कहानी का रंगमंच : एक रंग प्रयोग

वरिष्ठ रंग निर्देशक देवेंद्रराज अंकुर ने करीब तीस साल पहले ‘कहानी का रंगमंच’ नाम से एक कथित सिद्धांत प्रतिपादित किया था, जिसके अंतर्गत उन्होंने कहानी के मंचन को नाट्यालेख, चरित्रांकन, कास्ट्यूम, सेट और यहाँ तक कि निर्देशन आदि तमाम ‘बंधनों’ से मुक्त कर दिया। इसके पीछे उनका तर्क रहा है कि ‘यदि हम कहानी के साथ कोई छेड़छाड़ करते हैं तो फिर वह कहानी कहाँ रह जाएगी!’ बहुत सी आपत्तियों से अविचलित अपने इस सिद्धांत को वे निरंतर कार्यरूप में परिणत करते रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने खुद की भूमिका निर्देशक के बजाय परामर्शदाता की मुकर्रर की है।

अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल ने एक प्रयोग के जरिए उनके सिद्धांत की असलियत परखने की कोशिश की है। रंगमंडल ने उनसे धर्मवीर भारती की कहानी ‘बंद गली का आखिरी मकान’ की दो प्रस्तुतियाँ एक साथ तैयार करवाई हैं। एक प्रस्तुति ठेठ अंकुर-शैली में है, लेकिन दूसरी में रंगमंच के अवयवों का इस्तेमाल किया गया है।
‘बंद गली का आखिरी मकान’ एक सघन कथानक वाली लंबी कहानी है, जिसमें कथोपकथन पर्याप्त मात्रा में है। इस आसानी के बावजूद प्रस्तुति देखकर एक बात तय मालूम देती है कि इसके नाट्यालेख पर ठीकठाक काम किया गया है। वजह है कि आख्यान वाले हिस्से के फैलाव को संपादित किए बिना प्रस्तुति को सुगठित नहीं बनाया जा सकता। असल में अंकुर करीब तीन दशक पहले भी इस कहानी की एक प्रस्तुति कर चुके हैं जिसकी रचना प्रक्रिया पर लिखे एक लेख में उन्होंने इस समस्या का जिक्र किया है।
जब कहानी में बहुत तरह के पात्र हों, एक खास परिवेश हो, स्थितियों की काफी उठापटक हो, तो 'कहानी का रंगमंच' के शिल्प से प्रस्तुति नहीं भसूड़ी तैयार होती है। ऐसा ही इस प्रयोग की पहली प्रस्तुति के साथ हुआ है। 1 घंटा 20 मिनट के इस भयानक अनुभव में मंच पर निरंतर कोलाहल होता रहता है और यह तक पता नहीं चलता कि कहानी है क्या! प्रस्तुति देखने तक मैंने यह कहानी नहीं पढ़ी थी। आखिर कहानी का पता चला इसी प्रयोग की दूसरी प्रस्तुति से।
‘बंद गली का आखिरी मकान’ कायस्थ मुंशी जी और मिश्रा परिवार की बिरजा की कहानी है। मुसीबतजदा बिरजा को मुंशी जी ने उसकी माँ और पूर्व पति से दो बेटों सहित अपनी अर्धांगिनी कबूल किया था। लेकिन परिवार के प्रति मुंशी जी का समर्पण उन्हें भावनात्मक चोटों और अंततः मौत के सिवाय कुछ नहीं दे पाता। मंच पर एक पूरा परिवेश दैनंदिन जीवन की बहुतेरी रंगतों में उपस्थित है। बहुत सारे मुख्य पात्रों से मिलकर बना इसका यथार्थ अपनी अंतर्ध्वनियों सहित काफी गाढ़ा होकर यहाँ मौजूद है। वकील और वैद्य जैसे जरा-सी देर के लिए मंच पर आने वाले पात्र भी अपनी भूषा और भाषा में 60-70 साल पुराने परिवेश की तस्दीक करते हैं। इसी तरह पठान का किरदार है। मुंशी जी बने आलोक और लाला भवनाथ की भूमिका में शिब्बू गौड़ तो प्रस्तुति की