सरनेम में क्या रखा है

युवा रंगकर्मी फहद खान के नव-अन्वेषित थिएटर-स्पेस में पिछले सप्ताह अशोक लाल का नया नाटक ‘ह्वाट इज इन सरनेम’ देखा। उन्होंने हौज खास स्थित दृष्टिबाधित लड़कियों के हॉस्टल में उपलब्ध अपने ग्रुप के रिहर्सल-स्पेस को ही स्टूडियो थिएटर नुमा शक्ल दे दी है, जहाँ हुआ यह नाटक एक आधुनिक प्रहसन है। नाटक में जातिवाद और बेरोजगारी को एक मज़ाकिया थीम में पेश किया गया है। बैकस्टेज को स्टेज पर दिखाने की तरकीब भी इसमें आजमाई गई है, जिसमें एक पात्र दूसरे से कहता है-यह तो मेरा डायलाग था। इसके दोनों मुख्य पात्र आपस में दोस्त हैं, जिनके नाम हैं- अग्निहोत्री और परमार। एक ब्राह्मण, दूसरा शेड्यूल कास्ट। पहला दूसरे में ‘रिजर्व कोटा के कारण नौकरी मिलने के प्रबल आत्मविश्वास’ को देखकर कुंठित है, और सोचता है कि क्यों न वह खुद शेड्यूल कास्ट बन जाए। लेकिन उसकी माँ उसे बताती है कि उनके लिए अगर रिजर्वेशन है तो क्या हुआ, हम ऊँची जात वालों में भाई-भतीजावाद चलता है।
उधर दूसरे की समस्या है कि उसकी एक ब्राह्मण लड़की से मोहब्बत है। अपनी-अपनी हसरतों को अंजाम तक पहुँचाने के लिए वे अपना सरनेम बदल लेते हैं। इस बीच दोनों लड़कों और लड़की के माँ-बाप भी दृश्यों में नमूदार होते हैं। युवा अभिनेता बालों में सफेदी लगाकर माँ-बाप बने हुए हैं। उनकी आवाज़ में कई मौकों पर उम्र का कच्चापन है। और यही सब चीजें प्रस्तुति को दिलचस्प बनाती हैं, क्योंकि सबकुछ पूरी तरह उन्मुक्त है, जिसके बीच कुछ कार्टूननुमा रंगतें भी किरदारों में खोंस दी गई हैं। जो कुछ काफी अच्छी तरह है वो है प्रस्तुति की गति और उसका संगीत। यह चीज प्रस्तुति के संवादों में भी है, जहाँ नौकरी ना मिलने से चिंतित बेटे को माँ सलाह देती है- ‘तुम इतना सोचा मत करो, सोचने से बाल झड़ते हैं, देखो कितने अच्छे बाल हैं मेरे!’ साफ दिखता है निर्देशक ने अभिनेताओं को उनकी सहजता में खुलने-खेलने के मौके दिए हैं। यह मौका उन्हें आलेख ने भी दिया है जिसमें इतने तल्ख विषय को इतने लाइट मूड में बरता गया है। जिन्हें इस विषय की तल्खी को याद करना हो वे विजय तेंदुलकर के ‘कन्यादान’ को याद कर सकते हैं। उस लिहाज से यह प्रस्तुति एक विषय को उसके स्टीरियोटाइप से बाहर आकर देखने की जुर्रत, हिम्मत और माद्दा दिखाती है। यद्यपि उसके मंच और बैकस्टेज का घालमेल करने वाले संवादों का नाटकीय ट्विस्ट के लिहाज से कोई खास उपयोग तो नहीं दिखता, पर उससे स्थितियों को प्रहसनात्मक बनाने में मदद मिलती है। यह विंग्सविहीन छोटा-सा स्टेज था, जहाँ पूरा बैकस्टेज लकड़ी के अदना पार्टीशन के पीछे सिमटा हुआ खड़ा है। वहीं से संगीत का संचालन भी किया जा रहा है। इसके लिए तिश्नगी बैंड को बधाई। अभिनय में गुरिंदर सिंह की बॉडी लैंग्वेज की बेबाकी भी देखने लायक थी।

प्रस्तुति में हॉस्टल की वे लड़कियाँ भी दर्शक थीं जो नाटक को सिर्फ सुन ही सकती थीं। हास्यपूर्ण दृश्यों में उनकी हँसी अलग से ही एक दृश्य थी। 




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