जीवट के अरुणप्रकाश

हिंदी की प्रकाश प्रत्यय वाली कहानीकार त्रयी में से अरुण प्रकाश उस क्लासिक कथा-मुहावरे के शायद अंतिम लेखक थे जहां संवेदना की डिटेलिंग धीरे-धीरे पाठक को घेरती है। उनकी बहुत पहले पढ़ीं 'जलप्रांतर', 'भैया एक्सप्रेस' और 'बेला एक्का लौट रही है' आदि कहानियों का प्लॉट अब धुंधला ही याद है। लेकिन यह याद है कि उनकी कहानियों में सुख छोटे-छोटे थे, लेकिन दुख ज्यादा बड़ा था। स्थितियों के समांतर एक अप्रकट यथार्थ वहां पात्र के भीतर घटता हुआ महसूस होता था। उनके पात्र उस दुनिया के थे, जहां कुछ छोटी-छोटी उम्मीदें होती हैं, और कुछ है जो सालता रहता है। अरुणप्रकाश का अपना जीवन भी ऐसी ही कई सालती रहने वाली कहानियों से बना था। उस दौरान पढ़ी उनकी कई कहानियों में एक होटल के स्टीवर्ड के जीवन पर भी थी। बाद में कभी हंस के स्तंभ 'आत्मतर्पण' में उनके लिखे का यह अंश पढ़ते हुए यह अनुमान हुआ कि शायद उस कहानी के किरदार वे स्वयं ही थे : ''लोदी होटल में वुडलेंड्स रेस्त्रां में अज्ञेय इलाजी के साथ आए थे. मैंने भोजन परोसा, भोजन के बाद जब टिप के पैसे इलाजी ने छोड़े तो अज्ञेय जी ने धीमे से उनका हाथ रोक दिया. उनसे टिप लेकर मैं एक बार और मर जाता।'  उनके इस लेख का आरंभ ही कुछ इस तरह है- 'कितनी मौतों का जिक्र करूं?'...''
हंस में उनका वह आत्मवृत्त 1992 में यानी आज से बीस साल पहले छपा था। वे उस दौरान सरकारी नौकरी छोड़कर अखबारों की नौकरियों और टेलीविजन सीरियलों वगैरह के लिए लिखने की अस्थिर दुनिया में कई तरह की चीजों से जुड़े थे। वे इस दुनिया में क्या करने आए थे? आत्मसम्मान की आश्वस्ति देने वाली नौकरी छोड़कर छल-कपट से भरी और आत्मविश्वास छीन लेने वाले इस नई आजीविका से उनके जैसा संवेदनशील और जीवन में बहुत कुछ भुगत चुका व्यक्ति आखिर क्या उम्मीद करता था?... दरअसल हंस के उसी लेख में उन्होंने अपनी मां के बारे में भी कुछ ऐसा लिखा था, जो मुझे हमेशा याद रहा. उन्होंने लिखा था- 'होश आते ही मैं मां से घृणा करने लगा था. वह मेरे लिए ममता की छांव नहीं आतंक की स्मृति थी. तभी तो भरी नींद से मुझे जगाकर मेरे चाचा ने बताया कि मेरी मां अस्पताल में मर गई तो मैं रोया नहीं और मेरे मुंह से एकबारगी निकला- भले मर गई!' 
यह कैसी विडंबना थी कि एक सांसद के पुत्र होकर भी उन्हें बचपन से ही अभावों से जूझना पड़ा। परायों पर निर्भरता के अपमान और फिर बीमारियां। उसी आत्मवृत्त में उन्होंने लिखा- ''ग्यारह महीने की जानलेवा बीमारी के बाद उठा तो बाईं टांग छोटी हो चुकी थी. वैशाखी से चलते-चलते मेरी आत्मा भी विकलांग हो गई थी.''
