हाथरस शैली का रस

भोपाल के रवींद्र भवन में बीते सप्ताह नौटंकी-उत्सव का आयोजन किया। राज्य के संस्कृति संचालनालय के इस आयोजन में हाथरस शैली की नौटंकियां पेश की गईं। कानपुर शैली की तुलना में हाथरस शैली को गायकी प्रधान माना जाता है। बगैर स्वर को तोड़े लंबे-लंबे आलापों की गलेबाजी का इसमें काफी महत्त्व है। कई दृश्यों में अभिनेतागण इस हुनर का मुकाबला जैसा करते नजर आते हैं। कोई तय नहीं कि इस मुकाबले में गौण किरदार मुख्य किरदार से बाजी मार ले जाए। उत्सव के पहले दो दिन मथुरा के स्वस्तिक ग्रुप ने 'अमरसिंह राठौर' और 'हरिश्चंद्र तारामती' प्रस्तुतियां कीं। अमरसिंह राठौर बादशाह शाहजहां का बहादुर सिपहसालार है, जिससे 'राजपूतों का दुश्मन' वजीरेआला सलावत खां रंजिश पाले हुए है। अमर सिंह अपनी दुल्हन का गौना कराने दरबार से छुट्टी पर गया है। रास्ते में उसे प्यास से बेहाल एक पठान मिलता है। पानी पिलाने से वह अमर सिंह का मुरीद और दोस्त बन जाता है। उधर लौटने में देरी पर अमर सिंह पर साढ़े सात लाख रुपए जुर्माना लगा दिया गया है। लेकिन सवाल है कि जुर्माना वसूल कौन करे। गंवई अतिशोयक्ति की हद यह है कि नायक की नंगी तलवार से बादशाह भी डरता फिर रहा है। नायक एक ओर इतना जांबाज दूसरी ओर इतना भावुक भी है कि पत्नी हाड़ी रानी के इसरार ने उसे लाचार कर दिया है। 'इधर प्यारी का प्यार है उधर रजपूती शान, आह भला मैं क्या करूं हे मेरे भगवान'। प्यारी जुर्माना भरने के लिए अपना नौ करोड़ का हार देने को तैयार है, पर अमर सिंह के गुरूर को यह मंजूर नहीं। ऐसा वीर सैनिक आखिर मारा जाता है अपनों की ही दगाबाजी से। दोस्ती और बदले की कुछ और तफसीलों में पठान दोस्त और सलावत खां भी मारे जाते हैं और आखिर में बादशाह सलामत इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि 'न हिंदू बुरा है न मुसलमान बुरा है, आ जाए बुराई पे तो ये इंसान बुरा है'। प्रस्तुति के निर्देशक संदीपन नागर आधुनिक थिएटर से भी जुड़े हुए हैं, इसलिए उनकी प्रस्तुति में एक परिष्कार देखा जा सकता था। वे हाड़ी रानी के विलाप को रंगमंचीय दृश्य की ऊंचाई पर ले जाते हैं। हाड़ी रानी ने चूड़ियां तोड़ दी हैं, उसके बाल खुले हैं। पति की मौत पर उसका हृदयविदारक क्रंदन एक गंभीर दृश्य बन गया है। संदीपन नागर नौटंकी के अनगढ़पन को कम करके उसे थीम पर ज्यादा फोकस करते हैं और साथ ही अभिनय की हर संभावना का पूरा उपयोग करते हैं। वे संवादों को नक्कारे और हारमोनियम के स्वरों में खो जाने से बचाते हैं। इससे विषयवस्तु की स्पष्टता बनी रहती है। वस्त्र विन्यास में चटकपन और प्रकाश योजना के जरिए भी वे दृश्य का प्रभाव बढ़ाने में सफल रहे हैं। पारंपरिक नौटंकी में संवादों की लंतरानियों को जिस बीच नक्कारा और हारमोनियम कुछ और ऊंचाई पर ले जा रहे होते हैं उस बीच इशारों में घटित होने वाला अभिनय एक दिलचस्प शै है। तकरार या मान मनौव्वल के घटित हो चुके दृश्य का यह 'एक्सटेंशन' मानो एक छाया-दृश्य होता है। संदीपन नागर ने इसका अच्छा इस्तेमाल किया है।
