मुसलमान माँ
निचले हिमालय में उत्तर भारत की खास आरामगाहें मसूरी और लैंडोर शिमला के मुकाबले कहीं ज्यादा खूबसूरत हैं। यहाँ से दिखने वाला देहरादून सिंप्लान की चढ़ाई से दिखने वाले इटली के मैदानी इलाके जैसा लगता है—भले ही वो सिंप्लान से ज्यादा बड़ा और विस्तृत है। मसूरी के माल पर शाम की गहमागहमी देखने लायक होती है। कोई घोड़े पर, कोई पहाड़ी टट्टू पर, कोई पैदल, और कुछ लोग पालकी पर। बड़ा ही खुशनुमा मंजर होता है। हर कोई अपने पड़ोसी को जानता है, और संकरी सड़क से गुजरते हुए लोगबाग बार-बार दुआ-सलाम और चल रही खबरों या स्कैंडल पर चर्चा के लिए रुकते हुए चलते हैं। कभी आप कुर्सी-पालकी में सवार किसी सनाका खाई औरत को ‘बेशर्म कहीं के!’ कहकर चीखते सुनेंगे, क्योंकि कोई प्रेमी जोड़ा सरपट अपने फुर्तीले अरब घोड़ों पर वहाँ से गुजरा होगा। कभी एक घबराई हुई माँ की तेज चीख घाटी में गूँजती हुई आएगी जिसने अचानक देखा होगा कि उसका बच्चा इस बेपरवाह जोड़े के रास्ते में आ गया है।
कभी-कभी हादसे भी होते हैं। कुछ साल पहले एक स्त्री-पुरुष का जोड़ा ‘कैमल्स बैक’ कही जाने वाली जगह के पास इसी तरह सवारी कर रहे थे कि सड़क से फिसले और कई सौ फीट नीचे खड़ी चट्टान पर जा गिरे। चमत्कार यह हुआ कि दोनों घोड़ों की तो मौत हो गई पर सवार महज कुछ खरोंच खाकर बच गए। एक और मौके पर एक सिविल सर्विस के सज्जन शाम की सैर पर थे कि तभी उनका एक कुत्ता दौड़ता हुआ उनकी टाँगों के बीच आ गया और वह सिर के बल ढाल की ओर लुढ़क गए। मौके पर ही उनकी मौत हो गई।
हर रोज शाम के वक्त माल की सड़क के किनारे एक देसी औरत खड़ी दिखाई देती थी। एक बड़ी चट्टान के करीब खड़ी वह आते-जाते लोगों को देखा करती। सलीके की पोशाक में उसका चेहरा उसके फिरके के दस्तूर के मुताबिक ढँका रहता। हरेक का ध्यान उसकी ओर जाता। वह एक छरहरी लेकिन सजीली देहयष्टि की थोड़ी लंबी महिला थी। बहुत से लोग उसके बारे में जानने और उसके रूप की झलक पाने को उत्सुक थे; लेकिन वह सतर्क रहती कि इस बारे में किसी को कोई बढ़ावा न मिले। कई बार वह जल्दी चली जाती, कई बार अँधेरा घिरने तक वहीं बनी रहती। मेरे सहित कई लोगों को लगता था कि वह किसी यूरोपीय अफसर की हिंदुस्तानी बीवी है, जिससे रिश्ता तोड़कर अफसर पहाड़ आ गया है और औरत पीछे-पीछे उसकी नाक में दम करने के लिए आई है। पर कोई यह अंदाजा नहीं लगा पा रहा था कि वह किसकी बीवी हो सकती है। कुछ अनुमान, जिन्हें अगर संजीदा माना जाए, तो इस वजह से नाकाबिले यकीन थे कि उनका इशारा कुछ उम्रदराज अफसरों की ओर था, जिनसे इस रहस्यमय महिला के शादीशुदा होने की बात गले नहीं उतरती थी। मैंने तय किया कि उसके बारे में पता लगाकर रहूँगा। और एक रात, जब ज्यादातर लोग बैंड के चारों ओर जमघट लगाए थे, मैं उसके पास पहुंचा और उससे पूछा-- क्या मैं उसके किसी काम आ सकता हूं। उसका चेहरा अच्छी तरह से ढँका हुआ था। उसने जवाब दिया, “हाँ, इस तरह काम आ सकते हैं कि आप यहाँ से चले जाएँ!” उसकी आवाज बहुत मीठी थी, जिसकी दुखपूर्ण ध्वनियों ने तब मुझे करुणा से भर दिया जब उसने कहा, “मैं एक लाचार औरत हूँ, मेरा दिल टूट चुका है...मेरे करीब खड़े रहकर मेरी तकलीफ को और मत बढ़ाइए!” मैंने वैसा ही किया, और बात करने की कोशिश के लिए माफी माँगकर वहाँ से हट गया। कुछ और लोगों ने भी उस स्त्री से उसके बारे में जानने की कोशिश की, उन्हें भी उसी किस्म का जवाब मिला जैसा उसने मुझे दिया था।
