भारतीय रंगमंच की यह चौथाई सदी

 कला-संस्कृति के क्षेत्र में बदलाव अक्सर नामालूम तरह से घटित होते हैं। वे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक बदलावों की अनुगूँज के रूप में सामने आते हैं। ये परिवर्तन हमेशा यूरोपीय रेनेसाँ की तरह नहीं हो सकते, जब नए यथार्थबोध से लैस कलादृष्टियाँ सर्वांगीण बदलाव की युगांतरकारी प्रक्रिया में बराबर के दर्जे से शामिल थीं। हमारे यहाँ भी एक रेनेसाँ 19वीं सदी के बंगाल और महाराष्ट्र में घटित हुआ था, जब समाज की हीन नागरिक समझी जाने वाली तवायफों को पहली बार स्टेज कलाकार की इज्जत मिली। बहरहाल, इस परिप्रेक्ष्य में अपना चौथाई हिस्सा गुजार चुकी इस सदी के रंगमंच में आए बदलावों को समझना इतना आसान नहीं है, जब टेक्नालाजी और वैश्विक पूँजी ने एक छोटे से वक्फे में जीवन की मूलभूत मान्यताओं की नींव को ही हिला दिया है। फर्क कर पाना मुश्किल है कि रंगमंच अपनी केंचुल बदल रहा है या अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। इस फर्क को समझ पाना यूँ तो एक बड़ी रिसर्च का विषय है, पर यहाँ संक्षेप में उन परिघटनाओं, ईवेंट्स और प्रभावों को पहचानने की कोशिश की गई है जिनसे इन परिवर्तनों और परिवर्तनों की प्रवृत्तियों को चिह्नित किया जा सके।        

भारत रंग महोत्सव का असर

नई सदी शुरू होने के ठीक पहले सन 1999 में भारत रंग महोत्सव का शुरू होना भारतीय रंगमंच के लिए एक बड़ी घटना थी, जिसने आगामी वर्षों में भारतीय रंगमंच को एक नई स्फूर्ति दी। इसने किसी अर्थ में भारतीय रंगमंच को एक केंद्रीयता दी। देश भर के रंगकर्म को एक मुकाम मिला जिससे भारतीय रंगमंच और उसके बदलते स्वरूप को पहचाना जा सकता था। नई सदी में इसने रंगमंच में कई बहसों, आरोप-प्रत्यारोपों, रंग-ठीहों के गॉसिप आदि को जन्म देने के साथ-साथ कई रंग-प्रयोगों के लिए जगह बनाई, इसीके कारण पहली बार दूर-दराज के साधनहीन ग्रुपों से जुड़े रंगकर्मियों को ट्रेन के थर्ड एसी कोच में यात्रा की सुविधा मुहैया हुई।