अगले दिन की प्रस्तुति हरिश्चंद्र तारामती में पारंपरिक नौटंकी के लटके -झटके अपने पूरे विस्तार के साथ मौजूद थे। हरिश्चंद्र परिवार की व्यथा-कथा को अंजाम देने में लगे मुनिवर से अचानक एक पात्र आकर कहता है कि कुछ लोक कलाकार उनका मनोरंजन करने की अनुमति चाहते हैं। और फिर दो लोक कलाकार स्त्रियां ठुमके लगाकर गाती हुई दिखाई देती हैं- 'मेरे बालम छोटे से नन्हें से, पान खिला दे मेरी जान'। मुनिवर हरिश्चंद्र से संकल्प में कुंजी और लगाम लेकर उनका सब कुछ ले चुके हैं, अब दक्षिणा में देने के लिए उनके पास कुछ नहीं बचा है। ऐसे में उन्हें काशी ले जाकर बेच दिया जाता है। हरिश्चंद्र तारामती भारतीय शुद्धतावादी मानस का एक विलक्षण आख्यान है। मुनिवर की कुटिलता से निस्संग हरिश्चंद्र अपने सत्य की रक्षा में सन्नद्ध है। नगर छोड़ने की मार्मिक स्थिति निकल चुकी, पैरों में छाले पड़े हैं, कंठ सूख चुके हैं पर तीनों प्राणियों की दृढ़ता में कोई कमी नहीं। तारामती कहती है- 'चाहे भूखे रहें चाहे प्यासे रहें, कैसे भी हों दुखों को उठाएंगे हम/ इनके कहने में जो तुम आओ पिया, सत्य न रहेगा खुदा की कसम'। नौटंकी में इस भीषण स्थिति के बरक्स कॉमिक रिलीफ का भी प्रबंध है। काशी में तीनों प्राणियों को खरीदने के लिए तरह तरह के खरीदार दिखते हैं। मारवाड़ का एक शख्स जो उन्हें खरीदने आया है उसे मुनिवर की भाषा समझ नहीं आ रही। वो तीन प्राणी को तीन पाव पानी समझता है और तीन मनुष्य को तीन मन भुस। तब मुनिवर उसी की भाषा में बताते हैं- एक बींदनी, एक मोठ्यार, एक तापड़। और फिर कहते हैं 'अब आया लैन पर'। इसी तरह एक खरीदार कहती है- 'हमें लेडीज चाहिए'। किसी दौर में रात भर चलने वाली नौटंकी को उपकथाओं से एक विस्तार मिलता था। पहली नौटंकी में पठान दोस्त की तरह यहां माली-मालन की उपकथा है।
कानपुरी शैली में जो रस बहरे तबील और नक्कारे की जुगलबंदी से बनता है हाथरस शैली में वह गलेबाजी की रागदारी से बनता है। बादशाह और मुनिवर बने मुन्ना मास्टर और रामसिंह बने अमरनाथ वर्मा इसके पारंगतों में शुमार किए जाते हैं। इनके अलावा हाड़ीरानी और तारामती बनीं सितारा देवी में भी गायकी और अभिनय की बड़ी प्रतिभा सहज दिखाई देती है। प्रस्तुति के निर्देशक मोहन स्वरूप भाटिया हैं। उनका कहना है कि नौटंकी को राष्ट्रीय ऑपेरा का दर्जा दिया जाना चाहिए।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

न्यायप्रियता जहाँ ले जाती है

भीष्म साहनी के नाटक

आनंद रघुनंदन