उसूलों वाले रंजीत कपूर

महफिल सज चुकी है। गिलासें शराब डाले जाने का इंतजार कर रही हैं। रंजीत जी बिस्तर पर तकिया का टेक लिए बैठे हैं। अभी कुछ देर पहले गेस्ट हाउस में उनके कमरे में पहुँचे हम प्रायः एक श्रोता की भूमिका में हैं। वे बताते हैं कि उन्होंने अब दिल्ली में ही रहने का तय कर लिया है, और सिनेमा छोड़कर अब वे पूरी तरह थिएटर ही करेंगे। सिनेमा में बहुत सी प्रसिद्ध और सफल फिल्मों के पटकथा-लेखक होने और बतौर निर्देशक चिंटूजी बनाने के बाद उनका मन अब वहाँ नहीं लग रहा। सिनेमा की भीड़ में इतने साल खर्च करने के बाद भी कुछ है जो उन्हें रास नहीं आया। थोड़ा भावातिरेक में वे कहते हैं- थिएटर में मुझे इतना प्यार मिला है, इसलिए मैं अब पूरी तरह इसी में वापसी कर रहा हूँ। यही मेरी अपनी जगह है। मुझे याद आता है कि करीब साल भर पहले जब उन्हें संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार मिला था, जो कि उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था, तो उन्होंने फोन पर पूछा था कि क्या उन्हें यह पुरस्कार लेना चाहिए, तो मैंने पुरस्कार की रकम जानने के बाद कहा था कि उन्हें यह ले लेना चाहिए। जानने वाले जानते हैं कि रंजीत कपूर के खाते में न वाजिब पुरस्कार हैं, न विदेश यात्राएँ; मध्यप्रदेश सरकार का कालिदास सम्मान उन्हें अब तक नहीं मिला है- लेकिन चालू मुहावरे में कहें तो वे हिंदी के एकमात्र नाट्य निर्देशक हैं जिनका नाम बिकता है। उनका नाम थिएटर के हाउसफुल होने की गारंटी है। कितने ही दर्शक हैं जिन्होंने उनका एक ही नाटक दर्जनों बार देखा है। वही रंजीत कपूर हमारे सामने बैठे मोबाइल पर किसी से बात कर रहे हैं। ....पेग इस बीच बन चुके हैं और चीयर्स के साथ सबने गिलास उठा लिए हैं। एक दोस्त गिलास को उठाकर उसे वहीं रखे स्टूल पर रखने जा रहे हैं। रंजीत जी टोकते हैं- चीयर्स का उसूल है कि गिलास उठा लिया है तो पहले उसका सिप लो, तभी उसे रखो!
रंजीत कपूर उसूलों वाले आदमी हैं। हालाँकि बहुत से लोगों की राय उनके बारे में इससे ठीक उलटी भी है। कि वे बोहेमियन और अविश्वसनीय हैं, कि पैसा लेकर भूल जाना उनकी फितरत में है, कि वादाखिलाफी और कहीं टिककर न रहना उनके स्वभाव में है, कि वे जरूरत से ज्यादा मूडी हैं,वगैरह। लेकिन ऐसी चर्चाओं के संदर्भ में मुझे रंजीत कपूर से कई दर्जा आगे के बोहमियन रहे हिंदी के एकांकीकार भुवनेश्वर के बारे में कवि शमशेर बहादुर सिंह द्वारा एक इंटरव्यू में बताया गया एक वाकया याद आता है। अपनी ऊटपटांग आदतों के लिए मशहूर भुवनेश्वर उन दिनों शमशेर के यहाँ इलाहाबाद में ही रहा करते थे। शमशेर जी कोई औसत गुजारे लायक नौकरी किया करते थे। उन्होंने बताया- एक बार मैंने देखा कि हर दूसरे-तीसरे दिन जेब में 6 पैसे कम हो रहे हैं। मैं समझ गया कि ये पैसे कम क्यों हो रहे हैं और कौन ले रहा है। हमेशा एक फिक्स एमाउंट से ज्यादा कभी कम नहीं हुआ। मैं जानता था कि भाँग की पुड़िया कम से कम 6 पैसे की मिलती है और भुवनेश्वर को उतने पैसे की जरूरत होती थी। .... उस व्यक्ति ने उतने ही लिए। मैंने वहीं उन्हें प्रणाम किया कि उसने उतना ही लिया....