गिरीश कर्नाड का जीवन

गिरीश कर्नाड की हिंदी में सद्य प्रकाशित संस्मरणात्मक पुस्तक ‘यह जीवन खेल में’ कई कारणों से पढ़ने लायक है। एक वजह है कि इसमें पिछली सदी के उत्तरार्ध का एक विहंगम बौद्धिक-सांस्कृतिक दृश्य दिखाई देता है। दूसरी वजह है कि लेखक ने इसमें बीच-बीच में आत्मकथा के एक जरूरी समझे जाने वाले अवयव बेबाकी का भी आवश्यकतानुसार समावेश किया है। तीसरी वजह इसे पढ़ते हुए होने वाली यह प्रतीति है कि लेखक अपने परिवेश से काफी गहरे संपृक्त है। लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं इन तीनों ही वजहों में एक लोचा दिखाई देता है। लगता है जैसे बातें आधे-अधूरे ढंग से बताई जा रही हैं। कि लेखक के ऑब्जर्वेशन बहुत किताबी ढंग के हैं। कि किताब में जो भी किरदार आ रहे हैं उनकी छवियाँ बहुत स्पष्टता से नहीं दिख पा रहीं। कि ज्यादातर पात्र और स्थितियाँ लेखक की व्याख्या के निमित्त से छोटे-छोटे, अधूरे और एकांगी जिक्रों के रूप में एक रूखे संदर्भ के तौर पर पेश हो रहे हैं। जैसे कि फिल्म ‘वंशवृक्ष’ के निर्माण के दौरान ब.व.कारंत के साथ रहे उनके लंबे साथ और संबंधित विवरणों के बावजूद उनकी शख्सियत की कोई ठोस तस्वीर न बन पाना। इस समस्या की एक वजह जो समझ आती है वह है लेखक की वर्णन शैली। गिरीश कर्नाड अखबारी खबर की तरह विवरणों में बात को बयान करते हैं, जिसमें सूचनाएँ तो पर्याप्त हैं लेकिन वो अंतरंगता गायब है जो किसी पात्र या स्थिति को छवि में तब्दील करती है। किताब में रुचि का एक सबब गिरीश कर्नाड का विविधतापूर्ण जीवन भी हो सकता है। वर्तमान कर्नाटक में सिरसी नाम की एक दूरस्थ छोटी-सी जगह से शुरू हुआ उनका जीवन धारवाड़, मुंबई, बंगलौर, मद्रास, ऑक्सफोर्ड, पूना में कई तरह के कामों से गुजरा। इसी वजह से अकादमिक दुनिया, प्रकाशन जगत, सिनेमा, रंगमंच, बौद्धिक चर्चाएँ आदि तो इसमें हैं ही, इसके अलावा साथ-साथ चलने वाली रिश्तों की एक दुनिया भी है। रिश्तों को लेकर गिरीश हमेशा ही काफी संवेदनशील रहे हैं। चाहे वे पारिवारिक रिश्ते हों या दोस्तों के या पास-पड़ोस के। पुस्तक की ज्यादातर गर्मजोशी इन्हीं रिश्तों की चर्चा के कारण बनती है, जिसमें उन पहलुओं को भी छूने की कोशिश की गई है जिन्हें आमतौर पर अनकहा छोड़ दिया जाता है। मसलन उनके दुहाजू माँ और पिता इस शादी से पहले पाँच साल तक डॉक्टर और नर्स की पेशेवर भूमिकाओं में एक साथ काम करते थे। गिरीश कर्नाड लिखते हैं- ‘इस दौरान उनका रिश्ता कैसा था, क्या वह शारीरिक था? यह विचार मात्र ही कि हमारी माँ का एक विवाहित पुरुष के साथ अनैतिक संबंध रहा था- भले ही वे हमारे पिता थे- बेहद पीड़ादायक था। जब हम किशोर थे तब अगर मैं इस बात का इशारा भर कर देता कि वे कभी-कभार साथ सोते रहे होंगे, मेरी बहनें गुस्से से भर जातीं या फूट-फूट कर रोने लगती थीं।’ फिर आगे के पन्नों में वे जिक्र करते हैं कि बाद में उनकी बेटी भी शादी से पहले पाँच साल ऐसे ही रिश्ते में रही। लेकिन इन दो वाकयात के बीच 80 साल का वक्फा था, और दुनिया इस बीच बहुत ज्यादा बदल चुकी थी। बचपन के प्रसंगों में प्रकृति और परिवेश थोड़ा ज्यादा आने से शुरुआती अध्याय कहीं ज्यादा पठनीय है, जिसमें गिरीश अंधकार के उस अविरल अनुभव के बारे में बताते हैं जो बिजली आने से पहले था। जब ‘हमारी पुतलियाँ प्रकाश की तैरती किरचों को पकड़ उन्हें परिवर्तनशील आकारहीन रूपों में बुनती हैं।’ आगे वे लिखते हैं- ‘पूर्ण अंधकार की दुनिया के साथ हमने दूसरा तत्त्व खोया है वह है कहानियों की विपुलता। वे हर जगह आपको मिल जाती थीं- बगल की गलियों में, सुनसान कोनों में, बाजार के घने इलाकों में।’ बाद में कॉलेज के प्रसंगों, धारवाड़ के दिनों की बौद्धिक चर्चाओं, कविता के बारे में गोकाक और रामानुजन के विचारों आदि के बारे में पढ़ते हुए लगता है कि कर्नाड काफी शिद्दत से अपनी देशज संवेदना का संधान कर रहे थे। उनके लिखे ‘नागमंडल’ और ‘अग्नि और बरखा’ जैसे नाटकों को याद करने पर यह शिद्दत और मुखर मालूम देती है। लेकिन वस्तुतः कहानी कुछ और ही थी। वे लिखते हैं- ‘कॉलेज में पहुँचने तक मैं भारत के सांस्कृतिक वातावरण में घुटन महसूस करने लगा था। यह बासी और सुस्त लगता था और मुझे विश्वास था कि यहाँ मेरी प्रतिभा पहचानी नहीं जाएगी।’ इसी क्रम में दर्शनशास्त्र विषय पसंद होते हुए भी उन्होंने ‘हिसाब-किताब लगाकर कि इससे प्रथम श्रेणी पाने के मेरे अवसर सुधरेंगे, कॉलेज में गणित विषय चुना।’ इस तरह काफी प्लानिंग के साथ उन्होंने अपना करियर आगे बढ़ाया। कर्नाड अपनी प्रतिभा को पहचनवाने को लेकर महत्त्वाकांक्षी थे यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन इस सवाल कि भारत का सांस्कृतिक वातावरण उन्हें बासी और सुस्त और घुटन भरा क्यों लग रहा था इसका जवाब उन्होंने नहीं दिया है। एक जगह इसका हल्का सा सुराग मिलता है- जब एक कॉलेज में भर्ती की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के वाकये से रूबरू होने के बाद ‘भारत से बाहर जाने का’ उनका ‘संकल्प और मजबूत हुआ’। लेकिन यह बहुत भरोसेमंद कारण नहीं है, क्योंकि भ्रष्टाचार वगैरह को लेकर असंतोष के अन्य जिक्र पुस्तक में नहीं मिलते। जाहिर है इसका असली कारण था पश्चिम के प्रति एक स्वाभाविक आकर्षण, जो पश्चिमी कविता और अस्तित्ववाद जैसी विचारधारा के बारे में जानने के बाद उनमें पैदा हुआ। हालाँकि पुस्तक में दार्शनिक अवधारणाओं अथवा कविता की बाबत जो भी विचार व्यक्त किए गए हैं उनसे कुछ भी समझ नहीं आता। उदाहरण के लिए एक जगह वे लिखते हैं- ‘मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि नई आलोचना और संस्कृत आलोचना के सिद्धांत और धारणाएँ कितने समान हैं।’ कैसे समान हैं यह नहीं बताया। क्या उसी तरह समान हैं जैसे कि दुनिया के सारे मनुष्य अपनी शारीरिक बनावट में एक समान हैं? इसी तरह ‘मेरे लिए अस्तित्ववाद का मुख्य आकर्षण इसकी नाटकीयता है’- इस पंक्ति से क्या समझा जाए! यह दिक्कत दरअसल सिर्फ इस किताब की नहीं बल्कि भारतीय आधुनिकता की संदिग्ध परिपाटी की है, जिसने मूलभूत प्रश्नों से जूझे बगैर सार्वजनिक जीवन की बहुत-सी आधी-अधूरी धारणाएँ बनाई हुई हैं। इसीलिए उन मौकों पर जब हम लेखक से किसी ठोस राय की उम्मीद