बिठूर में
नाना के महल को अंग्रेजों ने जला दिया था। पूछने पर पता चला कि उस खंडहर की तरफ जाने कोई रास्ता नहीं है। अलबत्ता एक परिसर है जिसमें जहाँ-तहाँ से चीजें जुटाकर एक म्यूजियम बनाया हुआ है, और बीस रुपए फी बंदा कमाई की जा रही है। म्यूजियम का कोई स्वरूप नहीं है और आजादी के इतिहास में कानपुर के प्रसंग की कुछ चीजें वहाँ बेतरतीब नुमायाँ हैं। कहीं ‘प्रताप’ अखबार की प्रति का प्रदर्शन है, कहीं कानपुर के अलग-अलग दौर में रहे नामों की स्पेलिंग का चार्ट लगाया हुआ है। पुराने दौर के कुछ फरमान भी लगे थे, लेकिन ज्यादातर प्रदर्शित चीजें बगैर तारीखी उल्लेख के ही लटकाई हुई हैं। एक ईंट पर 1881 लिखा हुआ था, जिसकी प्रामाणिकता पर मुझे संदेह हुआ। मैंने सोचा कोई पौने दो सौ साल पुरानी चीज दिखाई दे, पर वैसा कुछ भी नहीं था। उजबकपन की यह हालत थी कि सोशल मीडिया पर प्रचारित ‘झाँसी की रानी की असली फोटो’ परिसर के प्रवेश द्वार पर बड़ी करके लगाई हुई थी। परिसर में नाना साहब की मूर्ति के पास दर्शाए गए सेल्फी पॉइंट पर फोटो खिंचाने के अलावा कोई रोचकता नहीं है। ऐसे परिसर एकांत की तलाश में भटकते प्रेमी युगलों के लिए काम के होते हैं जो यहाँ भी दिखाई दिए।
परिसर से थोड़ा ही आगे ब्रह्मावर्त घाट है, जहाँ से नौका पर नाना हमेशा के लिए यहाँ से गए होंगे, और जहाँ गंगा में उन्होंने धरोहर-विसर्जन किया होगा। हमने वहाँ नौका विहार किया। इस पूरी लोकेशन में पारंपरिकता की एक आभा है। नदी में आगे गुजरते हुए किनारों पर कोई पेड़, कोई मकान, कोई मंदिर या खंडहर सब वक्त की एक रौ का हिस्सा थे। दूसरे किनारे पर पसरी रेत और खेतों में दूर तक कहीं कोई मकान या इमारत नहीं। शाम का वक्त था और घाट पर दो-चार लोग ही दिख रहे थे। नदी की अर्चना कराने वाला पंडित, मंदिर का पुजारी, नाव वाला लड़का भले और सीधे लोग थे। बाहर आकर कुल्हड़ में जो चाय पी वो भी सिर्फ पाँच रुपए की थी।
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