मिनिमम, जितने की उसकी जरूरत थी। इस इंटरव्यू में शमशेर जी बार-बार कहते हैं-भुवनेश्वर टूटे और गिरे, लेकिन अपनी डिग्निटी नहीं जाने दी। भुवनेश्वर के किरदार के बारे में थोड़ा-बहुत भी जानने वालों को उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष के प्रति शमशेर जी का यह इसरार थोड़ा अजीब याकि दिलचस्प लग सकता है, क्योंकि उनका जीवन प्रत्यक्षतः डिग्निटी के नियमों की बिल्कुल परवाह न करने वाला रहा है। लेकिन देखा गया है कि सच ठीक वैसा ही नहीं होता जैसा दिखता है, और ठीक यही बात रंजीत कपूर के बारे में भी लागू होती है। जब वे कहते हैं कि यह पैसा मैं कल ही लौटा दूँगा तो वास्तव में उनका इरादा उसे कल ही लौटा देने का होता है। लेकिन हकीकत में ऐसा अगर नहीं हो पाता तो इसकी वजह उनकी शख्सियत की वो शै है जो आभासों को असलियत की तरह बरतना चाहती है। रंजीत कपूर एक सच्चे गैरदुनियादार हैं। एक गैरदुनियादार संकल्पनावादी। उनके जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे उन्हें छुपाने की जरूरत पड़ती हो। चाहे वह उनकी एक से अधिक शादियों का मामला ही क्यों न हो। यही वजह है कि एक ऐसे वक्त में जब यथार्थ के दोटूक पन ने संकल्पनाओं को नष्ट कर दिया होजब ईएमआई का प्रबंधन ही जीवन की सफलता का पैमाना होऔर जीवन जीवन को बचाए रखने के लिए ही जिए जा रहे होंतब ये रंजीत कपूर ही हैं जो संसार को और संबंधों को एक क्लासिक आभा में देख पाते हैं; जहाँ जिंदगी जीने की एक नफासत हैऔर जहाँ समकालीन यथार्थ के टुच्चेपन से परे अपने भीतर के अँधेरे और उजाले की तनहाई में टहलते पात्र दिखाई देते हैं। सही है कि उनकी यही गैरदुनियादारी उन्हें बहुत-सी आत्म-छलनाओं में फँसाए रखती है, लेकिन यही वो चीज भी है जो उन्हें प्रेक्षागृह के मंच पर एक अपनी ही दुनिया रचने का लाजवाब हुनर देती है, जहाँ से वे हम रहें न हमसब ठाठ पड़ा रह जाएगा और आंटियों का तहखाना जैसी दुनियाएँ रचते हैं।
शराब के साथ बातचीत चल रही है कि दरवाजा खुलता है और एक शख्स नमूदार होता है। यह रंगकर्मी विजय शुक्ला हैं, जिनके बारे में उनके आने से पहले रंजीत कपूर हमें बता रहे थे। विजय शुक्ला हिंदी रंगमंच के सबसे प्रतिभाशाली चंद अभिनेताओं में से रहे हैं, पर कोई वजह रही कि बाद में उनका दिखना बंद हो गया। उन्हें बहुत पहले चेखव की दुनिया के बिल्कुल शुरुआती प्रदर्शनों में देखा था। यह नाटक अमेरिकी नाटककार नील साइमन द्वारा एंटन चेखव की आठ कहानियों को लेकर तैयार किया गया है। ये सिर्फ चंद कहानियाँ नहीं हैं, बल्कि जीवन की वक्रोक्तियों, उसकी विडंबनाओं; वहाँ बनी रहने वाली बेआवाज टकराहटों, और तरह-तरह के