सावरकर की पेंशन, सैयद अहमद की पेंशन
सावरकर को 1924 में कैद के 13 साल बाद रत्नागिरि जेल से तो रिहा किया गया, लेकिन रत्नागिरि जिले से बाहर न जाने की बंदिश लगा दी गई, जो कि एक भिन्न तरह की कैद थी। वहाँ उन्होंने पाँच साल अपने साधनों से गुजारा किया, लेकिन जब जीवनयापन का संकट गहराने लगा तो उनकी शिकायत पर 1929 से उन्हें 60 रुपए की मासिक पेंशन ब्रिटिश प्रशासन की ओर से दी जाने लगी। ये 60 रुपए उस वक्त कितने थे? इसके लिए सावरकर-विरोधी एक दस्तावेज ढूँढकर लाए। यह वो सरकारी पत्र है जो अगले ही साल यानी 1930 में यरवदा जेल में कैद किए गए गाँधी के ऊपर खर्च होने वाली रकम के लिए जारी किया गया था। यह रकम 100 रुपए प्रतिमाह थी। प्रतिमाह के लिए अंग्रेजी शब्द mensem का अनुवाद सावरकर-विरोधियों ने ‘प्रतिवर्ष’ कर दिया और बताया कि गाँधी पर प्रतिमाह सिर्फ सवा आठ रुपए खर्च किए जाते थे। बहरहाल, गाँधी पर खर्च होने वाले 100 रुपए प्रतिमाह उनके लिए विशेष रूप से नियत की गई राशि हो ऐसा नहीं था। पत्र में बताया गया है कि यही राशि बंगाली कैदी सतीश चंद्र पर भी खर्च की जाती थी। यानी सावरकर को बतौर पेंशन दी जाने वाली राशि अपने समय के हिसाब से न्यूनतम थी।
लेकिन सावरकर से 71 वर्ष पहले 1858 में सैयद अहमद को खुलेआम अंग्रेजों की चापलूसी के लिए दी जाने वाली रकम सुनकर तो हैरान ही हुआ जा सकता है। यह रकम 200 रुपए प्रतिमाह थी। इसके अलावा एक लाख रुपए की जागीर और 81 हजार रुपए अलग से दिए गए। इन सैयद अहमद की तस्वीर आज शान से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में लगी है, और इरफान हबीब उन्हें मुसलमानों का महान समाज सुधारक बताते हैं और जन संस्कृति मंच जैसा संगठन उनपर गोष्ठी करता है। सावरकर को समाज सुधारक कोई नहीं कहता, जबकि वर्ण व्यवस्था के विरोध में उनसे ज्यादा तीखे विचार मेरी जानकारी में आज तक किसी सवर्ण ने व्यक्त नहीं किए।
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