जान थे ही। कई उप-स्थितियाँ और आनुषंगिक किरदारों के चित्रण के जरिए कहानी वाली सघनता प्रस्तुति में भी बनी हुई है। बिरजा की माँ पाठशाला से बच्चों को लाने का काम करती है, पर प्रपंची छोटी बहू ने अब उसे मना कर दिया है। मुँह बिचकाने वाली छोटी बहू, नखरीली देहभाषा वाली बिटौनी, चुटियाधारी वैद्य जी, मकान के ऊपर किसी युक्ति से प्रकट हुए साधु महाराज- ये सब इस सघनता में अनायास शामिल हैं। इस यथार्थ में मानो बिरजा की निष्ठुरता और मुंशी जी का क्षरित होना एक-दूसरे के पूरक हैं, जबकि इसके पहले एक प्रकाश योजना की मदद से मुंशी जी और बिरजा का एक रूमानी दृश्य भी दिखाई देता है। प्रस्तुति में मेकअप बहुत कम है, और ज्यादातर किरदार कास्ट्यूम से ही पहचाने जाते हैं। ऐसे में कमउम्र चेहरे-मोहरे की पूजा गुप्ता को हरदेई यानी बिरजा की माँ जैसा सीनियर सिटिजन अपने अभिनय से ही दिखना है, और यह काम उन्होंने बखूबी किया है। इस तरह कास्ट्यूम और बॉडी लैंग्वेज ये दो ही चीजें प्रमुख हैं। बिरजा बनीं शिल्पा भारती की देहभाषा में कमनीयता है तो तीखा बोलने वाली मोहल्लेदारिन छोटी बहू के लिए भंगिमाओं की लाउडनेस एक टूल है, जिसका इस भूमिका में मधुरिमा ने अच्छा इस्तेमाल किया है। हालाँकि बिटौनी बनीं शिवानी भरतिया की तुर्शी किरदार के मिजाज से ज्यादा स्पष्ट ही एक रंगमंचीय शै है। उस लिहाज से अभिनय का सबसे ज्यादा स्टफ जाहिर ही मुंशी जी के पात्र में है, क्योंकि उसे प्यार, जिम्मेदारी और त्रासदी के कई पड़ावों को पार करना है। और इस भूमिका को आलोक रंजन ने पूरे जज्बे से अंजाम दिया है। यद्यपि सत्येंद्र मलिक के निभाए हरिराम के किरदार पर थोड़ा और काम किया जा सकता था। उसका चालूपन ज्यादा निखालिस किस्म का है, जिसपर दुनियावी पर्तें चढ़ाई जानी चाहिए। हीरालाल राय वकील और वैद्य की और सुमन कुमार बिशन मामा और ईशाक मियाँ की क्षणिक भूमिकाओं में काफी आकर्षक थे। और राघोराम बने अनंत शर्मा भी ठीकठाक थे। लाला भवनाथ बने शिब्बू यूँ तो प्रस्तुति में तुरुप के पत्ते की तरह हैं, पर ऐसे किरदार मैंने आम जीवन में देखे हैं, और ऐसा मालूम पड़ता है कि उसमें थोड़ा ठहराव होना बेहतर होता।
कहानी के रंगमंच की सफलता शायद कहानी की प्रकृति पर भी निर्भर करती है, जिसका सफल उदाहरण अंकुर जी की पुरानी प्रस्तुति ‘संक्रमण’ को माना जा सकता है। वैसे प्रकृति चाहे अनुरूप भी हो, एक विधा जो पढ़ने से देखने में तब्दील हो रही हो उसे बगैर दृश्यात्मक अनुशासन के संप्रेषणीय नहीं बनाया जा सकता। ऐसा इन दोनों प्रस्तुतियों के फर्क से तो साबित होता ही है, इससे पहले कहानी का रंगमंच के नाम पर की गई अंकुर जी की बहुतेरी प्रस्तुतियों से भी साबित होता है, जिनमें अभी दो हफ्ते पहले लखनऊ में देखी वह प्रस्तुति भी शामिल है जो अनिल कुमार पाठक की तीन कहानियों पर अंकुर जी ने ‘लावारिस नहीं मेरी माँ है’ शीर्षक से मंचित की थी।

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