कर रहे होते हैं किताब हमें निराश करती है। उदाहरण के लिए एक स्थान पर कर्नाड भारतीयों को ‘पिछले इतिहास पर लीपापोती करने में उस्ताद’ मानते हैं, लेकिन वहीं अन्यत्र ‘महाराष्ट्र के एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्ति नाना फडणनवीस की चरित्र हत्या’ के कारण विवादों में घिरे ‘घासीराम कोतवाल जैसे असाधारण नाटक’ को पुणे इंस्टीट्यूट का निदेशक रहते वहाँ का सभागार प्रदान करने का पुण्य काम करते हैं। वे बताते हैं कि ब.व.कारंत नाटक में ‘राजनीतिक हिंसा पर टिप्पणी करने के लिए भक्ति संगीत के चतुराई भरे उपयोग’ से मुग्ध हो गए। लेकिन यह नहीं बताते कि उनका इतिहासबोध नाटक से जुड़े विवाद के मुद्दे पर क्या कहता है। यह चीज उनके अपने नाटक ‘तुगलक’ की चर्चा में और ज्यादा स्पष्ट होकर दिखती है, जिसके बारे में उन्होंने वनिस्बत विस्तार से लिखा है। कोई ऐतिहासिक नाटक लिखने का आइडिया उन्हें कन्नड़ नाटकों के बारे में एक टिप्पणी पढ़ने के बाद आया, जिसमें खेद प्रकट किया गया था कि ‘हमारे पास ‘सीज़र एंड क्लियोपेट्रा’ या ‘सेंट जोन’ जैसी एक भी रचना नहीं है’ और ‘किसी ने भी सत्य की नई परतों को आजमाने और प्रकट करने के लिए ऐतिहासिक सामग्री का उपयोग करने का प्रयास नहीं किया है।’ इसके बाद उन्होंने इतिहास में से झाड़-पोंछकर तुगलक का किरदार निकाला। फिर उन्होंने उसके लिए एक व्याख्या निश्चित की- ‘दिल्ली के सिंहासन पर बैठने वाला सबसे प्रतिभाशाली सुल्तान’। फिर उन्होंने उसके लिए एक फिलॉसफी तय की- अस्तित्ववाद, जो ‘कर्म का दर्शन होने के लिए अनुकूल’ थी। कर्नाड के नाटक से जुड़े ये ब्योरे काफी हद तक तब से 24 साल पहले लिखे अल्बेयर कामू के नाटक ‘कालिगुला’ की कॉपी मालूम देते हैं। लेकिन अस्तित्ववाद के उनके दिलचस्प भारतीय संस्करण को देखते हुए ‘कालिगुला’ अगर उन्हें ‘यांत्रिक और अवास्तविक’ लगा तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। दिलचस्प यह भी है कि आम लोगों द्वारा पागल कहे जाने वाले तुगलक को पहले वे नास्तिक मानते थे, क्योंकि ‘अपने शासन के लगभग पाँच वर्ष उसने सार्वजनिक प्रार्थना रुकवा दी थी’। लेकिन बाद में जब उन्हें उसके मजहबी होने का पता चला तो उन्हें अहसास हुआ कि ‘इसकी जड़ें धर्म के साथ उसके संघर्षों में हैं’। उसने प्रार्थना क्यों रुकवाई थी इसका जिक्र उन्होंने फिर यहाँ नहीं किया है। लेकिन इतिहास के छात्र जानते होंगे कि तुगलक ने वह प्रार्थना इसलिए रुकवाई थी कि वह बगदाद के खलीफा के बजाय मिस्र के अब्बासी खलीफा को असली मानने लगा था, और तब तक के लिए प्रार्थना रुकवा दी थी जब तक कि मिस्र के खलीफा ने उसकी सल्तनत के लिए अपनी सरपरस्ती की तस्दीक नहीं कर दी। उसके बाद इन प्रार्थनाओं में मिस्र के खलीफा का नाम लिया जाने लगा। लेकिन इस आधे अधूरेपन के बरक्स कुछेक जगह लेखक ने पूरी राय भी जाहिर की है। मसलन उनकी गोवा की एक ईसाई दोस्त ने अपने बारे में और उसी प्रसंग से 16वीं सदी के गोवा में हुई कुछ क्रिश्चियन ज्यादतियों के बारे में सच्चाईपूर्वक लिखना चाहा तो उसे असमंजस हुआ क्योंकि तब तक भारत में