटपन के बावजूद अभिनेताओं की टीम अच्छी ऊर्जा के साथ मंच पर थी।
नाटकों के अलावा ‘रंगमंच में वैश्विकता बनाम स्थानीयता’ विषय पर दो दिवसीय एक सेमिनार का आयोजन भी किया गया। अन्य वक्तागण तो विषय से इधर-उधर की बातें ज्यादा करते रहे, पर रानावि निदेशक वामन केन्द्रे ने विषय पर कायम रहते हुए कहा कि कोई अभिव्यक्ति वैश्विक हो ही नहीं सकती (यानी वह मूलतः स्थानीय ही होती है)। और यह कि शेक्सपीयर को ब्रिटिश ने सोच-समझकर दुनियाभर में पहुँचाया, लेकिन शेक्सपीयर में दम था इसलिए वह टिक पाया, पर संस्कृत नाटक पश्चिम में क्यों नहीं पहुँचा! क्या हमने यह कोशिश की? नहीं की, इसलिए संभावना होते हुए भी हम स्थानिक रह गए। उन्होंने कहा कि वैश्विकता की राजनीति को समझने की आवश्यकता है और यह भी कि टेक्नालाजी इसमें किस तरह अपनी भूमिका अदा कर रही है। उन्होंने कहा कि अनुकरण का मतलब वैश्विक हो जाना नहीं है, जबकि हमारे यहाँ के तो फिल्म अवार्ड समारोह भी ऑस्कर की कॉपी मालूम देते हैं। वामन ने कहा कि हमें अपनी स्थानीयता को दूसरों के जरिए जानने की जरूरत नहीं है। वामन केन्द्रे से एक रोज पहले इस विषय पर बोलते हुए जो कुछ मैंने कहा उसका आशय यह था कि रंगमंच और हमारी सभ्यता का मूल स्वभाव ही स्थानीयता का है। रंगमंच का तो प्रारंभ ही स्थानीयता से होता है, और हमारी सभ्यता, जैसा कि अल बरूनी ने पाया था, अपनी स्थानीयता में प्रसन्न एक सभ्यता थी। इसीलिए भारतीयों को कभी बाहर जाने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। और यह कि सिनेमा मुनाफे की गरज से एक वैश्विक संवेदना की तलाश करता है। लेकिन जिस हॉलीवुड ने ये काम सबसे ज्यादा किया वही (दूसरी सभ्यताओं का मर्दन करके बना ‘विश्ववादी’) अमेरिका आज राष्ट्रवाद की स्थानीयता की ओर लौट रहा है। ऐसी ही कुछ और बातें।
समारोह में भोपाल से आए पत्रकार-बुद्धिजीवी गिरजा शंकर, दिल्ली से आए अजित राय, शिवकेश मिश्र, नागपुर से आईं रंगमंच की अध्यापिका संयुक्ता, जम्मू से आए नाट्य विशेषज्ञ मक्खनलाल सर्राफ, भोपाल से आए पत्रकार विकास शर्मा आदि ने भी अपनी-अपनी बातें रखीं। अच्छी बात यह थी कि यूनिवर्सिटी की कुलपति लवली शर्मा प्रायः सत्रों में उपस्थित थीं। सरकारी तंत्र वही होता है, पर अचानक किसी एक इंसान की ऊर्जा उसी तंत्र को कुछ ज्यादा गतिशील बना देती है। यही काम यहाँ योगेन्द्र चौबे ने अपने युवा साथी हिमांशु द्विवेदी के सहयोग से किया। लगता है आने वाले दिनों में थिएटर के परिदृश्य में ग्वालियर एक अहम मुकाम बनने वाला है।
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