डार से बिछुड़ी

आख्यानमूलक साहित्यिक कृतियों पर नाट्य प्रस्तुति करने का प्रचलित तरीका यही है कि उन्हें संक्षिप्त करके उनके साहित्यिक कलेवर में ही प्रस्तुत किया जाए। लेकिन ऐसी प्रस्तुतियां रंगमंचीय तत्त्वों से रिक्त होने से अक्सर मंच के लिए सपाट भी साबित होती रही हैं। लेकिन उपन्यास 'डार से बिछुड़ी' के मंचन में ऐसा नहीं था। निर्देशकद्वय अंजना राजन और केएस राजेंद्रन ने कृष्णा सोबती के उपन्यास का मंच पर एक सांगीतिक रूपांतरण किया है, जिसमें उपन्यास के पात्र मुकम्मल चरित्रों के तौर पर नहीं बल्कि संकेतों के रूप में दिखते हैं। उन्होंने उपन्यास का संक्षेपण नहीं किया है, लेकिन कथावस्तु के विस्तार के लिहाज से स्थितियों को एक सांकेतिक दृश्य के तौर पर बरतने की विधि अपनाई है। हर स्थिति यहां समूचे विन्यास का एक विवरण मात्र है। उसकी कोई दृश्यात्मक स्वायत्तता नहीं है। वह मंच पर घटित नहीं होती, बल्कि प्रस्तुत की जाती है। इस प्रस्तुतीकरण में जो अभिनेता एक स्थिति में नायिका का हमदर्द शेख बना है, वही बाद में उसका सबकुछ छीन लेने वाला क्रूर बरकत। इस तरह निर्देशकगण एक साहित्यिक पाठ को दर्शक के लिए एक रंगमंचीय अनुभव में तब्दील करते हैं। प्रस्तुति का शैलीगत अभिनय यथार्थ की गहराई को मानो एक काव्यात्मक विस्तार में दिखाने की छूट लेता है। एक पात्र का जीवन यहां एक परिघटना की तरह प्रस्तुत होता है। बहुत सारे सांकेतिक दृश्यों के बीच एक मनुष्य का थोड़ा-बहुत बनता और बहुत कुछ टूटता दिखाई देता है।
उपन्यास 19वीं शताब्दी के स्त्री-जीवन की पुरुष-निर्भरता का एक पाठ है। उपन्यास की केंद्रीय पात्र पाशो के जीवन में निरंतर कुछ न कुछ त्रासद घटता रहता है। अपनी हर खुशी के लिए पाशो किसी पुरुष की मोहताज है। यहां तक कि पति की मौत के बाद उसका देवर उसकी हीं संपत्ति और घर-द्वार पर कब्जा करके उसे अपने किसी उधार को चुकाने के लिए बेच देता है। मुख्य भूमिका में खुद अंजना राजन और दक्षिणा शर्मा मंच पर थीं। वे दोनों स्थितियों को नैरेट भी करती हैं और कभी-कभी किसी अन्य किरदार को भी अंजाम देती हैं। मंच पर जितनी तेजी से स्थितियां बदलती हैं उतनी ही गति से दृश्य आकार ले लेते हैं। दृश्यों में से दृश्य निकलने का यह सिलसिला सतत चलता रहता है। इस क्रम में प्रकाश योजना, वाद्य-संगीत, आलाप, कोरस, शास्त्रीय नृत्य या नृत्य-भंगिमाओं आदि का भरपूर और कल्पनाशील ढंग से इस्तेमाल किया गया है। एक तरह की रंगमंचीय आलंकारिकता में उपन्यास मंच पर आकार पाता है, जिसमें दृश्य अपनी रंग-सज्जा में एक चाक्षुष प्रभाव बनाते हैं। हर दृश्य में बहुत से रंग हैं। लेकिन स्थितियां इसमें बहुत जल्दी से बीत जाती हैं और उनका वातावरण बहुत ठोस ढंग से मौजूद नहीं है। फिर भी वेशभूषा और दृश्य-युक्तियों से कथानक का प्रवाह और स्पष्टता निरंतर बने रहते हैं। पात्रों की वेशभूषा और मेकअप यथार्थवादी प्रस्तुतियों की तरह ही है। लेकिन प्रस्तुति के ढांचे में चरित्रों का स्पेस बहुत ज्यादा नहीं है। उधर मुख्य चरित्र का गठन ऐसा है कि उसे बार-बार नैरेट करने के लिए भूमिका से बाहर आना होता है। इस तरह अभिनय की यह लाक्षणिकता उपन्य़ास की कथात्मकता के समांतर अपनी रंगमंचीय लय से दर्शक को जोड़ती है। उसमें कई दृश्य नृत्य नाटिका की तरह के हैं। परदे की दीवार अचानक दरवाजे की शक्ल ले लेती है जिसमें से भौंचक्की नायिका एक नई स्थिति को सामने देखती है। घुड़सवार के आने का दृश्य, डोली में बैठने का दृश्य आदि भी इसी तरह के हैं। तबले के स्वर और युक्तिपूर्ण देहभाषा के जरिए ये दृश्य मंच पर आकार लेते हैं। प्रस्तुति की निर्देशिका और अभिनेत्री अंजना राजन भरतनाट्यम की दक्ष हैं। उनकी इस दक्षता का सहयोग भी प्रस्तुति को रहा है। वहीं सुधा रघुरामन के स्वर भी उसकी सांगीतिकता को ज्यादा प्रखर बनाते हैं। हालांकि दूसरी पाशो और मुख्य नैरेटर दक्षिणा शर्मा का किरदार के जीवन के अनुरूप मंच पर कुछ ज्यादा संजीदा दिखना बेहतर होता।
निर्देशकीय के मुताबिक निर्देशिका अंजना राजन को लगता है कि उनकी प्रस्तुति उपन्यास की कलात्मकता के साथ न्याय नहीं कर सकती। क्या इसलिए कि उनकी कलात्मकता उपन्यास से जुदा है? प्रस्तुति की मंचीय परिकल्पना में सह निर्देशक केएस राजेंद्रन की भूमिका स्पष्ट दिखाई देती है। उनके दृश्य-विन्यास में वह बारीक संतुलन और प्रवाह दिखता है जिसके लिए उन्हें जाना जाता है।

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