पूंजी और परंपरा की छवियां

एच एस शिवप्रकाश का कन्नड़ नाटक 'मस्तकाभिषेक रिहर्सलु' परंपरा और पूंजी की दो स्थितियों को दिखाता है। एक नाट्य-मंडली बाहुबली गोम्मटेश्वर के जीवन पर नाटक तैयार कर रही है, जिसपर एक उद्योगपति का पैसा लगा हुआ है। लेकिन उद्योगपति भाइयों की मुकदमेबाजी में एक भाई के हार जाने पर दूसरा भाई नाटक के प्रसारण अधिकार एक अमेरिकी टीवी चैनल को बेच देता है। जिस बीच नाटक का रिहर्सल चल रहा है, उसी दौरान गोम्मटेश्वर की मूर्ति का महामस्तकाभिषेक भी हो रहा है। निर्देशक सुरेश अनगल्ली की इस प्रस्तुति में हर बारह साल में आयोजित होने वाले जैन धर्म के इस उत्सव के वास्तविक वीडियो फुटेज भरपूर मात्रा में इस्तेमाल किए गए हैं। इससे परंपरा में शामिल बीहड़पन के दृश्य अपने में ही एक कथानक बनते हैं। पूर्णतः नग्न साधु..., उनके चक्कर लगाती स्त्रियां। टीवी चैनल के पत्रकार पूरे जोशोखरोश से आयोजन को कवर कर रहे हैं। मंच के बैकड्रॉप में लगे परदे पर खुद ही अपना केश-लुंचन करते साधु दिखाई देते हैं। सिर और दाढ़ी-मूंछों का एक-एक केश खींच-खींचकर उखाड़ने की दर्दनाक प्रक्रिया को अपनी आस्था से फतह करते हुए। लेकिन साधु के लिए जो आस्था है, टीवी की दर्शकीयता के लिए वह एक उत्तेजक 'विजुअल' है। टीवी कैमरे अपने तरीके से इनका दोहन कर लेने पर आमादा हैं। एक कैमरेवाला आयोजन में आए नवविवाहित दंपती से पूछता है कि वे हनीमून पर जाने के बजाय यहां क्यों आए हैं। पर नवविवाहिता को तो हनीमून का अर्थ ही नहीं पता। वह तो अपने बड़ों के कहने पर बाहुबली का आशीर्वाद लेने आई है।
उधर रिहर्सल में बाहुबली की कहानी चल रही है। बाहुबली तीन लोक विजित कर चुके बड़े भाई भरत के आगे झुकने को तैयार नहीं है। ऐसे में युद्ध होता है- दृष्टि युद्ध, जल युद्ध। हर बार बाहुबली की जीत हो रही है। अंतिम मल्ल युद्ध में उसके नामानुरूप बाहुबल के आगे भरत की मृत्यु संभावित है। पर ऐन वक्त पर बाहुबली को राज्य के लालच में की जाने वाली भाई की हत्या में निहित अविवेक का बोध होता है। वह लालची भरत को धराशायी कर धरा का अपमान नहीं कर सकता। पर उसके पीछे हटने पर भी भरत का प्रतीक चक्र रुक गया है। शाही चक्र धर्म चक्र से हार गया है। लेकिन वहीं बाहुबली गोम्मटेश्वर के मिथ में निहित निग्रह या वैराग्य को पूंजी का तंत्र हरा रहा है। चैनल का प्रोड्यूसर रिहर्सल टीम को अपनी तरह से नचा रहा है। बाहुबली बने अभिनेता ने शायद किरदार को आत्मसात कर लिया है। चरित्र की अनासक्ति उसमें प्रोड्यूसर के प्रति चिढ़ पैदा कर रही है। वह कई बार उससे भिड़ चुका है। वह कास्ट्यूम खोल रहा है। क्या वह सारे वस्त्र खोल देगा? 'नहीं, तुम नंगे सत्य के लायक नहीं हो' वह प्रोड्यूसर से कहता है।
निर्देशक सुरेश अनगल्ली की प्रस्तुति जितना अपनी गति में उतना ही दृश्यात्मक अवयवों में दर्शकों को बांधे रखती है। वीडियो दृश्यों के अलावा उसमें दर तक चलने वाला नर्तकी नीलांजनी का नृत्य है, रिहर्सल में पात्रों की टकराहटें हैं। चाय लेकर आने वाला मुंडू कई बार पात्रों से टकराता है और उसकी सारी गिलासें गिर जाती हैं। इनके अलावा बैटरी के आधार पर रखा भरत का चक्र भी अपने में चाक्षुष असर बनाता है। प्रस्तुति स्थितियों से लबालब भरी हुई है। दर्शकों के लिए उसमें कोई मोहलत नहीं है। सुरेश अनगल्ली मानते हैं कि उनकी यह प्रस्तुति पाठ का हूबहू मंचीय अनुवाद नहीं है। बल्कि इसका खिलंदड़ापन पाठ और प्रस्तुति में एक संवाद बनाता है। शायद इसी वजह से वे इस प्रस्तुति में पाठ के साथ-साथ उस केऑस का भी पुट देते हैं जो हमारे वर्तमान की एक सच्चाई है।


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