इतिहास से मुगलों और डार्विन को हटाए जाने की पूर्वकथा

 एस.एल. भैरप्पा (प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक)

वर्ष 1969-70 में श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने नेहरू-गाँधी परिवार के करीबी राजनयिक जी. पार्थसारथी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। कमेटी का काम था-- शिक्षा के माध्यम से राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोना। उस समय मैं एनसीईआरटी में शैक्षणिक दर्शनशास्त्र विषय में रीडर था और समिति के पाँच सदस्यों में चुना गया था। हमारी पहली बैठक में श्री पार्थसारथी ने बतौर कमेटी चेयरमैन प्रायः एक कूटनीतिक भाषा में हमें समिति का उद्देश्य समझाया : "यह हमारा कर्तव्य है कि हम बढ़ते बच्चों के मन में ऐसे कांटे न बोएँ जो आगे चलकर राष्ट्रीय एकता में बाधा खड़ी करें। ऐसे काँटे ज्यादातर इतिहास के पाठ्यक्रमों में मिलते हैं, और कभी-कभी भाषा और समाज विज्ञान के पाठ्यक्रमों में भी। हमें उन्हें निकाल बाहर करना है। हमें केवल ऐसे विचारों को शामिल करना है जो हमारे बच्चों के मन में राष्ट्रीय एकता की अवधारणा को मजबूती से बिठाते हों। इस समिति को यह महती जिम्मेदारी दी गई है।”

 

बाकी चार सदस्य उनकी बात के समर्थन में सम्मान से अपना सिर हिला रहे थे। लेकिन मैंने कहा, "सर, मैं आपके शब्दों को समझ नहीं पा रहा हूँ। क्या आप कृपया कुछ मिसाल देकर बताएँगे?" उन्होंने जवाब दिया : "महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर को लूटा, औरंगजेब ने काशी और मथुरा में मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवाईं, जजिया लागू किया- क्या वर्तमान हालात में इस तरह के बेकार तथ्यों को बताकर एक मजबूत भारत का निर्माण संभव है? सिवाय नफरत पैदा करने के क्या इनसे कुछ और हासिल होगा?”

 

"लेकिन क्या वे ऐतिहासिक सच नहीं हैं?" मैं अपनी जगह कायम रहा।

 

"ढेरों सच हैं।” उन्होंने प्रतिवाद किया, “इन सचों का वाजिब तरह से इस्तेमाल करना ही इतिहास पढ़ाने का विवेकसम्मत तरीका है।" बाकी चार सदस्यों ने “हाँ हाँ” कहते हुए अपना सिर हिलाया। लेकिन मैं उन्हें छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। “आपने खुद काशी और मथुरा का उदाहरण दिया। आज भी हर साल देश के कोने-कोने से लाखों तीर्थयात्री इन स्थानों पर दर्शन के लिए आते हैं। वे ध्वस्त किए गए मंदिरों की दीवारों, स्तंभों और खंबों का उपयोग करके बनाई गई विशाल मस्जिदों को खुद देख सकते हैं। वे हाल में मस्जिद के पीछे एक कोने में गौशाला नुमा कुटिया भी देख सकते हैं, जो उनका मंदिर है। ये सभी तीर्थयात्री ऐसे भयानक ढाँचों को देखकर व्यथित होते हैं। वे घर लौटने के बाद अपने रिश्तेदारों को अपने मंदिरों की दुर्दशा के बारे में बताते हैं। क्या इससे राष्ट्रीय एकता सृजित हो सकती है? आप इस इतिहास को स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में छुपा सकते हैं। लेकिन क्या हम ऐसे तथ्यों को छुपा सकते हैं जिन्हें ये बच्चे भ्रमण पर जाने पर स्वयं अपनी आँखों से देखते हैं? शोधकर्ताओं ने भारत में तीस हजार से अधिक ऐसे खंडित मंदिरों की सूची बनाई है। क्या हम उन सबको छिपा सकते हैं?”

 

श्री पार्थसारथी ने मुझे टोका और पूछा: “आप दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर हैं। क्या आप कृपया हमें बता सकते हैं कि इतिहास का उद्देश्य क्या है?”

