चितरंजन त्रिपाठी की प्रस्तुति 'तमस'

 परसों अभिमंच प्रेक्षागृह में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल की नई प्रस्तुति ‘तमस’ देखी, जिसका निर्देशन खुद विद्यालय के निदेशक चितरंजन त्रिपाठी ने किया है। यह प्रस्तुति वस्तुतः दो साल पहले तैयार की गई थी। लेकिन तब इसके शो टिकट बिक चुकने के बावजूद रद्द कर दिए गए थे। वजह थी पूर्व भाजपा सांसद बलबीर पुंज की ‘अपनी सरकार’ होते हुए भी एक ‘वामपंथी लेखक’ के उपन्यास के मंचन पर आपत्ति। उस वक्त रानावि के निदेशक नौकरशाही से आए हुए रमेशचंद्र गौड़ थे, जिन्होंने कोई रिस्क न लेते हुए आखिरकार उसे रद्द कर दिया। लेकिन अब चितरंजन त्रिपाठी खुद रानावि निदेशक भी हैं, लिहाजा ‘तमस’ की प्रस्तुतियाँ नई रिहर्सल के बाद दोबारा मंचित की जा रही हैं।

अस्सी के दशक में इसी उपन्यास पर बने टीवी सीरियल में आरएसएस से जुड़े एक गौण प्रसंग को विस्तार से दिखाने के कारण भी इसपर विवाद हुआ था। भाजपा कार्यकर्ताओं ने इसके खिलाफ प्रदर्शन किए थे और लेखक-निर्देशक के पुतले फूँके थे। दिलचस्प यह भी है कि तब अदालत से इसपर रोक लगाने की माँग हालाँकि जावेद सिद्दिकी नाम के व्यक्ति की ओर से की गई थी, पर पूरे घटनाक्रम से कुल छवि यह बनी थी कि तमस उसी तरह जानबूझकर हिंदूवादी राजनीति के विरोध में लिखा गया उपन्यास है जैसा कि कम्युनिस्ट अपने राजनीतिक मुहावरे में हमेशा ही करते हैं। लेकिन सच्चाई यह नहीं थी।

न तो भीष्म साहनी राजनीतिक एजंडे के लिए लिखने वाले लेखक थे, और न बँटवारे के दिनों में वे जिस घटनाक्रम से गुजर कर आए वहाँ हिंदूवादी संगठन तंत्र का वैसा प्रभावशाली असर था। बल्कि उपन्यास के बिल्कुल शुरू में ही नत्थू जिस शख्स के कहने पर सूअर को हलाक करता है उसका नाम मुराद अली है। यह सूअर बाद में मस्जिद में पाया जाता है, और मुराद अली अंत में कांग्रेस की अमन कमेटी में। इन दोनों स्थितियों के बीच दंगों के माहौल के वाकये और मनःस्थितियाँ ही हैं जो उपन्यास को विस्तार देते हैं और जिन्हें चितरंजन त्रिपाठी ने पूरे शिद्दत से प्रस्तुति में दिखाया है।

विभाजनपूर्व के लाहौर में घटित होने वाला उपन्यास मंच पर एक सीढ़ीदार प्लेटफार्म पर घटित होता है, जिसके अलग-अलग सिरे अलग-अलग दृश्यों के लिए इस्तेमाल किए गए हैं। लेकिन अधिकतर दृश्यों में पूरा मंच ही पात्रों से भरा हुआ है, क्योंकि ये समूह दृश्य हैं। किसी में एक सिख की जान के पीछे पड़े हमलावर मुसलमान, किसी में बचने की योजना बनाते सिख, और किसी में कोयला और कड़वा तेल जमा करने का मशविरा देते वानप्रस्थी जी। इसके अलावा गाँधी टोपी लगाए प्रभात फेरी निकालने पर चर्चा करते कांग्रेसी भी हैं, जिसमें बात उठती है कि मुबारक अली पेशावरी टोपी पहनता है, न कि गाँधी टोपी। एक अन्य दृश्य रिचर्ड और लीजा का है, जिनकी बातचीत में हिंदू और मुसलमानों के तौर-तरीकों और समाज और इतिहास के प्रति उनके रवैयों के जिक्र प्रस्तुति में आते हैं, और इनके बीच सरपंच बने बैठे अंग्रेजों का भी।