भारंगम के कारण भारतीय दर्शकों को नियमित रूप से विदेशी प्रस्तुतियाँ देखने को मिलीं, जिसने कहीं-न-कहीं रंगकर्मियों की दृष्टि के रचनात्मक फलक में इजाफा किया। पिछले ढाई दशकों में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से आए नाटक भारंगम में मंचित हुए हैं। इनकी मार्फत अलग-अलग व्याकरणों और संवेदना-रूपों को लोगों ने जाना है। यूरोपीय नाटक हमेशा बन गए ढाँचे को तोड़ने की कोशिश में रहते हैं। एशियाई नाटक किसी भी देश का हो भारतीय जैसा ही लगता है। यूरोपीय नाटक को कहानी से सख्त परहेज है, लेकिन एशियाई का काम बगैर कहानी के हो ही नहीं सकता। चीनी नाटक मंच पर किसी भी तरह की अतिरिक्त आलंकारिकता से परहेज करते हैं, और उनका प्रयोग बात को कहने के तरीके को चुस्त बनाने में ही घटित होता है। जापानी नाटक यूरोप की तरह ढर्रे को तोड़ता है, पर नए किस्म के एब्सर्ड ढाँचे ढूँढ़ता है। अमेरिका का ब्रॉडवे भले ही पूरी दुनिया में कमर्शियल थिएटर का शीर्ष हो, लेकिन कमर्शियल से अलहदा वहाँ का थिएटर कभी कोई वैसा बड़ा प्रभाव नहीं छोड़ पाया जैसा कि उदाहरण के लिए सन 2012 में पोलिश प्रस्तुति 'इन द नेम ऑफ जैकुब स्जेला' का याद पड़ता है। प्रस्तुति में कोई कहानी नहीं है, लेकिन कहानी के सारे लक्षण हैं : रोना-बिसूरना, प्यार-झगड़ा, गुस्सा, कलह, भावुकता, आवेग, वगैरह। प्रस्तुति बहुत सारी यथार्थ और एब्सर्ड स्थितियों को समेटे हुए है। इसमें आकस्मिकता भी है और ह्यूमर भी। जैकुब स्जेला उन्नीसवीं शताब्दी का किसान विद्रोही था, जिसने पड़ोसी देश आस्ट्रिया की मदद से पोलैंड के ताल्लुकेदारों के खिलाफ रक्तरंजित विद्रोह किया था। लेकिन जैसा कि शीर्षक से भी जाहिर है, प्रस्तुति का उसके किरदार से कोई लेना-देना नहीं है। यह उसके नाम के बहाने इंप्रेशनिज्म का एक प्रयोग थी। पूरे मंच पर 'बर्फ' फैली हुई है। बिजली या टेलीफोन के खंबे लगे हुए हैं। पीछे की ओर टूटे फर्नीचर वगैरह का कबाड़ पड़ा है। दाहिने सिरे पर एक कमरा है जो नीचे की ओर धंसा हुआ है। पात्र उसमें जाते ही किसी गहरे की ओर फिसलने लगते हैं। मंच के दाहिने हिस्से के फैलाव में पड़ा गाढ़े लाल रंग का परदा है, जो बर्फ की सफेदी में और ज्यादा सुर्ख लगता है। यह घर से ज्यादा घर के पिछवाड़े जैसी जगह है। बर्फ पर एक सोफा रखा है, और एक मेज। एक मौके पर एक पात्र बेहद तेजी से कुछ बोल रहा है। वहीं मौजूद लड़की गुस्से में दृश्य के पीछे की ओर जाकर एक मोटा डंडा उठा लाई है, और गुस्से में पूरे प्रेक्षागृह में घूम-घूम कर किसी को ढूंढ़ रही है। वह इतने गुस्से में है कि पास बैठे दर्शक थोड़ा सतर्क हो उठते हैं। लड़की के पीछे पीछे पुरुष पात्र भी चला आया है। वह दर्शकों से उनका पैसा मांग रहा है। कुछ दर्शक उसे कुछ नोट देते हैं। फिर वह वहां बैठे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छायाकार त्यागराजन से उनका कैमरा मांगता है। वे कैमरा नहीं देते तो कैमरे का स्टैंड लेकर वह मंच पर चला जाता है। इसके थोड़ी देर बाद गुस्से वाली लड़की आंसुओं से लबालब भरी आंखों के साथ कोई कहानी बता रही है।

