बेगानी गलियों में दौड़ते शहर का गीत
युवा रंगकर्मी लोकेश जैन ने रंगकर्म का एक अलग ही मुहावरा विकसित किया है। इस मुहावरे में कोई कहानी नहीं होती, पर बहुत से चरित्रों के माध्यम से एक परिस्थिति को दिखाया जाता है। लोकेश धीरे-धीरे इस परिस्थिति की एक लय बनाते हैं, जो कथाहीनता के बावजूद दर्शकों को बांधे रखती है। यह लय कुछ इस किस्म की है कि इसमें यथार्थ और रूमानियत एक साथ शरीक दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए मंच पर जीवन के तलछट का कोई दृश्य चल रहा है कि पीछे से किसी पुरानी फिल्मी मेलोडी के स्वर सुनाई देते हैं। अपनी नई प्रस्तुति 'हमें नाज है' में लोकेश ने इसी शैली में पुरानी दिल्ली के गरीब-गुरबा के जीवन को विषय बनाया है।
मंच पर बिल्कुल पीछे स्ट्रीट लाइट का एक खंबा खड़ा है, जिसपर एक गमला लटका है। वहीं नीचे प्रोपराइटर जमालू भाई का कंगला टी स्टाल है। टोपी लगाए व्यस्त जमालू के पास पड़ी बेंच पर छोटा जमालू भी बैठा रहता है। थोड़ी देर बाद केले वाली आती है, फिर गुदड़ी खाला, सुघड़ी आपा। किनारे पर दीन-हीन दशा में एक भिखारी भी बैठा है। उधार की चाय पीने वाला, झगड़ते हुए बच्चे, बोझा उठाने वाला आदि किरदार और मुनिया-पतरू की इश्किया लबझब वगैरह भी इस सतत दृश्य में विन्यस्त हैं। रात-बिरात अपने मालिक की झिड़कियां सुनता हुआ चौकीदार है, जिसे अपनी बिटिया का गौना करना है, खेती के बढ़ रहे खर्चों का हिसाब-किताब बैठाना है। एक भिखारिन है, जो गंगा में आई बाढ़ की कोई कहानी सुनाती रहती है। जमालू चाचा बंटवारे का वो वृत्तांत सुनाता है जिसके गड़बड़झाले में उसकी अपनी हवेली कस्टोडियन के कब्जे में चली गई। ऐसी कई कहानियां प्रस्तुति में दृश्य दर दृश्य पेश आती हैं। ये दृश्य अर्थव्यवस्था के विद्रूप में स्थानीयता की रंगतें लिए हुए हैं। वस्तुतः यह एक जर्जर हो रही स्थानीयता है, जिसे लोकेश अपने किसी स्मृत्याभास और रूमान के साथ नत्थी करते हुए रंगमंचीय छवियों में तब्दील करते हैं।
दृश्य खुलते ही मंच पर कंबलों में निश्चेष्ट बहुत से लोग पड़े हुए हैं। कुछ सेकेंड की स्थिरता के बाद वे धीरे-धीरे उठते हैं और 'अनजानी बेगानी सी गलियों में' दौड़ते शहर का गीत गाते हैं। ठंड के मौसम में रात को सोने के लिए रजाई 20 रुपए और कंबल 10 रुपए किराए पर मिलता है। एक ठिठुरता उघारे बदन शख्स प्लास्टिक की पन्नी लिए दिखाई देता है। कांपती आवाज में वह अपना सपना बता रहा है- गर्म गद्दा और रजाई, जो ठंड को हड्डियों में घुसने नहीं देंगे। सूरज की किरन तो सुबह ही आएगी, और गर्मी देगी...सलीमगढ़ की दीवार के पीछे।..नहीने के पांच..खाने के लिए बीस...कम से कम सौ रुपए कमाने होंगे।...सपने ले लो सपने...। वह पछाड़ खाकर गिर पड़ता है।
लेकिन यह बीहड़-बेजार जिंदगी सुबह फिर अपने ढर्रे पर लौटती है। अपनी रागात्मकता अपनी चुहुल के उन्हीं टटपुंजिया किस्सों के साथ। लंबा-सा झोला टांगे एक बाबा आता है जो सबमें बताशे बांटता है। एक चूरन बादाम खीरा बेचने वाला आता है। बैकग्राउंड से गाना बजता है- मोहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती। सारे पात्र अपनी कंगलई पर मस्त होकर नाच रहे हैं। लोकेश जैन इस मंजर में जल्दी-जल्दी समाज-व्यवस्था की बहुत सी तस्वीरें पैबस्त करते हैं। बेघर औरतों के लिए काम करने वाले स्वयंसेवी संगठन की कार्यकर्ता दृश्य में नमूदार होती है। वह मोबाइल पर अपने किसी उलझे संबंध को लेकर अंग्रेजी में तुर्श है और एक भीषण यथार्थ में एक नई खुराफात की तरह आ पहुंची है। अपने में ही हैरान-परेशान। इसी दरम्यान रह-रह कर दृश्य में दिखती एक बुरके वाली औरत अचानक अपना बुरका उठा देती है। सभी देखते हैं किसी साइको के फेंके तेजाब से झुलसा उसका वीभत्स चेहरा। जिंदगियों को इतना दुष्कर बनाता यह साइको कौन है? लोकेश जैन के मुताबिक यह बाजार है, जहां खो गई हैं खुशियां और बंद हो गई हैं सांसें।
थिएटर ग्रुप जमघट और मंडला की इस प्रस्तुति के अभिनेता प्रायः पुरानी दिल्ली के गली-कूचों में रहने वाले युवा हैं। लोकेश जैन उन्हें ऐसे पात्रों में तब्दील करते हैं जिनके असलीपन में थोड़ा कैरिकेचर का पुट है। ये किरदार जिंदगी से ऊबे हुए भी हैं और उसमें डूबे हुए भी। उनके भीषण यथार्थ में ये कैरिकेचर देखने वाले के लिए एक रिलीफ पैदा करता है। कई दृश्यों में हिमांशु बी जोशी की प्रकाश योजना भी अलग से दिखाई देती है। लाल रोशनी में मृत्यु सरीखी उदासी मंच को घेरे है। यह एक 'कंपनी जैसे बन गए देश के लोकतंत्र' की उदासी है, जिसे श्रीराम सेंटर में पिछले सप्ताह हुई यह प्रस्तुति जीना यहां मरना यहां के नियति-भाव से संलग्न करती है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें