सही और गलत

खबर केरल के कोच्चि जनपद की है। अमेरिका के एक कलाकार यहाँ के एक कला-उत्सव में भाग लेने आए थे। आयोजन की समाप्ति के बाद जब वे अपना सामान समेटकर ट्रक में लदवाने लगे तो सिर्फ दस फुट की दूरी तक छह बक्से पहुँचाने के उनसे दस हजार रुपए माँगे गए। खीझकर उन्होंने कहा कि मैं अपनी कृतियाँ नष्ट कर दूँगा, पर इतना पैसा नहीं दूँगा। उन्होंने केरल की लेबर यूनियनों को माफिया की संज्ञा दी और अपने विरोध को व्यक्त करने के लिए खुद द्वारा अपनी कृतियों को नष्ट किए जाने का एक वीडियो यूट्यूब पर डाल दिया।वासवो नाम के इन अमेरिकी कलाकार के साथ हुए इस बर्ताव जैसा ही बर्ताव उत्सव में भाग लेने गए भारतीय कलाकार सुबोध केरकर के साथ भी हुआ। उन्हें दो ट्रकों पर अपना सामान लोड कराने के साठ हजार रुपए देने पड़े।
आए दिन ताकतवर लोगों के अतिचारों की खबरों के बीच यह बहुत दिनों बाद 'सर्वहारा' के 'अधिनयाकवाद' की कोई खबर सुनाई दी है। 1990 के बाद के भूमंडलीकरण ने मजदूर की हस्ती को इतना निरीह बना दिया है कि उसके हित की कोई भी बात विकास के रास्ते का रोड़ा समझी जाती है। ऐसे में केरल की यह घटना निश्चित ही काफी अलग किस्म की है। खासकर इसलिए कि जनसंख्या नियंत्रण, स्त्री-पुरुष अनुपात, साक्षरता दर आदि सभी सूचकांकों में केरल देश का अव्वल राज्य है। वहाँ के गाँव आज भी ऐसे हैं कि दिल्ली में सरकारी नौकरियों से रिटायर होने वाले मल्लू अक्सर वहाँ वापस लौट जाते हैं। किसी भी समाज को अगर सुचारू रखना है तो सबसे पहले आमदनियों के अनुपात को सुचारू बनाना होता है, और इसका सबसे बड़ा संकेतक है-- वहाँ के मजदूर की हैसियत।
इस घटना से हम भाँप सकते हैं कि केरल तुलनात्मक रूप से अगर एक सुचारू राज्य है तो इसमें वहाँ की ट्रेड यूनियन संस्कृति की एक बड़ी भूमिका है। लेकिन फिर भी केरल इस देश की अर्थव्यवस्था का ही एक हिस्सा है। इस अर्थव्यवस्था में फासले इतने ज्यादा हैं कि एक मजदूर के श्रम का जो मूल्य उसके लिए 'सही' है वह चुकाने वाले को 'बहुत ज्यादा' लगता है। कहना सिर्फ यही है कि अमेरिकी कलाकार के साथ हुई 'ज्यादती' को मात्र व्यक्तिगत संदर्भ में न देखकर एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें।

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