बारिशें शुरू होने को थीं। तूफान भी जल्दी-जल्दी आ जाते थे। माल पर कम ही लोग आते थे। कुछ ही लोग थे जिन्हें ‘आसमान में गरज रहे स्वर्ग के तोपखाने’* या कंचों के बराबर ओलों की मार की ज्यादा परवाह नहीं थी। उन कुछ में यह नेटिव औरत भी थी। दिन की रोशनी की तरह समयबद्ध वह उस विशाल भयानक दिखती चट्टान के पास पहुंच जाती और सड़क की ओर टकटकी लगा लेती।
मैंने जूरा के शिखरों पर वैसा ही एक तूफान देखा
है जैसा लॉर्ड बायरन के वर्णन में है; मैं
आस्ट्रेलिया में चमकती बिजली और उसकी कड़कड़ाहट को देख चुका हूँ; मैंने
टेरा डेल फुएगो**, केप ऑफ गुड होप, और जावा के
तट पर तूफानों को देखा है जिनकी गर्जना में इंसानी आवाज डूब गई थी और जिसने हर
किसी को बहरा और जड़वत बनाकर रख दिया था। लेकिन इन तूफानों की मसूरी या लैंडोर के आँधी-तूफान
से तुलना नहीं की जा सकती।
ऐसे ही एक बिजली, आँधी, ओलों वाले गरजते तूफान
के दिन शाम के करीब पाँच बजे मैंने एक दोस्त के साथ शर्त लगाई कि रोज की तरह वह हिंदुस्तानी
औरत आज भी उस चट्टान के करीब वैसी ही खड़ी होगी। किसी अदृश्य शक्ति ने मुझे भरोसा
दिलाया कि अपने भावनात्मक उद्वेलन में एकाग्रचित्त उस क्षण वह वहीं है। लेकिन इसका पक्का पता कैसे चले? “वहीं जाकर देखना होगा!” मैंने
कहा। मेरे दोस्त ने इनकार कर दिया; पर
यह भी कहा कि जहाँ तक शर्त की बात है तो वह मेरे कहे पर पूरा यकीन करेगा, चाहे वह किसी के भी पक्ष में हो।
मैं उस ओर निकल पड़ा। चट्टान मेरे घर से
कम-से-कम तीन-चौथाई मील पर थी। भले ही मुझे उस महिला के वहां होने का पूरा यकीन था, पर मेरी उत्सुकता इतनी बढ़ चुकी
थी कि मैं बगैर तूफान की परवाह किए चलता गया। वादियों में रह-रह कर
बिजली चमक रही थी; फिर वह अजीब शोर सुना जब दो
ढालों के बीच अटके विशाल चट्टानी टुकड़े पेड़ों को धराशायी करते हुए अंधाधुंध रफ्तार
में ढेर सारे पत्थरों और मिट्टी को साथ ले जाते हैं। पर इस सब के बीच मेरा ध्यान बगैर
भटके उस स्त्री की ओर ही लगा था।
क्या वह वहाँ थी?
हाँ, वह पूरी तरह भीगी हुई वहां बैठी थी। पर मुझे ठंड में
उसके इस तरह बैठे होने पर कोई तरस नहीं आया, क्योंकि उसका इस ओर ध्यान ही नहीं था। बल्कि मैं ही अपनी फिक्र कुछ
ज्यादा कर रहा था। उसने अपने चेहरे को इतना कसकर ढँका हुआ था कि उसकी मुखाकृति
काफी स्पष्ट हो गई थी। उसका चेहरा वाकई काफी सुंदर था, पर फिर भी अपनी राय पर इत्मीनान
के लिए उसकी आँखें देखने का मुझे इंतजार करना पड़ा। मैं उसके एक ओर बैठ गया। तूफान
अभी भी वैसा ही खूंखार था। तभी वह बोली, “जन्नत की आवाज है साहब।”
“सही कहा। पर इस वक्त जो
आवाज मैं सुन रहा हूँ वो जहाँ से निकल कर आ रही है उस बिजली को मैं देख नहीं सकता।” मैंने
जवाब दिया।
वह मेरी बात समझ गई, और अपनी आँखों की एक झलक दी। वो
किसी हिंदुस्तानी जैसी आँखें नहीं थीं; उनमें
एक नीली लगभग सलेटी रंगत थी। मैंने उससे हिंदुस्तानी में कहा, “तुम यहाँ की नहीं हो, यहाँ की पोशाक में यहाँ क्या कर
रही हो?”
“काश, मैं एक यूरोपियन होती”, उसने
जवाब दिया, “शायद मेरे अहसास उतने तीखे न रहे हों। शायद मुझे
सुलगती आग पर बैठना चाहिए। ओह, आसमान कितनी जोर से गरज रहा है! जाइये
साहब, घर जाइये, आपको ठंड पकड़ लेगी!”
मैंने पूछा, “तुम घर क्यों नहीं जातीं?... आज तुम्हें कोई नहीं दिखेगा। तुम्हारे जानने वाले भी नहीं। मैं
अकेला इंसान हूँ जो ऐसे तूफान में भी निकला है, और ये मैंने सिर्फ तुम्हारे लिए किया है।”
“मेरा दिल एक
बच्चे के अलावा हर किसी की जानिब इस पत्थर की तरह सख्त हो चुका है,” उसने
चट्टान की तरफ इशारा करते हुए कहा। “ओह, आसमान कैसा दहाड़ रहा है साहब!”
“तुम्हें बिजली और ओलों
से डर नहीं लगता?” मैंने पूछा।
“कभी लगता था। मैं काँपने
लगती थी। पर अब इससे क्या फर्क पड़ेगा?... बिजली मेरे पास आ”, हमसे
करीब सौ गज दूर जमीन में धँसती सफेद चमक को देखकर वह चिल्लाई, “यहाँ आ बिजली, और मेरे दिल को फिरोजा पत्थर
बना दे!”
उसने अपनी गीली हो गई जूतियाँ उछाल दीं। उसके
पैर नायाब खूबसूरत थे!
“घर जाइये साहब, आपको ठंड लग जाएगी!”
मुझे टुकड़ों में उसके पूरे रंग-रूप को देखने का
मौका मिला था। वह काफी खूबसूरत थी, पर उसकी कशिश का उरूज जाहिर ही गुजर चुका था। वह
कम से कम 24 साल की तो जरूर थी। अपने बाएँ हाथ की तर्जनी में उसने लाल रंग के नग
वाली अंग्रेजी ढंग की अँगूठी पहनी हुई थी जिसमें हिरन के सिर का चिह्न उत्कीर्ण था।
मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा, “यह तुम्हें कहाँ मिली?”
उसने मुस्कुराकर गहरी साँस ली और बोली, “जी, यह एक अमीर की इनायत है।”
“वह कहाँ है?”
“पता नहीं।”
“क्या तुम्हें जल्द ही
उससे मुलाकात की उम्मीद है?”
“न, बिल्कुल नहीं।”
“क्या वह एक उम्रदराज
व्यक्ति है?”
“नहीं, आपकी ही उम्र का होगा। ...आकाश
कैसा गरज रहा है न!”
“चलो, मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़
देता हूँ।”
“नहीं। मैं अकेले ही जाऊँगी।”
“तुम कब जाओगी?”
“जब आप यहाँ से चले
जाओगे।”
“मेरी विनम्रता को ठुकरा
रही हो, तुम बहुत निष्ठुर हो!”