कालांतर में भारंगम शिवजी की बारात बना। उसमें देशभर में चल रहे तरह-तरह के रंगमंच के नुमाइंदे आगे-पीछे जगह पाते रहे। शुरुआती वर्षों से लेकर आज तक जो आरोप भारंगम पर सबसे ज्यादा लगाया जाता है वह है अपनों को रेवड़ियाँ बाँटने का। आधी वास्तविकता और आधे अनुमानों पर टिका यह आरोप जिस मूल दुष्प्रवृत्ति को इंगित करता है वह यह कि भारंगम ने भारतीय रंगमंच में अपना ही एक वर्गभेद बनाया है। यूँ तो सरकारी पैसा योग्यता के टकसाली पैमानों की मनमुताबिक व्याख्याओं के कारण फितरतन कई तरह की ऊँच-नीच पैदा करता है, किंतु भारंगम के संदर्भ में हर रानावि निदेशक का स्वभाव और रंग-ढंग इसमें एक अलहदा लक्षण के रूप में नत्थी रहता रहा है। उदाहरण के लिए अपने वक्त में रामगोपाल बजाज कंधे पर अंगौछा डाले रवीन्द्र भवन के सामने से गुजरते मिल सकते थे, लेकिन देवेन्द्रराज अंकुर और उनके परवर्ती निदेशकों को रानावि से श्रीराम सेंटर भी बगैर कार के जाते शायद ही किसी ने देखा हो। बीच में तो ऐसा भी हुआ कि प्रेस कान्फ्रेंस से लेकर मुद्रित सामग्री और उद्घाटन वक्तव्य तक अंग्रेजी का बोलबाला था, और यहाँ तक कि भारत रंग महोत्सव का नाम भी बदलकर थिएटर उत्सवकर दिया गया था। उस दौर की एक प्रमुख प्रवृत्ति उत्सव में प्रयोगोंका बढ़ जाना थी। जो भी हो, थिएटर के विशिष्टों को रानावि की सत्ता बदलने से कोई खास फर्क पड़ा हो ऐसा नहीं दिखता। नांदिकार का सेनगुप्ता परिवार, नीलम मानसिंह चौधरी, पाकिस्तान की मदीहा गौहर आदि इस तबके के कुछ चर्चित नाम रहे हैं, जिनकी नाट्य प्रस्तुतियों के अलावा सेमिनारों वगैरह में भी उनकी भागीदारी एक अपेक्षित सा तथ्य रहा है। वक्त के अनुसार नए-नए नाम इन विशिष्टों में जुड़ते रहते हैं।

पूरी दुनिया किसी तईँ एक सी भी है, और किसी तईँ बहुत अलग-अलग भी। पश्चिम की देहभाषा देह से बरी हो चुके समाज की भाषा है, जबकि पूरब के लिए देह आज भी सौंदर्य और कौतूहल का विषय है। भारंगम यह भी बताता रहा है कि पुराने ग्रीक किरदार और शेक्सपीयर के नाटक पूरी दुनिया में खेले जाते हैं, और यह भी कि भारत जैसे देश में कैसे परंपरा और लय का सतत अनुसंधान चला करता है। करीब दस साल पहले केएन पणिक्कर निर्देशित उस साल के भारंगम की उदघाटन-प्रस्तुति छाया शाकुंतलको इस संदर्भ में याद कर सकते हैं। जिस तरह पश्चिम में पुराने ग्रीक नाटकों को पुनर्संयोजित करके चुस्त बनाया गया है वैसी कोई आवश्यकता अपने यहाँ महसूस नहीं की जाती। परंपरा यहाँ प्राचीनता को अक्षुण्णता में ही देखती है। संस्कृत नाटकों में आज भी छोटी-छोटी स्थितियाँ देर-देर तक मंथर फैलाव में चलती रहती हैं। वहाँ हाथों का लहराया जाना है; नेत्रों की चतुर-चपल-कारुणिक भंगिमाएँ हैं; सखियों की मधुर ठिठोली और नायिका की सलज्ज मुद्राएँ हैं;  रौद्र रस वाले दुर्वासा और विशाल दाढ़ी वाले कण्व ऋषि हैं।

इस सदी में भारंगम थिएटर के एक बहुविध ठिकाने के बतौर विकसित हुआ है। ऊपर उद्धृत चंद उदाहरणों से उसे पूरा नहीं जाना जा सकता। वह कितनी ही लोक शैलियों, कितने ही रंग प्रयोगों, कितने ही श्रेष्ठ और कितने ही श्रेष्ठ के नाम पर छद्म का एक सालाना जलसा है। उसके आयोजन में कई करोड़ की रकम खर्च होती है। यह रकम बहुतेरे लाभान्वितों और असंतुष्टों को पैदा करती है। मंचित किए जाने वाले नाटकों के चयन की एक लंबी प्रक्रिया है, जो कई महीने चलती है और हमेशा ही पारदर्शिता के दावे और मनमानेपन की शिकायतों का कारण होती है। यह सही है कि निदेशकों की अपनी वरीयताएँ और स्वेच्छाचारिता होती है, लेकिन वहीं यह भी मुमकिन है कि बनाई गई चयन समिति का कोई सदस्य भाई-भतीजावाद करे, और उसका लांछन भी निदेशक को ढोना पड़े।

