भारतीय रंगमंच में राजेन्द्र नाथ

दिल्ली और देश के थिएटर में राजेन्द्र नाथ जी की शख्सियत जितनी बड़ी दिखाई देती थी उससे कहीं ज्यादा बड़ी थी। वे बगैर किसी हाइप और बड़बोलेपन के 50 सालों तक सिर्फ भारतीय भाषाओं के नाट्यालेखों के ही मंचन की अपनी नीति पर कायम रहे। और वो भी ऐसे नाटक जिन्हें पहले न खेला गया हो। इस क्रम में हिंदीतर भाषाओं के बाद में काफी प्रसिद्ध हुए नाटकों को उन्होंने राष्ट्रीय पहचान दी, और विजय तेंदुलकर, बादल सरकार, देबाशीष मजूमदार, मोहित चटर्जी आदि नाटककार बड़े पैमाने पर जाने गए।

उनकी सक्रियता राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना के लगभग समानांतर रही। अपने थिएटर ग्रुप अभियान के जरिये और श्रीराम सेंटर के निदेशक के रूप में उन्होंने एनएसडी से अलग एक रास्ता बनाया। उनके थिएटर में एक्टिंग सबसे केंद्रीय चीज थी; और प्रॉपर्टी का किंचित भी अतिरिक्त हस्तक्षेप उन्हें मंजूर नहीं था। इस तरह एक ऐसे समाज में जहाँ रेटॉरिक का बहुत ज्यादा महत्त्व हो उनकी प्रस्तुति नाटक के अंतरतम से दर्शक को उसके मूल तत्त्व ‘अभिनय’ के जरिए कनेक्ट करती थी। इस मायने में बंगाल और महाराष्ट्र के बरक्स दिल्ली में वे अकेले थे जिन्होंने आधुनिक यथार्थवादी रंगमंच की अलख सतत रूप से जगाए रखी।
रानावि के कई छात्रों से मैंने उनके थिएटर को कॉपी-पेस्ट थिएटर कहते सुना है। जिसका अर्थ है कि उनकी प्रस्तुतियों में उनका अपना कुछ भी नहीं होता था; जैसा नाटक है वैसी ही हूबहू प्रस्तुति। सवाल है कि यह अपना क्या है? क्योंकि अपनी तो प्रस्तुति है और प्रस्तुत किए जा रहे नाटक में निहित मंतव्य है। और निर्देशक का मंतव्य है कि नाटक का मंतव्य प्रभावशाली ढंग से व्यक्त हो पाए। लेकिन जिस तरह पेंटर अपनी पहचान के लिए जानबूझकर अपनी आकृतियों की एक खास शैली बना लेते हैं वैसी ही पहचान की लालसा रानावि के तंत्र में भी काम करती है; और उनके सचमुच के ‘अपना’ को व्यक्तिवादी दिशा दे देती है।
राजेन्द्र नाथ का अपना क्या था इसका उदाहरण 1998 में हुई उनकी प्रस्तुति ‘तीसवीं सदी’ है। पोखरण में हुए परमाणु परीक्षण के तत्काल बाद आनन-फानन में उन्होंने बादल सरकार का यह नाटक मंचित किया था, जो हिरोशिमा-नागासाकी की घटना पर एक डॉकु-ड्रामा है। राजनीति की प्राथमिकताओं के बरक्स यह कला का प्रतिरोध था। वह प्रस्तुति इतनी प्रभावशाली थी कि मैं कई दिन तक उससे उबर नहीं पाया था।
उदयप्रकाश की कहानी ‘मोहनदास’ पर उनकी प्रस्तुति को भी इस सिलसिले में याद किया जा सकता है, जिसके कथानक में चौतरफा भ्रष्टाचार का एक संगीन उदाहरण पेश किया गया है।
