बेवफ़ाई एक बहाना है


श्रीराम सेंटर रंगमंडल की प्रस्तुति ‘स्टक’ में दो युवा दंपती पहाड़ पर ट्रैकिंग के लिए गए हुए हैं। इसी बीच वहाँ बर्फ गिर गई है और उन्हें अपने गढ़वाली गाइड के घर के पास कैंपों में रुकना पड़ा है। इसके बाद इस ‘मनोवैज्ञानिक हास्य’ में रिश्तों की साँप-सीढ़ी का खेल शुरू होता है, जिसके शुरू में लगता है मानो प्रस्तुति के लेखक-निर्देशक मनीष वर्मा किसी कांसेप्ट तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अंततः यह एक वैसी ट्रिकी कहानी साबित होती है जैसी आजकल सिनेमा और वेब सीरिज में भी काफी कही जा रही हैं। तरह-तरह की तरकीबों से कहानी में ऐसा उतार-चढ़ाव कायम रखना कि दर्शक उलझा रहे यही इन कहानियों का प्राप्य होता है। फिर भी, दांपत्य में बेवफाई और अविश्वास के चिरंतन काल से चले आ रहे कथ्य में आज के टेक-यथार्थ की पीढ़ी ने क्या कुछ नया जोड़ा है यह इस नाटक से मालूम किया जा सकता है। इस पीढ़ी की समस्या है कि यह बेलगाम ढंग से सब कुछ जानती है। लेकिन इसका अंतःकरण अपनी धुरी पर नहीं है। वह लिबरेट होकर आवारा हो गया है।
दोनों दंपतियों में एक की बीवी ने दूसरे के पति को बेवफाई के किसी कृत्य में शामिल देख लिया है, अब इसका खुलासा वो उसकी पत्नी उर्फ अपनी सहेली से करे या नहीं इस बात पर उसकी अपने पति से बहस हो रही है। इस बहस से एक ही तो जिंदगी है, वी लाइ टु सरवाइव, रोज-रोज चावल-दाल खाते रहने की ऊब, फिजिकल बट्रायल बनाम मेंटल बट्रायल आदि बहुत सी बातें सामने आती हैं। ये बहस जिस महानगरीय जिंदगी से निकली है उसके समांतर एक अन्य जिंदगी का उदाहरण टूर-गाइड देवराज और उसकी बीवी सुनीता का केस है। सच्चाई यहाँ भी पूरी तरह स्पष्ट है, लेकिन जीने का तरीका अलग है। सुनीता का पति भी हालाँकि दूसरी औरत के पास जाता है, लेकिन चूँकि सब पैदा होते हैं मर जाने के लिए, और चूँकि सबको जीने का बहाना चाहिए होता है, और चूँकि सुनीता को एक बच्चा इस बहाने के रूप में चाहिए, इसलिए उसे अपने पति से बेवफाई की नहीं बल्कि बच्चा न दे पाने की शिकायत है।
इमोशन अब पहले की तरह हार्दिक नहीं रहा, वह एक जैविक शै में बदल गया है, जिसे चुइंगम की तरह इधर-उधर खींचा-फैलाया जा सकता है। इस क्रम में जिंदगी एक विराट स्फुलिंग में परिवर्तित हो गई है। वो पात्र जो थोड़ी देर पहले कसम खा कर अपनी बीवी से सच बोलने का दावा कर रहा था अब बेझिझक उसे डिच कर रहा है। दरअसल सब एक-दूसरे को डिच कर रहे हैं। उनकी बहस भी एक दिल-बहलाव ही है, किसी नैतिक-बौद्धिक नतीजे तक पहुँचना उसका उद्देश्य नहीं है। और यही आज का यथार्थ है।
नाटक शुरू होने से पहले मंच एक पेंटिंग की तरह बना हुआ है, जिसमें हरे रंग के बैकड्राप में बहुत सी चीजें हवा में लटकी हुई हैं- कोई कुर्सी, कोई तंबू...नीचे सतह पर सफेदी के थक्के। लेकिन फिर यह सारा कुछ एक पहाड़ी भूदृश्य में तब्दील होने लगता है- सफेद कपड़ों से बनाई गई बर्फ, मशीनी धुएँ से बनता कोहरा, तेज ठंड से जूझते पात्र, वहीं पास में लगे उनके कैंप, पीछे के परदे पर डिजिटली दिखता पहाड़ का लैंडस्केप और हॉल में चलता तेज एसी। सब कुछ ऐसा है कि मंच पर दिख रही वातावरण की ठंडक दर्शक तक चली आती है।

आज के युवा अभिनेता जब अपने जैसे किरदार करते हैं तो अभिनय मानो कोई मसला ही नहीं होता। सभी पात्र मंच पर इतने सहज हैं कि बेधड़क वो जुबान बोलते हैं जिसपर पुराने वक्त में सेंसर अपनी कैंची चला दिया करता था। इसलिए जिनका अभिनय अलग से दिखाई देता है वो गाइड और उसकी बीवी बने कलाकार शशांक और प्रिया हैं। इसके निर्देशक मनीष वर्मा करीब दो दशक पहले के एनएसडी स्नातक हैं। उनकी यह प्रस्तुति एक नए रंगमंचीय ऐस्थेटिक्स की बानगी है, जिसमें कहानी, दृश्यबंध, संगीत और अभिनय का सुसंयोजन मूलभूत कौतूहल के साथ दर्शक को आखिर तक अटकाए रखता है। (28 अप्रैल 2025



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