नई अर्थव्यवस्था का प्रभाव

यह तो हुई भारंगम की बात जो साल में एक बार मुख्यतः दिल्ली और साथ-साथ कुछ अन्य शहरों में आयोजित होता है। लेकिन इससे इतर रंगमंच में भी पिछले करीब ढाई दशकों में काफी परिवर्तन आए हैं। नई अर्थव्यवस्था में प्रेक्षागृहों के किराए बढ़ते जाने से गंभीर और प्रयोगशील प्रस्तुतियों का स्पेस क्रमशः कम होता गया। वैसे में रंगकर्मियों ने दूरदराज ही सही नए-नए स्पेस ढूँढ़ निकाले। लेकिन इन नए स्पेसों के साथ कुछ दिक्कतें जुड़ी हुई थीं। पहली, कि हर नया स्पेस थोड़ा लोकप्रिय होते ही महँगा होने लगता है; दूसरी, कई बार ऐसी जगहें मुहैया कराने वाली संस्थाएँ चैरिटेबल होने या ऐसी ही अन्य तकनीकी बंदिशों के कारण टिकट बेचने की इजाजत नहीं देतीं, मसलन, दिल्ली का मुक्तधारा थिएटर; तीसरी, अक्सर ऐसी जगहें लाइट्स और ध्वनि व्यवस्था जैसी रंगमंचीय सुविधाओं से या तो विहीन होती हैं या ये सब वहाँ बहुत ही कामचलाऊ या नहीं के बराबर होती हैं। फिर भी रंगकर्मियों के जज्बे से ऐसी जगहों में थिएटर हो रहा है।

थिएटर हो रहा है इसे हम सकारात्मक तरह से ले सकते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया ने कुछ नए तौर-तरीकों को भी जन्म दिया है। मसलन, रंगमंच अब एक गंभीर गतिविधि से ज्यादा एक फेस्टिव ईवेंट हो गया है। वह पिन ड्रॉप खामोशी जिसमें हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ मंच पर घटित हो रहे को गहराई से आत्मसात करती हैं धीरे-धीरे एक दुर्लभ चीज होती जा रही है और तालियों का शोर बढ़ गया है। कई बार तब और भी अचरज होता है जब रंगकर्मीगण भी गैरजरूरी तालियों पर गदगद हुए रहते हैं। सारतः इसका अर्थ है कि गुणवत्ता का पहलू गौण हुआ है।

हिंदी रंगमंच में अधिकतर प्रस्तुतियाँ निशुल्क होती हैं। निशुल्क क्यों होती हैं इसके बहुत से कारण हैं, जिनमें रंगकर्मियों द्वारा टिकट न खरीदने की संस्कृति के अक्सर लगाए जाने वाले आरोप को भी शामिल कर लें तो यह शायद अर्थव्यवस्था का एक दुष्चक्र है। रंगकर्मी निशुल्क थिएटर सरकारी ग्रांट की मदद से कर पाते हैं। यह ग्रांट सरकार की संस्कृति नीति के तहत कलाओं के संरक्षण के लिए दी जाती है। इससे साबित होता है कि ग्रांट कलाओं को जिलाए तो रख सकती है पर उन्हें ऊर्जावान बनाए नहीं रख सकती। पिछली सदी तक ऐसा नहीं था। 10 रुपए का टिकट और 300 रुपए में प्रेक्षागृह के समीकरण के साथ छोटे ग्रुप भी अपनी प्रस्तुति के पाँच-छह शो एक साथ करते थे। टिकट सिर्फ रंगमंच के अर्थशास्त्र का एक अहम पहलू नहीं है, बल्कि वह प्रस्तुति के पूरे संवेदनतंत्र को निर्धारित करता है। टिकट खरीदने वाले दर्शक का मतलब है एक गंभीर दर्शक। ऐसा दर्शक जो एक निश्चित अभिरुचि के कारण नाटक देखने आया है। ऐसा दर्शक जो निर्देशक के काम को पहचानता है। जिस तरह हबीब तनवीर, जिस तरह रंजीत कपूर, जिस तरह राजेन्द्र नाथ नब्बे के दशक तक पहचाने जाते थे वह स्थिति अब नहीं है। संवेदनात्मक गुणवत्ता कम हुई है, औत्सविकता प्रधान हो गई है।

