शुद्धो बनर्जी की प्रस्तुति ‘घर बाहर’


इस प्रस्तुति को 100 में कम से कम 95 नंबर मिलने चाहिए। टैगोर के एक सदी से भी पुराने उपन्यास पर प्रतिभा अग्रवाल के नाट्यालेख को शुद्धो बनर्जी ने बहुत ही दत्तचित्त होकर मंच पर अंजाम दिया है। इसका कथानक कई द्वन्द्वयुक्त सहकथाओं में पेश होता है। इसमें जिस वृहत्तर यथार्थ में कई निजी यथार्थ घटित हो रहे हैं उसकी अपनी जटिलताएँ भी कम नहीं हैं। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के जिस तत्कालीन आंदोलन को आज हम देशभक्ति के चश्मे से देखते हैं उसकी माइक्रो सच्चाई में कई लोचे रहे हैं। गरीब लोगों को कम कीमत और बेहतर क्वालिटी के कारण विदेशी वस्तुएँ लेना ही बेहतर जान पड़ता है, लेकिन स्वदेशी का समर्थक संदीप उनपर जबरन अपनी देशभक्ति थोपना चाहता है। यह महत्त्वपूर्ण है कि स्वदेशी आंदोलन के जो भी नैरेटिव इतिहास या सीरियलों में आज तक उद्धृत किए जाते हैं उनमें द्वंद्व का यह बिंदु गायब होता है, जो इस उपन्यास में है।

‘घर-बाहर’ इस अर्थ में भारतीय यथार्थवाद की परंपरा से अलग उपन्यास है कि इसके पात्र सिर्फ अपनी फितरत के प्रतिनिधि भर नहीं हैं, बल्कि उनका अपना सेल्फ भी है। इसी का सफल प्रस्तुतीकरण इस प्रस्तुति को ज्यादा अंतरंग और वजनदार बनाता है। मन व्यक्ति को किसी ऐसी दिशा में ले जा सकता है जो व्यावहारिकता या नैतिकता के तकाजों पर अनुचित हो, तब यह सेल्फ ही है जो उसे रोकता है। जब वह नहीं रोक पाता तब ‘अन्ना कारेनिना’ जैसी कृति पैदा होती है, और जब रोक लेता है तो चेखव की ‘सिडक्शन’ जैसी कहानी। लेकिन भारतीय यथार्थ में यह क्या कर सकता है यह हमें विमला के किरदार से पता चलता है। प्रस्तुति के शुरू में वह अपनी जेठानी के तानों से व्यथित एक सामान्य भारतीय स्त्री है। पति की प्रेरणा से वह घर से बाहर की बड़ी दुनिया को जानने की ओर बढ़ती है और एक कुचक्र में फँस जाती है। इससे उसका निकलना और इस बीच अमूल्य जैसे एक मासूम सिद्धांतवादी पात्र से उसकी जिरह प्रस्तुति को कुछ और सघन बनाते हैं।
लेकिन प्रस्तुति की असल धुरी है उसका मुख्य पात्र निखिल। निखिल स्थानीय जमींदार है और आदर्शवादी आधुनिक है। वह स्वदेशी आंदोलन का समर्थक है, लेकिन किसी भी विचार को किसी पर थोपना उसे पसंद नहीं। यहाँ तक कि अपनी पत्नी और भाभी के व्यवहारों में निहित विरोधाभास भी उसे मालूम हैं, पर अपना निराकरण वह उनपर नहीं थोप सकता। क्योंकि सच्चाई हमारे निराकरणों से ज्यादा संष्लिष्ट होती है; क्योंकि उसके पास अपनी विधवा भाभी के जीवन के खालीपन को भरने का कोई उपाय नहीं है; क्योंकि वह चाहता है कि उसकी पत्नी प्रखर किंतु स्वार्थी संदीप के प्रति अपनी भावनाओं को स्वयं पहचाने और हल करे।
थिएटर में दृश्यात्मक तरकीबें ज्यादा प्रधान होते जाने से इस तरह की प्रस्तुतियाँ अब कम ही देखने को मिलती हैं। ऐसी प्रस्तुतियाँ विषय के प्रति शिद्दत माँगती हैं जहाँ कही जा रही बात ही सब कुछ है, और यह बात कितनी सघनता से कही जा सकी है यही प्रस्तुति की सफलता का पैमाना है।
अधिकतम कथानक यहाँ घर के भीतर के एक ही दृश्य में घटित होता है। कुछ अन्य स्थितियों के लिए शुद्धो बनर्जी ने मंच के नीचे के खाली स्पेस का इस्तेमाल किया है। सेट में बदलाव करने या किसी अन्य युक्ति में जाने के बजाय कथा-प्रवाह को व्यवधान-मुक्त बनाए रखना यकीनन ज्यादा जरूरी था। यद्यपि अभिनय और चरित्रांकन पर ठीक से काम किया गया है, पर बाकी पात्रों की तुलना में संदीप एक इकहरा किरदार ही नजर आता है। किसी फैमिली ड्रामा के खल-पात्र जैसा। अंतिम दृश्यों में उसके द्वारा विमला को गिन्नियाँ लौटा देना मात्र हृदय परिवर्तन नहीं हो सकता। प्रतीत होता है कि उसके चरित्र का कोई पक्ष ठीक से उजागर नहीं हो पाया है। यह उपन्यास की दिक्कत है या अनुवाद की, या प्रस्तुति की, कह पाना मुश्किल है। नील बनर्जी अभिनीत इस पात्र पर अभी और काम किए जाने की जरूरत है। इसी क्रम में उपन्यास में विमला को अतिसाधारण चेहरे-मोहरे वाली बताया गया है, और इस आशय का ताना प्रस्तुति में उसकी जेठानी देती भी है। लेकिन अच्छे अभिनय के बावजूद श्रीया कुमार के चेहरे-मोहरे में ‘अतिसाधारण’ होने के कोई लक्षण नहीं हैं, जबकि थोड़े-बहुत मेकअप से यह संगति बनाई जा सकती थी। इसके अलावा पात्र-चयन काफी सटीक है। मुख्य भूमिका में विपिन कुमार का स्वयं के ऊपर नियंत्रण पिछली देखी प्रस्तुति से काफी बेहतर था। विपिन ने मैथड एक्टिंग में अच्छी महारत हासिल कर ली है। एक पात्र जो उद्विग्न है और विचारशील भी उसकी अच्छी छवियाँ उन्होंने दी हैं। इसके अलावा मास्टर जी की भूमिका में दीप्तेश शाह और मँझली बहू बनीं कृतिका भाटिया और अमूल्य बने विशेष नागर भी अपनी-अपनी भूमिकाओं में प्रभावी थे।
प्रस्तुतियों को बाहरी या अतिरिक्त चीजों से वजनी बनाने का मोह उन्हें बिगाड़ देता है। लेकिन इस प्रस्तुति में टैगोर के ही कुछ कवित्त इस सलीके से इस्तेमाल किए गए हैं कि प्रस्तुति की सादगी में किंचित निखार आता है।
दिल्ली में ऐसे दर्शक काफी हैं जो हर बात पर खिलखिलाने या ताली बजाने को उतारू होते हैं। ऐसे दर्शक यहाँ भी थे। लेकिन प्रस्तुति की रवानगी ने शायद उन्हें भी कुछ तल्लीन किया और धीरे-धीरे उनकी आवाजें कम होती गईं। (15 मई 2025)

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भीष्म साहनी के नाटक

न्यायप्रियता जहाँ ले जाती है

भारतीय रंगमंच की यह चौथाई सदी