“हो सकता है ऐसा हो...पर
मेरे जिगर का लहू जम चुका है।”
मैं उससे विदा लेकर अभी भी घुमड़ रहे तूफान में
से होता हुआ घर पहुँचा और दोस्त से अपनी शर्त जीत ली।
मैं उस रात सो नहीं सका। उस हिंदुस्तानी औरत का
खूबसूरत चेहरा बार-बार मुझे कोंचता रहा। सोने की सारी कोशिशें बेकार गईं। आखिरकार
मैं बिस्तर से उठा और तीन पत्ती के एक खेल में बिना किसी मकसद के इसलिए शामिल हो
गया कि जुए के खेल की उत्तेजना में मेरा दिमाग उसके ख्याल से बरी हो जाएगा। पर कोई फायदा नहीं हुआ। मुझे कुछ पता नहीं था कि
मैं क्या खेल रहा हूँ, और इससे पहले कि यह सब बहुत लंबा चलता मैं उचाट होकर वहाँ
से उठ गया।
पहाड़ में जाने वाला लगभग हर कोई अपने साथ एक
नौकर रखता है जिसे तिंदाल कहते हैं। उसका काम है कहीं जाने के लिए कुर्सी-पालकी
उठाने वालों का बंदोबस्त देखना, आग जलाए रखना, और जब अँधेरा घिरने के बाद आप बाहर
निकलें तो लालटेन लिए आपके साथ बने रहना। ये तिंदाल इस महादेश के हरकारों की तरह
एक खास नस्ल होते हैं; और आमतौर
पर बहुत तेज, मुस्तैद और हिम्मतवर लोग माने जाते हैं। मैंने अपने तिंदाल को बुलाया
और उससे उस हिंदुस्तानी औरत के बारे में पूछताछ की जिसने मसूरी में काफी हलचल मचा
रखी थी। वह मुझे सिर्फ इतनी ही सूचना दे पाया कि वह हरिद्वार के नजदीक किसी गाँव
से आई थी; कि वह काफी अमीर थी, जिसके पास बहुत कीमती हीरे-जवाहरात
थे, बहुत से नौकर थे; और उसके मुताबिक, वह किसी राजा की पत्नी या दासी हो सकती है।
मेरे मन में कौंधा, क्या वह दलीप सिंह की माँ और
रंजीत सिंह की पत्नी मशहूर रानी चंदा*** है? वो महिला जो एक सैनिक
के वेश में उस चुनार किले से भाग निकली थी जहां उसे सर फ्रेडरिक करी के खिलाफ
बार-बार षडयंत्र रचने के इल्जाम में तब कैद कर लिया गया था जब वे लाहौर के
रेजीडेंट थे? वो महिला जिसे मैंने देखा था और जिससे बात की
थी हर मायने में रानी के रंग-रूप के अनुरूप थी—सिवाय आँखों के। दलीप सिंह मसूरी
में रहते थे, और अक्सर सवारी करते हुए माल से गुजरते थे। रानी चंदा की जबान चुटीली
और एक खास मीठे लहजे वाली मगर चुभती हुई थी, और उनके पाँव विलक्षण सुंदर थे, जो
बातें इस महिला में भी थीं। रानी चंदा में असाधारण साहस था, जो कि इस महिला में भी
था। रानी चंदा का एक बच्चा था—एक अकेली संतान, और ऐसा ही इस महिला के साथ भी था।
मैंने तिंदाल से पूछा, वो रहती कहाँ है। उसने
बताया कि वह बाजार के करीब एक छोटे से घर में रहती है, जो कि मेरी अपनी रिहाइश से
ज्यादा दूर नहीं था। तिंदाल ने जम्हाई लेते हुए बताया कि “वह किसी चीज को लेकर गहरे दुख
में है।”
मैंने कहा, “उसके दुख के कारण का पता लगाने की कोशिश करो,
तुम्हारी कामयाबी के मुताबिक तुम्हें ईनाम दिया जाएगा!”