 

"इतिहास के उद्देश्य को कोई भी परिभाषित नहीं कर सकता। हम नहीं जानते कि भविष्य में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के कारण चीजें कैसे आकार लेंगी। कुछ पाश्चात्य विचारक इसे इतिहास का दर्शन कह सकते हैं। लेकिन ऐसे विचार व्यर्थ हैं। यहाँ हमारी चर्चा होनी चाहिए कि इतिहास पढ़ाने का उद्देश्य क्या है? इतिहास हमारे अतीत में घटी घटनाओं के सच को बाहर लाना है; शिलालेखों, अभिलेखों, साहित्यिक स्रोतों, अवशेषों, कलाकृतियों आदि के अध्ययन से प्राचीन मानव जीवन के बारे में जानना है। हमें सीखना चाहिए कि हम पुनः वो गलतियाँ न करें जो हमारे पूर्ववर्तियों ने कीं। हमें उनके द्वारा अपनाए गए महान गुणों को आत्मसात करना है; इतिहास के सच हमें इन सभी बातों को सीखने में मदद करते हैं।”

 

“क्या होगा अगर सच की यह खोज अल्पसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुँचाती है? क्या हम समाज को बाँट सकते हैं? क्या हम विषबीज बो सकते हैं?” उन्होंने मुझे ऐसे सवाल करने से रोकने की कोशिश की।

 

“सर, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के आधार पर वर्गीकरण अपने आप में समाज को विभाजित करना होगा, या कम से कम समाज को विभाजित करने की दिशा में एक कदम होगा। 'विषबीज' का यह विचार पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। अल्पसंख्यक महमूद गजनवी और औरंगजेब को अपने ही लोग और अपना हीरो क्यों समझें? औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता ने मुगल साम्राज्य को नष्ट कर दिया। अकबर के समय में यह अपने चरमोत्कर्ष पर था, क्योंकि उसकी सहिष्णुता की नीति ने धार्मिक और सामाजिक सद्भाव को जन्म दिया। क्या हम बगैर ऐतिहासिक सच्चाइयों को छुपाए बच्चों को ऐसा पाठ नहीं पढ़ा सकते? हमें इतिहास से क्या सीखना है यह बताने से पहले क्या हमें ऐतिहासिक सच्चाइयों की व्याख्या नहीं करनी चाहिए? सच्चे इतिहास को छुपाने का यह विचार सियासी दखलंदाजी है। यह चलन ज्यादा दिन नहीं चलेगा। चाहे वे अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक, अगर शिक्षा भावनात्मक परिपक्वता के साथ सच्चाई का सामना करने का चरित्र नहीं देती है, तो ऐसी शिक्षा अर्थहीन और खतरनाक भी है।” मैंने उत्तर दिया।

 

पार्थसारथी मेरी बात से सहमत थे। उन्होंने कहा कि वे मेरी काबिलियत और स्पष्ट रूप से सोचने की क्षमता की सराहना करते हैं। लंच ब्रेक के दौरान उन्होंने मुझे एक तरफ बुलाया। मेरे कंधों पर हाथ रखकर अपनी निकटता का संकेत दिया। फिर उन्होंने एक विजयी मुस्कान के साथ कहा : "आप जो कहते हैं वह अकादमिक रूप से सही है। आप जाइए और जो आपने कहा उसके बारे में एक लेख लिखिए। लेकिन जब सरकार पूरे देश के लिए कोई नीति बनाती है, तो उसे सभी लोगों के हितों का विचार करना पड़ता है। बौद्धिक रूप से शुद्ध सिद्धांत किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करते हैं।”

 

अगले दिन जब हम मिले मैं तब भी अपनी राय पर कायम रहा। मैंने तर्क दिया कि वह इतिहास जो सत्य पर आधारित नहीं है वह व्यर्थ और खतरनाक है। पार्थसारथी के चेहरे पर झुंझलाहट दिखने के बाद भी मैं अपनी राय से टस से मस नहीं हुआ। सुबह का सत्र बिना किसी निष्कर्ष पर पहुँचे समाप्त हो गया। पार्थसारथी ने मुझसे दोबारा बात नहीं की। हम एक पखवाड़े के बाद फिर मिले। समिति का पुनर्गठन कर लिया गया था, जिसमें मैं नहीं था। मेरी जगह अर्जुन देव नाम के इतिहास के एक लेक्चरर ले लिए गए थे, जो अपने वामपंथी झुकाव के लिए जाने जाते थे। एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित विज्ञान और सामाजिक अध्ययन की संशोधित पाठ्य पुस्तकें और इनके पाठों में शामिल किए गए नए अध्याय उनके मार्गदर्शन में लिखे गए। ये वे पुस्तकें हैं जो कांग्रेस और कम्युनिस्ट शासित राज्यों में पाठ के रूप में निर्धारित की गईं या उन्होंने इन राज्यों में पाठ्य-पुस्तक लेखकों का निर्देशन किया।

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