यद्यपि इस क्रम में उनकी नाकामी का भी एक उदाहरण मुझे याद है : निर्मल वर्मा के उपन्यास ‘रात का रिपोर्टर’ की प्रस्तुति जो उन्होंने दिल्ली की हिंदी अकादमी के लिए निर्देशित की थी। पूरी प्रस्तुति के दौरान निमंत्रण पत्रों और अखबारी प्रचार से आए हुए दर्शक हो-हल्ला मचाते रहे। बाद में एक बार जब मैंने उनसे इस बाबत उनकी राय जाननी चाही तो उनका जवाब था कि हर प्रस्तुति हर दर्शक के लिए नहीं होती।
अपने सीमित साधनों में काम करने वाले अभियान जैसे थिएटर ग्रुप के लिए एसएम जहीर जैसे अच्छे अभिनेता रूपी पूँजी को कैसे उन्होंने छिटकने नहीं दिया, यह कहानी उन्होंने नटरंग के एक कार्यक्रम में बताई थी। यह मेरी खुशकिस्मती थी कि उनकी सक्रियता के अंतिम दो-ढाई दशकों का ही साक्षी रहने के बावजूद एसएम जहीर, कुलभूषण खरबंदा और उत्तरा बाउकर जैसे बड़े अभिनेताओं की प्रस्तुतियाँ मुझे देखने को मिलीं। दरअसल इस दौरान शायद ही उनकी कोई प्रस्तुति हो जो मुझसे मिस हुई हो। गिनी पिग, सखाराम बाइंडर, जात ही पूछो साधु की, घासीराम कोतवाल, स्वप्न संतति जैसी उनकी प्रसिद्ध प्रस्तुतियाँ इनमें शामिल थीं।
उनकी छवि सामान्यतः एक मितभाषी व्यक्ति की थी। लेकिन यही बात जब एक बार किसी प्रसंग में मैंने राजेन्द्र यादव से कही तो उन्होंने अप्रत्याशित प्रतिक्रिया दी- ‘लेकिन वो तो खूब बोलता है।’ इससे और भी पहले मैंने जनसत्ता के लिए उनका इंटरव्यू किया था। उस बातचीत से भी मुझे उनके व्यक्तित्व का सिर्फ इतना ही पहलू स्पष्ट हुआ कि उन्हें व्यर्थ की बातों से परहेज है। उनके इस स्वभाव का एक विचित्र रूप तब देखने को मिला जब रानावि में उसके पहले निदेशक सत्तू सेन पर केंद्रित एक पुस्तक के लोकार्पण कार्यक्रम में एक वक्ता के रूप में उन्हें मंच से बोलना था। लेकिन अपनी बारी आने पर बजाय सत्तू सेन के विषय में कुछ बोलने के वो लिखकर लाई हुई सफदर हाशमी की कविता ‘किताबें हमे कुछ कहना चाहती हैं’ सुनाने लगे। सत्तू सेन पर उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा, जिनसे रूबरू वाकिफियत रखने वाले उस सभाकक्ष में शायद वो अकेले व्यक्ति थे।
श्रीराम सेंटर का निदेशक होने के नाते मंडी हाउस में रंगमंच की सत्ता में उनकी अच्छी दखल थी। रानावि में होने वाले साक्षात्कारों में भी उन्हें नियमित बुलाया जाता था। ऐसे में जिसे श्रीराम के लिए उन्होंने उपयुक्त समझ लिया उसका एनएसडी रंगमंडल में प्रवेश काफी मुश्किल हो जाता था। उनके बारे में एक राय यह भी है कि वो खुन्नसें काफी लंबे समय तक निभाते थे। श्रीराम सेंटर से उनके अलग होने की एक कहानी कई लोग बताते हैं जो काफी दिलचस्प है। पन्ना जी के न रहने के बाद जब प्रबंधन में बदलाव हुआ तो नए मालिकों ने उनसे कहा कि बेहतर होगा कि आप सुबह 10 बजे आफिस आ जाया करें। तो उन्होंने पूछा- अपना इस्तीफा अभी दे दूँ या बाद में भेज दूँ।
‘जैसी आपकी मर्जी’ उन्हें जवाब मिला।(27 जुलाई 2025)

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