स्पष्टतः दिखाई देता है कि यह ‘गंगा-जमनी भाईचारे में कहीं से आ टपकी विभाजन की खटास’ नुमा नकली कथानक का नावेल नहीं है, बल्कि इसमें अलग-अलग समुदायों के मनोविज्ञान की मार्फत दंगों की स्थिति को समझा गया है। इसीलिए जानवरों की खाल उतारने वाले नत्थू को एक सूअर की जान लेने के लिए खुद से बहुत जूझना पड़ता है। इस काम के लिए पाँच रुपए के मेहनताने का लालच उसे बहुत भारी पड़ रहा है।

पूरी प्रस्तुति एक के बाद एक हालात का सिलसिला है। इसमें व्यक्ति नहीं कौमों के चरित्र दिखाई देते हैं, जिसमें मुसलमानों की पकड़ में आ गए एक सिख पात्र को कन्वर्ट कर दिया जाता है। प्रस्तुति इन स्थितियों के तनाव को तो दिखाती ही है, साथ ही उस समाजशास्त्र को दिखा पाने के कुछ दृश्यात्मक उपाय भी उसमें किए गए हैं जिसे भीष्म साहनी ने लिखित रूप में कहीं ज्यादा गहनता से व्यक्त किया है। मसलन डिप्टी कमिश्नर रिचर्ड एक दृश्य में अपनी पत्नी लीजा को बताता है कि कौन हिंदू है कौन मुसलमान इसे उनके नाम से पहनावे से और छोटी सी दाढ़ी से पहचाना जा सकता है। लेकिन उपन्यास यह भी बताता है कि शहर में सब काम भी बँटे हुए थे-- कपड़े और अनाज का काम हिंदुओं के पास था और जूतों और मोटर-लारियों का मुसलमानों के पास, जिसे प्रस्तुति के मौजूदा फ्रेम में सार्थक तरह से दिखा पाना थोड़ा मुश्किल है! प्रसंगवश, यही बात जब इतिहासकार आर.सी. मजूमदार ने कही थी कि हिंदू और मुसलमान भारत में हमेशा से दो दूरस्थ समुदायों के रूप में रह रहे थे तो उन्हें इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या का दोषी बताकर किनारे कर दिया गया था।

चितरंजन त्रिपाठी ने दृश्यों को प्रॉपर्टी और कास्ट्यूम से वजनदार बनाने की कोशिश की है, जिसका फायदा कुछ शांत दृश्यों में ज्यादा अच्छी तरह हुआ है। मसलन हरनाम और बंतो के एहसान अली के घर पहुँचने का दृश्य, जिसमें पीछे की तरह बोरे वगैरह रखकर अच्छा मंजर बनाया गया है। बाकी दृश्यों में परस्पर संवाद कई बार कोलाहल नुमा शक्ल ले लेते हैं। वाचिक में थोड़े ठहराव को शामिल करने से इससे बचा जा सकता था। सिख महिलाओं के कुँए में कूदने वाला दृश्य भी अच्छी कल्पनाशीलता की मिसाल है, जिसमें ध्वनि और प्रकाश को काफी अच्छे संयोजन में बरता गया है।

प्रस्तुति का नैरेटर अंत में उपन्यास से बाहर आकर यह भी कहता है कि आखिर हम कब तक कभी 26/11, कभी संसद पर हमला, कभी पहलगाम जैसी घटनाएँ झेलते रहेंगे; और सलाम बोलता है देश के रक्षक और आपरेशन सिंदूर को अंजाम देने वाले सैनिकों को। जाहिर है कि सच्चाई जब पूरी तरह वाम और दक्षिण के ठस राजनीतिक मुहावरों में वर्गीकृत हो चुकी हो, तो नैरेटर के इस वक्तव्य को लेकर भी कुछ न कुछ कानाफूसी जरूर की जाएगी। ऐसे में संदर्भ के लिए यह नोट यहाँ जरूरी है कि जिस शो का यह जिक्र है उसका मंचन 15 अगस्त की पूर्व संध्या पर किया गया था।(16 अगस्त 2025



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