लेकिन महत्त्व की बात यह है कि उनकी आत्मपीड़ा ने हमेशा एक जीवट की ओर प्रस्थान लिया। चाहे वह ट्रेड यूनियन से उनका जुड़ाव हो, या सरकारी नौकरी छोड़ने का निर्णय।... बहरहाल अरुणप्रकाश प्राइवेट नौकरियों और फ्रीलांसिग के इस तंत्र में भी शायद बहुत सफल नहीं हुए। शायद हो भी नहीं सकते थे। उन्हें देखकर लगता था कि वे महत्त्वाकांक्षा और ईमान के विपरीत ध्रुवों के बीच अपने लिए कोई सही जगह तलाश रहे थे। लेकिन हिंदी की मौजूदा दुनिया में महत्त्वाकांक्षा जैसे लीचड़ किस्म के शब्द की चालाकियां उन्हें नहीं आती थीं, याकि वह उनकी फितरत नहीं थी। इसी संदर्भ में उनकी एक कहानी 'गजपुराण' की याद आती है, जो बीच में चलन में आए पाठकों को चौंका देने वाले नकली किस्म के सर्रियल मुहावरे में लिखी गई मालूम होती थी। किसी कार्यक्रम में अरुणप्रकाश उसका पाठ कर रहे थे। कहानी लंबी थी और सुनने वालों को बोर कर रही थी। कई पन्ने पढ़ने के बाद उन्हें इसका इलहाम हुआ, ऐसे में बाकी की कहानी को संक्षेप में बताकर उसे निपटा देना पड़ा।
उनसे मेरी एक लंबी मुलाकात तब हुई थी जब वे साहित्य अकादेमी की पत्रिका के संपादक थे। ऐसी चर्चाएं हवा में थीं कि वे वहां बिहार के किसी लिंक से पहुंचे हैं। पर बातचीत के दौरान उनसे उस पूरी प्रक्रिया के बारे में सुनकर कि कैसे उन्होंने पूरा आवेदन तैयार किया, कैसे इंटरव्यू हुआ, कैसे कन्नड़ की किसी बोली के बारे में पूछे गए एक सवाल का जवाब उन्हें क्लिक कर गया-- मुझे यकीन हुआ कि इस डिटेलिंग में कोई बनावट नहीं हो सकती। उनकी देहभाषा और व्यवहार में एक ऐसा देशज तत्तव था जो शायद कुछ मौकों पर उनके आड़े आता रहा होगा, पर अगर कोई उससे परे होकर देख सकता, तो उसे जिंदगी की पड़ताल करता हुआ एक गहरापन उनमें सहज ही दिख जाता। उनकी बौद्धिकता में कोई हिप्पोक्रेसी नहीं थी। मुझे असगर वजाहत के उपन्यास 'कैसी आगि लगाई' के बारे में कही उनकी यह बात याद रही कि वह एक अनुभव-आक्रांत उपन्यास है। बाहर अंधेरा धीरे-धीरे गाढ़ा हो रहा था और भीतर देश-समाज के बारे में कोई बात चल रही थी। वे उन लोगों में थे जो आसपास हो रहे बदलावों में कोई उम्मीद देखते थे। मैंने उनसे प्रश्न किया कि भूमंडलीकरण के कारण अनायास चली आई बहुत सी चीजों और प्रभावों को क्या आप बदलाव मानते हैं, जबकि यह तो उसी तरह की बात है कि आपने कपड़े तो बदल लिए पर शरीर भीतर से वैसा का वैसा ही जर्जर है। उन्होंने इस प्रश्न का बहुत सटीक और आंख खोल देने वाला जवाब दिया था। उन्होंने कहा कि ''बदलाव दो तरह का होता है- रिवोल्यूशनरी और इवोल्यूशनरी; तुम रिवोल्यूशनरी बदलाव की बात कर रहे हो, पर इन इवोल्यूशनरी परिवर्तनों के महत्त्व को कभी कम नहीं समझना चाहिए। कई बार रिवोल्यूशन की जमीन इन्हीं के जरिए तैयार होती है।'' 
अरुण जी का पूरा जीवन नियति से टकराते बीता। मेरी जानकारी के मुताबिक वे एक विशुद्ध नास्तिक थे। नास्तिक को अपनी सारी लड़ाई अकेले लड़नी होती है। उसका साथ देने के लिए वहां कोई ईश्वर नहीं होता। उनके मामले में तो जैसे ईश्वर उल्टे उनके मुकाबले खड़ा था। बार-बार उनके जीवट का इम्तहान लेता। साहित्य अकादेमी की अच्छी-भली नौकरी के दौरान भी उन्हें बीमारी ने आ घेरा। पर वे अपनी लड़ाई में कभी हारे या थके नहीं। अपने अंतिम दिनों में बिस्तर पर पड़े-पड़े भी उनके पास लिखने की कई योजनाएं थीं, जिनका जिक्र वे मिलने जाने वालों से किया करते थे।

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