हिंदूवादी उभार का दौर शुरू हो चुका था। एक ऐसे दौर में जब हर चीज की एक गलत व्याख्या संभव थी गिरीश कर्नाड ने उचित ही उसे सुझाव दिया कि उसे अपनी अंतरात्मा के अनुसार लिखना चाहिए। लेकिन साथ ही चेतावनी भी दी कि वर्तमान संदर्भ में अगर आप पॉलिटिकली करेक्ट होने के फेर में पड़ेंगी तो नैतिक रूप से कम्युनिस्टों और आरएसएस से अलग नहीं होंगी। सिनेमा को लेकर उन्होंने अपनी दो फिल्मों- संस्कार और वंशवृक्ष- के निर्माण से जुड़े अनुभवों को ही विस्तार से लिखा है, जिनकी जरूरत से ज्यादा विवरणात्मकता कई मौकों पर बोझिल हो गई है। बल्कि पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में डायरेक्टर रहने के दौरान के उनके अनुभव आम पाठकों के लिए जरूर अधिक काम के हो सकते हैं, जिनमें बाद में ‘नुक्कड़’ सीरियल से पहचाने गए दिलीप धवन के एडमीशन का किस्सा और इंस्टीट्यूट में हड़ताल के बाद नसीरुद्दीन शाह और उनके सहपाठी जसपाल में हुई अदावत का वाकया शामिल हैं। इन प्रसंगों में राज कपूर जैसी मशहूर शख्सियत भी अपनी पूरी दुनियादारी के साथ आम शक्ल में दिखाई देती है। कन्नड़ फिल्मों के सुपरस्टार रहे संपत कुमार का वाकया भी इस सिलसिले में खासा मनोरंजक है, जो नौजवानी के दिनों में काम ढूँढने के दौरान ऊँची-ऊँची फेंक रहे थे। इसी तरह आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने के दौरान के अनुभव भी यह समझने के लिहाज से पठनीय हैं कि एक भिन्न परिवेश में संस्कारों की बंदिशें किस तरह काम करती हैं, और वो भी उस व्यक्ति के लिए जो खुद कोई रूढ़िवादी नहीं है। पुस्तक में कई जगह गिरीश कर्नाड ने स्त्रियों से अपने रिश्तों को पर्याप्त बेबाकी से बयान किया है। यह बेबाकी तब भी है जब वे बताते हैं कि सारस्वत ब्राह्मणों में लड़के के लिए ममेरी बहन को सर्वश्रेष्ठ वधू समझा जाता है; और जवानी के दिनों में यह दस्तूर अपनी ऐंद्रिक प्रतिध्वनि में रिश्ते की कैसी जटिलता पैदा कर सकता है। हालाँकि पुस्तक में सारस्वत प्रसंग का उल्लेख जरूरत से कुछ ज्यादा ही हुआ है। गिरीश कर्नाड की इस पुस्तक को आत्मकथा न कहकर उचित ही संस्मरण कहा गया है, क्योंकि यह आत्मकथा की तरह सुगठित नहीं है। कुछ कमतर महत्व के प्रसंग इसमें अनावश्यक डिटेल्स के साथ बताए गए हैं और कई जरूरी प्रसंग सिरे से नदारद हैं। जैसे कि बंबई के सिनेमा से उनके जुड़ाव की बातें लगभग सिरे से गायब हैं या हैं भी तो प्रसंगवश। यह पुस्तक उनकी कन्नड़ में लिखी और 2011 में प्रकाशित हुई मूल पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद का अनुवाद है। अंग्रेजी अनुवादक श्रीनाथ पेरूर ने मूल पुस्तक में किंचित संशोधन भी किए हैं। हिंदी में इसका अनुवाद सुपरिचित अनुवादक मधु बी जोशी ने किया है। अगर इसमें किसी को यांत्रिकता महसूस होती है तो यह शायद मूल पुस्तक के उस नैरेटिव की ही समस्या है जो बहुत ज्यादा मेथॉडिकल है और जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। (समकालीन भारतीय साहित्य के जनवरी-फरवरी 2023 अंक में प्रकाशित)

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