अगले रोज तिंदाल ने मुझे खबर दी कि मैं अकेला
साहब नहीं हूँ जो उस महिला के मामलों में गहरी रुचि ले रहा है; कई लोग हैं जो उससे पहचान
बढ़ाने की फिराक में हैं और अपने तिंदालों को उससे बात करने भेज चुके है; लेकिन उसने सख्ती और रुखाई के साथ उसी तरह उन सबको चलता कर दिया जैसे कि
उसने उसे कर दिया था। उसने उससे कहा- “अपने मालिक से कहो कि
मेरी तरह की एक लाचार की तकलीफों को रंगीन-मिजाज और बेगैरत पुरुषों की तौहीनी
ज्यादतियों में कोई दिलचस्पी नहीं है।”
तूफान के अगले रोज का दिन एक ऐसी मनोरम दोपहर लेकर
आया जैसी कल्पना ही की जा सकती है। सूर्य पूरी चमक के साथ निकला था। दून पर से
बादल छँट चुके थे, और विस्तृत दृश्यपटल किताबों में पढ़ी किसी परीकथा जैसा था।
पूरा मसूरी और लैंडोर बाहर निकल आया। मॉल पर लोग इस कदर उमड़े हुए थे कि भीड़ में
से रास्ता बना पाना मुश्किल था।
क्या वह महिला चट्टान के पास थी? हाँ, वह गुजरने वालों को ताकती
हमेशा की तरह वहीं खड़ी थी। महाराजा अपने अनुचरों के साथ नमूदार हुए। मैं पूरे
यकीन के साथ था कि महिला महाराजा की माँ थी; पर मैंने अपने
संदेह को बिल्कुल भी जाहिर नहीं किया कि कहीं मैं उसकी गिरफ्तारी का कारण न बन जाऊँ।
जब शाम का धुँधलका छाने लगा, और घूमने आए लोग वापस जाने लगे तो मैं एक बार फिर से
महिला के पास गया और इज्जत के साथ उसे सलाम किया, जैसा कि किसी कुलीन हिंदुस्तानी
महिला को संबोधित करते हुए किया जाता है। उसने एक बार को मुझे उस व्यक्ति के रूप
में पहचाना जिसने बीती शाम तूफान के दौरान उससे बात की थी क्योंकि उसने उसकी
भयंकरता का जिक्र किया। उसने बताया कि वह मेरे विदा होने के बाद रास्ता भटक कर गलत
सड़क पर चली गई थी और आधी रात के करीब ही घर पहुंच पाई। फिर उसने उम्मीद जताई कि
मैं उसकी तुलना में कहीं सलामती से घर पहुँच गया होऊँगा।
मैंने कहा, “तुम्हें मुझे अपने साथ चलने की इजाजत देनी चाहिए
थी। मैंने तुम्हारे दुख के बोझ को सँभालने में मदद की होती।”
उसने मेरी ओर देखा और अचानक बिना संदर्भ के पूछा,
“आपका नाम लांगफोर्ड है?”
“हाँ है!”
मैंने कहा।
“करीब तीन या चार साल पहले आप
अपने एक दोस्त के साथ कुछ दिन के लिए देवबंद के पास एक कैंप में ठहरे थे? आप यहीं पहाड़ों की तरफ जा रहे थे।”
“हाँ।”
“आपके पास एक छोटा कुत्ता था जो
देवबंद में खो गया था?”
“हाँ, मेरा डॉगी खो दिया था और मैंने
इसपर काफी शोर-शराबा भी किया था। पर तुम्हें ये सब कैसे पता?”
वह मुस्कराई और एक गहरी साँस ली।
मैं भौंचक्का था। मेरा यकीन कि वह रानी चंदा थी,
लगभग पक्का हो गया था। रानी तब चुनार जा रही थी और मेरा कुत्ता जहाँ खोया था वह
जगह रानी के पड़ाव-शिविर के नजदीक थी। मेरे नौकरों और पुलिस अफसरों का कहना था कि कुत्ते
को जरूर रानी के लोगों ने चुराया है।
उसने कहा, “कुत्ता अभी भी जीवित है, और अगर आप कल 12 बजे मेरे
घर आएँगे तो उसे देख सकते हैं; लेकिन आप वादा करें कि उसे
मुझसे ले नहीं जाएँगे?”
“ठीक है मैं उसे तुमसे नहीं लूँगा।
लेकिन उसे मुझे आज ही रात देखने दो, और बताओ कि वह तुम्हारे पास कैसे पहुँचा? मैं तुम्हें तुम्हारे घर पर मिलूंगा।”
“नहीं साहब, सब्र करें। मैं आपको
कल सब बताऊँगी। मेरी कहानी सुनकर आप शायद मेरी एक मदद करेंगे। यह मदद करना आप ही कर
सकते हैं। मुझे बताएँ कि आप कहाँ रहते हैं, मैं 11 बजे अपने भाई को आपके पास भेजूँगी।
वो आपको मेरे घर ले आएगा। सलाम साहब!”