कमर्शियल थिएटर का परिदृश्य

एमेच्योर या मुख्यधारा के थिएटर के बरक्स कमर्शियल थिएटर का बड़े पैमाने पर उदय भी पिछले दो ढाई दशकों की एक अहम घटना है। बहुत बड़े निवेश से होने वाले ऐसे नाटकों को पूरी तरह नई चीज तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन निवेश और पूँजी के आधार पर न सिर्फ उनमें भी अब कई वर्ग बन गए हैं बल्कि उनका इतना विस्तार भी हुआ है कि कई सिने कलाकारों की ख्याति और ग्लैमर का एडजस्टमेंट भी वहाँ संभव हुआ है। लेकिन इस तरह का थिएटर पूरी तरह महानगरों की चीज है जहाँ सुविधासंपन्न बड़े ऑडिटोरियम और 2000 से 5000 हजार तक का टिकट ले सकने वाले दर्शक उपलब्ध हैं। एक वक्त था जब आमिर रजा हुसैन आजादी के इतिहास और पुराने वक्त के राष्ट्रीय गौरव से जुड़े विषयों पर बड़ी-बड़ी प्रस्तुतियाँ मंचित किया करते थे, जिसके लिए एक बार उन्होंने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के पास एक घूमने वाला स्टेज भी बनाया था। इसी तरह शिवाजी के जीवन पर भव्य मराठी प्रस्तुति जान्ता राजाभी काफी अरसे से खेली जाती रही है। इस सदी में जब बड़ी पूँजी तुलनात्मक रूप से एक आसान चीज हो गई तो ऐसी प्रस्तुतियों की तादाद बढ़ गई है। फिरोज अब्बास खान की मुगले आजम कई करोड़ के खर्चे से तैयार की गई प्रस्तुति थी। ऐसे ही बॉम्बे थिएटर कंपनी कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रस्तुतियाँ लगातार करती रहती है। इन प्रस्तुतियों ने मुख्यधारा के रंगमंच के फ्रेम से बाहर आकर कई लोकप्रिय तत्त्वों का समावेश अपनी प्रस्तुतियों में किया है। सस्पेंस प्रस्तुतियों में स्टेज पर थ्रिल पैदा करके दर्शकों में सिहरन पैदा करना आदि जिनमें शामिल है। कई मुख्यधारा का रंगमंच करने वाले लोग भी बाद में ऐसी महँगी प्रस्तुतियों की ओर मुखातिब हुए, जैसे कि अतुल सत्य कौशिक और मनीष जोशी, जिन्होंने अपनी नाट्य प्रस्तुतियों की इकॉनॉमी में लोकप्रियता के तकाजों और भव्य चमक-दमक को शामिल किया।  

हालाँकि उपरोक्त मेगा प्रस्तुतियों के समांतर दिल्ली सरकार ने भी कई-कई करोड़ रुपए की लागत से अंधा युग, तुगलक और अंबेडकर के जीवन पर प्रस्तुतियाँ कराई हैं, लेकिन बावजूद बड़े रंगकर्मियों की शिरकत के उन्हें एक सरकारी ईवेंट से ज्यादा तवज्जो देना गलत होगा, क्यों एक मेगा ईवेंट के अलावा रंगमंच की तरक्की की कोई दृष्टि उनमें दिखाई नहीं देती। उस लिहाज से इस श्रेणी का का सबसे व्यवस्थित और महँगा उपक्रम दिल्ली के गुड़गाँव में किंग्डम ऑफ ड्रीम्स नाम से भी सामने आया था। जिसने भारीभरकम तकनीकी चमत्कारों से युक्त थिएटर नुमा राजा-रानी की कहानी की परफॉर्मेंस को एक बहुत बड़े धंधे में तब्दील किया। इसे हालाँकि रंगमंच की श्रेणी में रखना उचित नहीं होगा, बावजूद इसके कि यहाँ रंगमंच में सक्रिय बहुत से लोगों को रोजगार मिला।