नमूने पात्रों का एक संयोजन है। कहानियों की आंतरिक चेखवीयन व्यापकता को अक्षुण्ण रखते हुए ऐसा रोचक प्रस्तुति विधान रंजीत कपूर ही कर सकते हैं, जैसा उन्होंने इस प्रस्तुति में किया था। लेकिन यह भी है कि इस प्रस्तुति में सबसे ज्यादा जो याद रहता है वह है विजय शुक्ला का अभिनय। प्रस्तुति का सूत्रधार और एक कहानी में अपने ही दोस्त की बीवी पर डोरे डालता फ्लर्ट- जिसके पास एक नायाब आत्मविश्वास है और जिसे एक दिलचस्प मायूसी से होकर गुजरना पड़ता है। बाद में इस नाटक की अलग-अलग ग्रुपों द्वारा तैयार कई प्रस्तुतियाँ देखीं, पर कोई भी उस पहली प्रस्तुति के करीब भी नहीं पहुँच पाई।.... तो यही विजय शुक्ला कमरे में प्रकट हुए हैं। आधे-एक घंटे बाद उनकी कोई ट्रेन है, और वे रंजीत भाई के दिल्ली में होने की खबर सुनकर महज उनसे मिलने चले आए हैं। कल हिमाचल में उनकी कोई शूटिंग है, जहाँ उनका पहुँचना बहुत जरूरी है, और बस एक पेग लेकर वे निकल जाएँगे- ऐसा उन्होंने बताया। आनन-फानन में कमरे में उनके बैठने की भी जगह बनाई गई। बाकी लोग अब तक दो या तीन पेग के बाद सुरूर में हैं। समय का संज्ञान शिथिल होता जा रहा है। रंजीत जी ने कहीं से कुछ पन्ने निकाले हैं जिनमें कुछ ऐसे अशआर नोट हैं, जिनके कहने वालों की कोई पहचान नहीं है, पर उनकी कहन में कोई ऐसी नजाकत या अनूठापन है कि सब वाह-वाह कहने लगते हैं। सिगरेट के धुएँ और शराब की महक से भरे कमरे में मुझे कृष्णकल्पित की शराबी की सूक्तियाँ की पंक्ति याद आती है –सोचता है बढ़ई/ काश आरी से चीरी जा सकती शराब’; ‘सोचता है जुलहा/काश करघे पर बुनी जा सकती शराब। विजय शुक्ला इस बीच बैठने से पसरने की मुद्रा में आ गए हैं। वे बताते हैं कि इस ट्रेन के बाद भी एक ट्रेन है जो साढ़े ग्यारह बजे जाती है, और यह बगल में ही तो स्टेशन है।
तरह-तरह की आपस में गड्डमड्ड हो रही चर्चाएँ जारी हैं। किसी पुराने नाटक की चर्चा। रंजीत जी द्वारा उनके नाटक एक घोड़ा छह सवार के शो का जिक्र, जिसमें टिकटों की भारी मारामारी थी। मेरे द्वारा उनके नाटक एक मुसाफिर बेअसबाब’ के पहले हुए एक कर्टेन रेजर की उस लड़की पात्र की याद जो हर बात को रोते-रोते बोलती है, और दर्शक उसके रोने पर हँसते हैं। लेकिन काफी पहले हुआ वह नाटक इस महफिल में शायद किसी ने नहीं देखा। नए बने ग्रुप एंटरटेनर के कुछ सदस्य भी इस बज्म में मौजूद हैं। ये सभी अभिनेता हैं। रंजीत जी निर्देशित नाटक अफवाह में उनके अभिनय की चर्चा हो रही है। मैं भी अपनी राय रखता हूँ कि नाटक में माहौल बहुत अच्छी तरह बनाया गया था। नाटक के एक दृश्य में कुछ अवांछनीय पात्रों के आने को कुछ अन्य पात्र कमरे की खिड़की से देखते हैं, और इस क्रम में उन पात्रों की बदहवासी एक दिलचस्प दृश्य बनती है। इसी दृश्य को याद कर मैंने अपनी समीक्षा का शीर्षक दिया था-दृश्य के भीतर एक बाहर था। रंजीत जी शीर्षक की तारीफ करते हैं। हालाँकि उनका कहना है कि वे अपने नाटकों की समीक्षा कभी नहीं पढ़ते।
