असली लड़ाई अतर्कवाद से है


किसी भी विषय को लेकर सही तरह से सोच पाना हिंदुस्तानियों को कभी नहीं आया. विचार के किसी एक सिरे को पकड़ कर खींचते चले जाना हमने खूब सीखा. इस तरह हमारी सभ्यता में तरह-तरह के शास्त्र तैयार हुए- तर्कशास्त्र, वैशेषिक, सांख्य, न्यायसूत्र...और जाने क्या-क्या. लेकिन इन शास्त्रों से समाज सुखी क्यों नहीं हो रहा, इसके समेकित नतीजे तक पहुंचने की चेष्टा कभी नहीं की गई. इसकी वजह है कि समाज कभी फिक्र में रहा ही नहीं. यह हमारी  व्यक्तिकेंद्रित सभ्यता में ही संभव था कि कई करोड़ व्यक्तियों की एक जैसी समस्याओं को वह व्यक्ति दर व्यक्ति के शुद्धतावादी अनुरोध में उलझा देती. गांधी ने यह काम सबसे बड़े पैमाने पर किया. उन्होंने एक व्यापक जनांदोलन में निहित सामाजिक आकांक्षाओं को आत्मशुद्धि के अहिंसावाद में नष्ट कर दिया. करोड़ों लोगों की ख्वाहिशों से जुड़े ऐसे सवाल जिनके जवाब हमेशा कठिन और अक्सर कटु होते हैं, का उन्होंने एक कृत्रिम समाधान पेश किया- भावुक आत्मोत्सर्ग का. ठोस ढंग के स्वार्थों पर टिकी व्यवस्था को उन्होंने अनशन कर-कर के पिघलाने की बचकानी चेष्टा की. हकीकत में उनकी यह चेष्टा सैकड़ों साल की व्यक्तिनिष्ठ जीवन परंपरा को बदलने की कोशिशों के मूल तर्क पर एक प्रहार थी.
वर्णव्यवस्था को भारतीय समाज की दुर्गति का मूलभूत कारण मानने वालों को एक सुविधा है कि इस तरह उन्हें कोसने के लिए ब्राह्मण नाम का एक बना-बनाया विलेन मिल जाता है. पर सच्चाई यह है कि वर्णव्यवस्था को बनाया भले ही ब्राह्मणों ने हो, पर उसके टिके रहने की अकेली वजह वे नहीं हो सकते थे। किसी भी गतिशील समाज में सामाजिक टकरावों के साथ ऐसी व्यवस्था वक्त के साथ समाप्त हो जानी चाहिए थी. ऐसा इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि दक्षिण एशिया की प्रवृत्ति हमेशा ही अतर्कवाद के साथ जीने की रही. अनादि और अनंत के दरम्यान किसी शून्य समय में जीते इस समाज को किसी गति की आवश्यकता नहीं थी. उसकी गति दाएं से बाएं और बाएं से दाएं घूमते रहने में थी, न कि आगे बढ़ने में. इस गतिहीनता में ज्ञान ज्ञान के लिए था और कला कला के लिए. कालांतर में व्यक्ति और समाज के द्वंद्व को न सुलझाने वाला यह अतर्कवाद संस्कृत साहित्य के श्रृंगारवाद या मध्यकालीन भक्ति साहित्य के परिणाम देता रहा. एक विभाजित और पराजित सभ्यता अपनी कुंठाओं को निजी श्रेष्ठताओं और कान पर जनेऊ चढ़ाने की पवित्रताओं में तुष्ट करती रही. उसका यह तुष्टीकरण उसे एक इकहरी जीवनदृष्टि और खामखयालियों में खुश रहने की मूर्खता की ओर धकेलता रहा. 
निश्चित ही इस अतर्कवाद का सूत्रपात कभी साधनों की प्रचुरता के वक्त में भारतीय धरती पर हुआ था, पर बढ़ती आबादी, साधनों की कमी और सही तरह से न सोच पाने ने उसे अब एक सार्वजनिक विवशता के मुकाम पर ला ख़ड़ा किया है. अन्याय को कहीं भी हाथ बढ़ाकर छुआ जा सकता है, पर इसका निराकरण कैसे हो, इसका जवाब किसी के पास नहीं है. मौजूदा विश्व में शायद सबसे निर्लज्ज स्वार्थ समूहों द्वारा हांकी जा रही हमारी व्यवस्था में चींटी और हाथी के जैसे विस्फोटक हो चुके पूंजीवादी वर्ग विभाजन को यह अतर्कवाद देखने नहीं दे रहा. लेकिन इस सभ्यता के बाशिंदे भले ही इसे न देख पा रहे हों, कई विदेशी विद्वानों का ध्यान इस ओर गया है. सन 1973 में जापानी विद्वान दाइसाकु इकेदा ने ब्रिटिश चिंतक आर्नल्ड टायनबी से इस बारे में एक सवाल किया था. उनका सवाल था कि ''क्या अतर्कवादी हिंदू परंपरा वाले भारतीय समाज में साम्यवाद अपने वर्ग संघर्ष के सिद्धांत से क्रांति ला पाएगा?" 
टायनबी का जवाब भी इसपर उतना ही पते का था. उनका कहना था कि "हिंदू समाज जैसे किसी पूर्णतः अतर्कवादी समाज में, अथवा ऐसे किसी समाज में, जो पश्चिम की बराबरी की स्पर्धा में नहीं पड़ना चाहता, साम्यवाद की दाल गलने की संभावना अत्यंत क्षीण है." 
समझा जा सकता है कि क्यों इन दिनों सिर से पैर तक भूमंडलीकृत हो चुके लोग 'पश्चिमी वैचारिक हमले' के खिलाफ भारतीयता का नारा बुलंद करने में लगे हैं, और क्यों रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकार पिछले साठ सालों के हिंदुस्तानी इतिहास पर लिखे अपने दो मोटे पोथों के निष्कर्ष में 'हिंदुस्तान की हस्ती' पर गदगद हैं..... बहरहाल, अतर्कवाद के लिए एक दूसरा शब्द भाववाद भी है. भारतीय दार्शनिक परंपरा की इस प्रवृत्ति के बारे में और ज्यादा सोचे जाने की जरूरत है।

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