नाट्य उत्सवों की दुनिया

एक वक्त था जब नाट्य उत्सव प्रायः सरकारी संस्थाओं का काम समझा जाता था। लेकिन पिछले दो-ढाई दशकों में अलग-अलग शहरों में निजी संस्थाओं द्वारा नाट्य उत्सवों के आयोजन ने देश में एक थिएटर फ्रेटरनिटी या रंग बंधुत्व को पैदा किया है। जम्मू और अमृतसर से लेकर कोलकाता, जबलपुर, उज्जैन, बड़ौदा, भोपाल, दमोह, जयपुर, पटना, बेगूसराय, आजमगढ़, लखनऊ तक हर दूसरे शहर की निजी संस्थाएँ थिएटर फेस्टिवल कर रही हैं। ये उत्सव आधुनिक रंगमंच को आम लोगों के बीच तक ले गए हैं, जो कि पहले बड़े शहरों के एक बौद्धिक एलीट की चीज हुआ करता था। और गाँव-कस्बों के लोगों का मनोरंजन नौटंकी और लौंडा नाच जैसे पारंपरिक भदेस रूप किया करते थे।

थिएटर प्रशिक्षण

इस सदी में थिएटर प्रशिक्षण जितना फला-फूला है उसका कोई प्रत्यक्ष कारण दिखाई नहीं देता। क्योंकि उसीके बरक्स थिएटर का कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर महानगरों तक में नहीं है। इन्फ्रास्ट्रक्चर के बगैर रंग-प्रशिक्षण भला आजीविका का माध्यम कैसे बन सकता है? लेकिन नई सदी में एनएसडी की शाखाएँ, मध्यप्रदेश ड्रामा स्कूल, और कई विश्वविद्यालयों में नाट्य विभाग खुलने के अलावा बड़े पैमाने पर प्राइवेट इंस्टीट्यूट्स और निजी उपक्रमों के रूप में भी नाट्य प्रशिक्षण की संस्थाएँ सामने आई हैं। भले ही उस पैमाने पर रंगकर्म देश में न हो रहा हो, लेकिन इन संस्थाओं के फलने-फूलने की कुछ परोक्ष वजहें जरूर हैं। एक कारण है कि परफार्मिंग आर्ट्स को अब सिर्फ एक स्किल के रूप में नहीं देखा जाता, बल्कि उन्हें व्यक्तित्व निर्माण का एक हिस्सा भी माना जाता है। इसके अलावा थिएटर के मामले में प्रशिक्षण की सामूहिकता प्रदर्शन की सामूहिकता की एक प्रतिध्वनि की तरह हो जाती है। बहुत से लोग रंगमंच को सिनेमा में जाने की एक प्रारंभिक सीढ़ी मानते रहे हैं, किंतु धीरे-धीरे प्रतिस्पर्धा इतनी ज्यादा होती गई है कि रंगमंच की किसी प्रस्तुति में कोई भूमिका हासिल करना भी आसान नहीं रहा। ऐसे में रंग-प्रशिक्षण की ये संस्थाएँ एक ओर युवाओं की आकांक्षा को और दूसरी ओर साधनों और प्रत्याशियों के दरम्यान के असंतुलन को दर्शाती हैं। 

मेटा थिएटर अवार्ड्स

न्यूयॉर्क के ब्राडवे में दिए जाने वाले टोनी अवार्ड्स की तरह भारत में भी महिंद्रा उद्योग समूह द्वारा 19 साल पहले इन अवार्ड्स की शुरुआत की गई। पुरस्कार में 13 केटैगरी हैं, जिनके लिए हर साल देश भर से नाटकों की वीडियो कॉपी आमंत्रित की जाती हैं, और चयन के बाद दिल्ली में आयोजित अवार्ड समारोह में धूमधाम से पुरस्कार दिए जाते हैं। यद्यपि ये अवार्ड एक कारपोरेट समूह द्वारा दिए जाते हैं, और यद्यपि भाषा से लेकर तौर तरीकों तक में वैसा ही एक उच्चभ्रू कलेवर और फ्लेवर इसमें मौजूद रहता है, लेकिन इसके बावजूद ये अवार्ड दूरदराज के जमीन से जुड़े रंगकर्मियों को अक्सर दिए गए हैं। इस बार भी असम की प्रस्तुति रघुनाथ को कुल 13 में से 6 श्रेणियों में यह अवार्ड दिया गया। मेटा अवार्ड रंगमंच जैसे गैर मुनाफे वाली विधा में कारपोरेट की रुचि का द्योतक जरूर है, लेकिन इस रुचि का सबब क्या है? क्या इसे छोटे स्तर की चैरिटी समझा जाए? जो भी हो, वृहत्तर राष्ट्रीय परिदृश्य में मेटा भी भारंगम की तरह थिएटर का केंद्रीकृत स्वरूप बनाने वाला इस सदी का एक महत्त्वपूर्ण उपक्रम है।