रंजीत जी को कुछ लोकधुनें याद आ गई हैं। वे गा रहे हैं। करीब दो दर्जन विदेशी नाटकों को भारतीय बनाकर शहरी ढांचे में मंच पर पेश कर चुके वे लोकधुनें भी उतनी ही तल्लीनता से गा रहे हैं। मुझे मालूम है कि उनके पिता एक नौटंकी कंपनी चलाते थे। मैं उनसे पूछता हूँ कि उन्होंने आज तक नौटंकी शैली में कुछ भी क्यों नहीं किया। वे कहते हैं कि नौटंकी शैली मुझे इतनी अपनी चीज लगती है कि उसमें कोई चुनौती ही नजर नहीं आती। रंजीत कपूर खुद किसी शैली में बँधने के पक्षधर भी नहीं हैं। किसी निश्चित शैली में काम करने वाले रंगकर्मियों को वे ऐसा संगीतकार मानते हैं जो सितार का एक ही तार बजाया करता है।
रंजीत कपूर की अपनी शख्सियत के सुर को समझना कोई आसान काम नहीं है। जबलपुर के एक थिएटर फेस्टिवल में वे भी आने वाले हैं। सब उनका इंतजार कर रहे हैं, पर वे लापता हैं। शहर में आ गए हैं, इसके आगे का किसी को कुछ नहीं मालूम। शहर उन्हें लील गया या वे खुद जंगल की ओर कूच कर गए- कैसे पता चले! अगले रोज वे प्रकट होते हैं तो खुलासा होता है कि उनके 26 साल पहले के कोई मित्र या प्रशंसक यह सुनने के बाद कि वे जबलपुर आ रहे हैं उन्हें स्टेशन से ही अपने साथ ले गए थे। फिर वे बताते हैं कि उनके इस अपहरण से पहले एक बार उनका बाकायदा अपहरण हो चुका है। कई बार लगता है कि उनकी जिंदगी की व्यवस्था शायद ऐसे ही बहुत से किस्सों से बनी है। ऐसा कोई न कोई किस्सा हमेशा ही उनके पास बना रहता है। आजकल भी वे एक ऐसे ही किस्से में काफी मनोयोग से मुब्तिला हैं। भारत रंग महोत्सव होने वाला है। लोगबाग महोत्सव में अपनी प्रस्तुतियाँ खपाने की जुगतों में रहा करते हैं, पर रंजीत कपूर का मनोरथ कुछ दूसरा है। वे एक बिहारी लड़के को, जो लक्ष्मीनगर के चौराहे पर लिट्टी-चोखे का ठेला लगाता है, महोत्सव के दौरान फूड कोर्ट में एक स्टाल दिलवाने की कोशिश कर रहे हैं। उसके लिट्टी-चोखे का कसीदा पढ़ने के बाद वे उसके साथ हो रहे अन्याय के बारे में बताते हैं। पुलिसवाले उससे हजार रुपए माँग रहे हैं, जबकि बाकियों से वहाँ छह सौ रुपए ही लिए जाते हैं। ऐसे में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय थिएटर प्रस्तुतियों के गुणा-भाग में लगी आयोजक-मंडली से वे महज इतना ही तो कह रहे हैं कि बहावलपुर हाउस के परिसर में 15 दिन के लिए एक ठीहा इस गरीब को भी दे दो। उनकी गैरदुनियादारी यह नहीं जानती कि यह अदना-सा काम इस तनी हुई व्यवस्था में दरअसल कितना बड़ा है। (अंततः वे लड़के का कोई भी भला नहीं ही कर पाए.) उनसे जुड़े ऐसे बहुत से किस्से हैं जिन्हें संकलित किया जाए तो एक पूरी की पूरी पंचतंत्र तैयार हो सकती है।   