मैंने उसके सलाम का जवाब दिया और लौट आया।
अगली रात दो बजे तक मैं सो नहीं पाया, और सुबह ग्यारह
बजे जब मेरे तिंदाल ने मुझे जगाया और खबर दी कि एक नौजवान मुझसे मिलना चाहता है, उस
वक्त मैं इस यकीन में था कि 12 बजे मेरी यह मुलाकात सपने में हो चुकी है।
मैंने तिंदाल को उस नौजवान को भीतर भेजने का
आदेश दिया। वह मेरे बिस्तर के एक ओर आकर खड़ा हो गया और गोपनीय लहजे में बोला, “उन महिला ने मुझे आपके आदेश का
इंतजार करने के लिए भेजा है।” मैं उठ बैठा, जल्दी से निवृत्त
हुआ, एक कप गर्मागर्म चाय पी, और नौजवान के साथ चल पड़ा। वह मुझे बाजार के सिरे पर
थिएटर के नजदीक एक छोटे से घर में ले गया। घर में प्रवेश करने पर मैंने देखा कि
महिला वहाँ देसी चलन के मुताबिक एक कालीन पर बैठी हुई थी जिसपर गुलदाउदी और गुलाब
की पत्तियाँ बिखरी हुई थीं। उसके एक ओर उसका चाँदी का छोटा हुक्का था, और जैसा कि
मुझसे कहा गया था वहाँ मेरा लंबे समय से खोया छोटा शिकारी कुत्ता ड्यूक भी था, जो
उतना ही आकर्षक, मोटा, सुस्त और लद्धड़ दिख रहा था जैसा एक देसी औरत का कुत्ता हो
सकता था। मैंने इस मुलाकात का मौका देने की सौजन्यता के लिए महिला का आभार व्यक्त
करने के बाद अपने पुराने खासमखास ड्यूक को पुचकारा, लेकिन जवाब में उसने खुद को
फैला कर बस एक उबासी भर ही ली।
“और आपके पास वो नीले पत्थर वाली
अँगूठी अभी भी है,” मुस्कराकर मेरा हाथ पकड़ते हुए महिला ने
कहा जब उसने मेरी अँगूठी देखी। “मुझे इसे देखने की याद है-- जब
एक सुबह आप देवबंद में टैंट में पलंग पर सो रहे थे। मैंने अगर इसे तब देखा होता जब
तूफान के दौरान आप मुझसे बात कर रहे थे तो मैं आपसे इतनी रुखाई से पेश न आई होती।”
“मुझे नहीं याद कि मैंने तुम्हें पहले
कभी किसी शाम कब देखा,” मैंने कहा, “और
अगर मैंने देखा तो मुझे इसे कभी भूलना नहीं चाहिए था। हम कहाँ मिले थे?” मैंने दोहराया।
“जहाँ मेरे पास यह मौका था कि मैं
आपको देख सकूँ, लेकिन जहाँ आप मुझे नहीं देख सकते थे।”
वहाँ एक बूढ़ी औरत सेवारत थी, जिसे वह माँ कह रही
थी; और मुझे लेकर आया सैनिक जैसा दिखने वाला जवान
व्यक्ति, जिसे वह भाई कह रही थी, अभी भी कमरे में खड़ा था। महिला ने उन दोनों से
बाहर चले जाने को कहा, और फिर मुझसे आग्रह किया कि मैं अपने मोढ़े, जिसपर मैं बैठा
था, को उसके नजदीक ले आऊँ। मैंने वैसा ही किया। उसने अपना सिर अपनी हथेलियों पर रख
दिया और उसकी आँखों से आँसुओं का एक सैलाब फूट पड़ा। मैंने उसे बिना बाधा पहुँचाए
रोने दिया। आँसुओं ने पीड़ा बढ़ाने के बजाय उसे राहत दी। थोड़ी देर में उसने अपनी
आँखें पोंछीं, और कहने लगी :
“मेरे पिता एक मौलवी थे और आगरा
की सदर कोर्ट में तैनात थे। मैं उनकी अकेली बेटी हूँ। वो पूरे दिन घर से बाहर रहते
थे। क्यों न रहते, उन्हें इसके लिए पैसा मिलता था। उन्होंने कंपनी का नमक खाया था।
खैर, जब मैं करीब 15 साल की थी तो कोतवाल के फुसलावे में आकर घर से भाग गई। उसने
एक बूढ़ी औरत को भेजा जिसकी जीभ में चाँदी थी और हाथ में सोना। उसने मुझे मोहब्बत
के बारे में लंबी-लंबी कहानियाँ सुनाईं और सलाह दी कि अगर मैं अपना घर छोड़ूँ तो मुझे
कोतवाल के बेटे से ब्याह करना चाहिए, जो कि जवान और खूबसूरत है। लेकिन मैं एक