विहगावलोकन    

हिंदुस्तानी थिएटर में जो नाटक आज से 30-40-50 साल पहले खेले जाते थे आज भी वही नाटक खेले जा रहे हैं। हिंदी में 1990 के आसपास पहली बार खेला गया कोर्ट मार्शल शायद आखिरी नाटक था जिसे आधुनिक क्लासिक में शुमार किया जा सकता है। इनके अलावा रंगकर्मी जब कुछ नया करते हैं तो वह या तो अनुवाद होता है या रूपांतरण, या कोई ऐसी हल्की-फुल्की कहानी जिसे किसी मंचीय शैली में बाँधा जा सके; या हल्की-फुल्की कॉमेडी, किसी सामाजिक समस्या को उठाता कोई ऐसा ही कथानक आदि। क्या गहरी आंतरिक व्याप्ति वाले सुगठित नाटकों का वक्त उसी तरह बीत चुका है जैसे कि महानताएँ बीत चुकी हैं। पश्चिमी सभ्यता से चलकर आई उत्तरआधुनिकता ने भारतीय यथार्थ के स्वरूप को कुछ इस तरह बदला है कि इसकी सारी समस्याएँ मानो निजी हो चुकी हैं। एक ऐसा समाज जहाँ व्यक्तिपरकता हमेशा ही मुख्य रही हो वहाँ की भसड़ को इसने मानो एक मुकम्मल अंजाम तक पहुँचा दिया है। ज्यादातर प्रस्तुतियाँ जो तैयार होती हैं वे 1,2 या पाँच शो तक बमुश्किल पहुँच पाती हैं। चूँकि लोकप्रियता कोई पैमाना नहीं है लिहाजा अधिक प्रदर्शन इस बात पर निर्भर करते हैं कि आपका पब्लिक रिलेशन कैसा है। मुख्यधारा के थिएटर में यही स्वांतःसुखाय प्रक्रिया बहुधा चलन में है, किंतु कमर्शियल थिएटर ने इसे तोड़ा है। थिएटर में फाइनांस के सिस्टम को समझने वाले कई महत्त्वाकांक्षी रंगकर्मियों ने हालाँकि ब्राडवे जैसे मॉडल को दिमाग में रखकर कई बड़े प्रोजेक्टों को अंजाम दिया है, पर फिर भी ब्राडवे की तरह दस-दस साल निरंतर चलने वाली प्रस्तुतियों के बरक्स लगातार एक महीना भी किसी प्रस्तुति के प्रदर्शन चलने की बात अभी तक सुनने में नहीं आई।

अभिनय एवं निर्देशन की गुणवत्ता

आज की तारीख में किसी प्रस्तुति की गुणवत्ता में सबसे अहम तत्त्व साधनों की उपलब्धता का है। इसी तरह फेम अथवा प्रसिद्धि आत्मिक संतोष से बड़ी चीज होती गई है, और स्किल यानी कला का हुनर उसके पैशन से ज्यादा प्रधान हो गया है। दूसरे शब्दों में प्रबंधन ने कलाकार के भीतरी आवेग को अपने हाथों में ले लिया है। आज यह काफी संभव हो गया है कि कोई साधारण कलाकार किसी कुशल निर्देशक के अधीन काफी अच्छा अभिनय कर ले। यह भी संभव है कि कोई दर्शक किसी बेकार प्रस्तुति को अतिउत्तम करार दे दे। ये सब्जेक्टिव रिस्पॉन्स इस सदी में ज्यादा गाढ़े हुए हैं। क्योंकि उत्तरआधुनिकता में वृहत्तर यथार्थ को खुद के खास और निजी यथार्थ के छोर से समझा जाता है।

      

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