कमरे में सिगरेट का धुआँ भरा हुआ है। मैं सोचता हूँ- किन्हीं सुदूर जगहों से आए हम कुछ अजनबी आखिर किस निमित्त से यहाँ बैठे हैं? हमारे राग और हमारी ऊब के वे कौन से तार हैं जो हमें यहाँ चल रही विश्रृंखल बातों में रस प्रदान कर रहे हैं। मैं सोचता हूँ और अचानक लगता है कि रंजीत जी के व्यक्तित्व का असल सूत्र मेरे हाथ लग गया है। हम लोग अक्सर उन्हें हैरानी से देखते रहे हैं कि कैसे वे इतने अस्तव्यस्त होते हुए भी अपने काम को इतने सटीक ढंग से कर पाते हैं। अपनी जेब में रखे पान के बीड़े के साथ आखिर वे अनुशासन की उस पुड़िया को कहाँ छुपाकर रखते हैं कि बेहद हड़बड़ी में तैयार प्रस्तुतियाँ भी मंच पर बेहद बारीकी से तैयार किए गए माहौल के साथ प्रस्तुत होती हैं। मैंने महसूस किया कि इस कमरे की बातें अपने बिखरेपन के बावजूद उसी तरह काफी ठोस हैं जिस तरह किसी नाटक की भाववस्तु होती है। उस भाववस्तु के संप्रेषण के लिए सबसे पहले जरूरी है उसे जानना; और बहुत कम लोग हैं जो उसे इतनी ठोस तरह से जानते हैं जितना कि रंजीत कपूर। बिखरापन ऊपरी चीज है, पर कला का अपना तादात्म्य भीतर की। इस भीतर में कोई जुगाड़ काम नहीं करता, और न सिर्फ हुनरमंदी। भाववस्तु से इस तादात्म्य के लिए जीवन के प्रति एक सच्चाई की दरकार है। मुझे याद आता है महाश्वेता देवी के उपन्यास हजार चौरासी की माँ पर हुई एक प्रस्तुति को लेकर रंजीत जी ने थोड़ा चिढ़ते हुए कभी एक खरी बात कही थी कि अगर उपन्यास में कुछ दिखता है तो जाओ जहाँ संघर्ष हो रहा है। यहाँ उसका मंचन करके क्या दिखाना चाहते हो। कोई तो वजह है कि जीवन के साढ़े छह दशक गुजारने के बाद आज भी रंजीत कपूर एक फ्रीलांस रंगकर्मी हैं। जब वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र थेतभी फाइनल ईयर में उनके द्वारा निर्देशित नाटक वायजेक’ की प्रस्तुति को देखकर इब्राहीम अलकाजी ने उन्हें विद्यालय में प्राध्यापक हो जाने का ऑफर दिया था। पर उन्होंने इसे कबूल नहीं किया। उन्हें लगता था कि इस काम के लिए अभी वे पर्याप्त परिपक्व नहीं हैं।
... ग्यारह से ऊपर हो चला है, लेकिन विजय शुक्ला के रवैये में ट्रेन पकड़ने को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही। याद दिलाने पर वे कहते हैं- गुरुजी अब यहीं रुक जाता हूँ, कल चला जाऊँगा। रंजीत जी थोड़ा हिचकिचाते हैं, फिर कहते हैं- चलो ठीक है। वे उनके खाने के बंदोबस्त को लेकर चिंतित हो उठे हैं। उनका अपना खाना पॉलीथिन में फॉइल में लिपटा वहीं रखा है।
रात ज्यादा हो चुकी है। महफिल धीरे-धीरे बर्खास्त होने लगी है। रंजीत जी को हरेक की फिक्र है। वे कार वालों से पूछ रहे हैं कि वे बिना कार वालों को उनके रास्ते पर कहाँ तक छोड़ सकते हैं। सबको उनकी फिक्र है, उन्हें सबकी फिक्र है। सहसा मैं चौंक जाता हूँ- अरे यही तो वह सूत्र है जिसकी उधेड़बुन में मैं इतनी देर से लगा हूँ- रंजीत कपूर नाम की शै को जानने का। 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

न्यायप्रियता जहाँ ले जाती है

भीष्म साहनी के नाटक

आनंद रघुनंदन