बच्ची थी और परले दर्जे की बेवकूफ थी। मैं जिन नौकरों की देखरेख में रहती थी
उन्हें भारी घूस दी गई थी। एक को तीन सौ रुपए मिले, दूसरे को दो सौ और तीसरे को सौ।
उन्होंने मेरे भीतर यह बात भर दी कि दुनिया में कोतवाल के बेटे से शादी करने से
बढ़िया कोई बात ही नहीं है। और एक दिन जब मेरे वालिद दस बजे कोर्ट चले गए, मैं उस
बूढ़ी औरत के साथ भाग गई जिसे कोतवाल ने मुझसे बात करने के लिए लगाया था।
“हम पूरा दिन बायली पर चलते रहे।
दो सवार हमारी देखरेख में तैनात थे। मैंने बूढ़ी औरत से कई बार पूछा कि वो मुझे
कहाँ ले जा रही है, पर हर बार उसका एक ही जवाब था- ‘धीरज रखो
बच्चे और कुछ मिठाई खा लो।’ उसने मुझे जो गिलौरी दी उसमें
जरूर कुछ नशा-पत्ती थी, क्योंकि उसे खाने के थोड़ी देर बाद मैं सो गई। मैं कितनी
देर सोई कह नहीं सकती, लेकिन जब उठी तो मैं एक साहब के घर में थी। बूढ़ी औरत भी
वहाँ थी। मैं सतर्क हो गई, पर उसके कहे ने मेरे डर को शांत कर दिया। बूढ़ी औरत ने
मुझसे कहा कि मैं आगरा के नजदीक हूँ, जबकि सच्चाई ये थी कि मैं वहाँ से सौ कोस दूर
थी। नाच वाली लड़कियाँ आईं और वे मेरे सामने नाचीं। मुझे यह हुक्का दिया गया, और
ये चूड़ियाँ। एक सजा-धजा लड़का मेरे इंतजार में था, और मेरे लिए खाना लेकर आया।
तोते, मैना और फाख्ता खरीदे गए कि मैं उनके साथ खेलूँ। मेरे बचपन की चाहतों ने जो
भी कहा बूढ़ी औरत ने तुरंत मुहैया करा दिया।
मैं लगातार इतनी खुश थी कि अपने घर के बारे में
सोचने का कोई ख्याल या वक्त ही नहीं था। मेरे बाप एक बदमिजाज आदमी थे और उनकी अपने
नौकरों और आश्रितों से हमेशा झगड़े होते रहते थे। मैं उन झगड़ों की आवाजों से दूर
रहकर काफी खुश थी। एक शाम बूढ़ी औरत ने मुझसे कहा, ‘बाबा, आज शाम के लिए एक नाच का हुक्म दो, और मैं
तुम्हारी ओर से साहब को इसे देखने का न्यौता दूँगी।’ मैंने कभी
किसी अंग्रेज, किसी यूरोपीयन को नजदीक से नहीं देखा था। कमरे में किसी के साथ होने
के ख्याल से मुझे बहुत डर लगा। मुझे काफिरों से नफरत करना सिखाया गया था, जिनका हुक्म
बजाने को मेरे वालिद के मुताबिक वह मजबूर थे। मैंने इनकार किया, पर अपनी चालाक
जबान से बूढ़ी औरत एक बार फिर जीत गई।
रात आई। मैं अपनी कालीन पर बैठी थी, जैसे कि इस
वक्त बैठी हूँ, और चटकदार कपड़ों में सजी-धजी थी। मैं एक नन्ही महारानी थी, और खुद
को नूरजहाँ समझ रही थी। तब मैं काफी खूबसूरत थी। अगर न होती तो इतनी मुसीबत से बच
जाती। मेरा हाड़-मांस एकदम चुस्त था-- आज की तरह नहीं। दस बजे के करीब साहब वहाँ आए।
जब वह कमरे में आए तो मैं अपने चौकन्नेपन में बेहोश होने को थी। मैं अपना सिर
घुमाकर बूढ़ी औरत से चिपक गई और सिर से पाँव तक काँपने लगी। ‘डरो मत!’
साहब ने कहा, और फिर नरम आवाज में मुझपर जोर से हँस रही नाचने वालियों को डाँटा। बूढ़ी
औरत भी मेरे डर को भगाने में लगी थी। कुछ क्षणों में मैंने साहब की ओर कनखी से
देखा और फिर से मुँह फेरकर बुढ़िया से चिपक गई। साहब थोड़ी देर तक मेरी खूबसूरती
की तारीफ करते रहे, फिर चले गए, और मैं एक बार फिर खुश हो गई। उनके जाने के बाद
बूढ़ी औरत बोली, ‘तुमने देखा, साहब कोई जंगल से आए जंगली
वहशी नहीं हैं, बल्कि उतने ही अच्छे हैं जितने कि तुम्हारे कबूतर!’
“अगले दिन साथ वाले कमरे
में मैंने साहब को किसी से बात करते सुना। मैंने दरवाजे के ताला लगाने वाले सुराख
से झाँककर देखा, वह एक
मेज के पीछे बैठे हुए थे। नाजिर (मुख्य लिपिक) उनके एक ओर खड़ा था। कमरे के दूसरे
छोर पर जंजीरों में कैद एक आदमी था जिसे बरकंदाज़ों (बंदूकधारी सिपाहियों) ने घेर
रखा था, और वहाँ एक औरत थी जो अपने सबूत पेश कर रही थी।
अदालत के कमरे में कुछ मरम्मत का काम चल रहा था, इसलिए साहब
अपनी अदालती कार्रवाइयाँ खाने के कमरे में अंजाम दे रहे थे। जंजीरों से बँधे आदमी
ने बोलना शुरू किया। वह खुद के गुनहगार होने से इनकार कर रहा था। ‘चुप्प!’ साहब
ने इतनी जोर से कहा कि एकाएक डरकर मैं पीछे हो गई और काँपने लगी। कैदी ने जब
साहब से दोबारा बोलना शुरू किया तो एक बरकंदाज़ ने ‘सूअर! चोर!’ कहकर उसके सिर पर जोर का घूँसा मारा। मामले को अगले दिन तक के लिए टाल दिया गया,
और अदालत करीब चार बजे दोपहर में बंद हो गई। तब साहब फिर से मेरे
कमरे में आए।
“अब मुझे अपने डर के दिख
जाने का डर लगने लगा था कि क्या जाने साहब मुझे मार डालने का हुक्म दे दें, लिहाजा मैंने खुशनुमा हावभाव
बना लिए, जबकि मेरा दिल सीने में काँप रहा था। साहब ने मुझसे बहुत ही नर्म आवाज
में बात की, और मुझे धीरे-धीरे उनसे डर लगना कम हो गया।
“इस तरह से मैंने एक
पखवाड़ा गुजारा, और
इसके बाद मैं उनसे इस तरह से बात करने लगी गोया मैं उनके बराबर थी। दरवाजे के
सुराख से इंसाफी इंतज़ामियात को देखना मेरा बड़ा दिलबहलाव हो गया था, और अपनी उम्र के हिसाब से मेरे मन में यह ख्वाहिश पैठ गई थी कि मेरे पास
भी रोज होने वाली इस कार्रवाई में सुनवाई करने और फैसला सुनाने की ऐसी ही ताकत हो।
“एक रोज़ जब साहब मेरे कमरे में आए तो मैंने उनसे
एक मुकदमे पर बात करना शुरू किया जिसे उन्होंने अभी-अभी निबटाया था। वो हँसे और मेरे ख्यालात को बहुत ही इत्मीनान से
सुना। मैंने उनसे कहा कि जिन सबूतों पर कैदी को सजा सुनाई गई है वो शुरू से आखिर
तक झूठे हैं। उन्होंने मुझसे वादा किया कि वो कैद की सजा को पलट देंगे; और
इस बेइंतेहा खुशी में कि मेरे पास भी असल में कुछ ताकत है मैं इतनी मदहोश और बेसुध
हो गई कि साहब के होंठ अपने होंठों पर होने का पता ही नहीं चला। मैंने पहले कभी ऐसा
नहीं किया था। मैं खुद को इतना गिरा हुआ और हीन महसूस करते हुए इतना जोर से रोने
लगी कि मेरे पास बयान करने को लफ्ज नहीं हैं। साहब ने मुझे दिलासा दी, और कहा कि अब
उनके खुदा और पैगंबर मेरे खुदा और पैगंबर भी होंगे, और कि इस दुनिया में और इसके
बाद हमारी किस्मतें भी एक जैसी होंगी।
“उस दिन से मैं उनकी ब्याहता थी।
मैं उनका घरबार देखती थी, और उनके सुख-दुख की भागीदार थी। उनके ऊपर उधार था, लेकिन
खर्चे घटाकर मैंने जल्द ही उनकी पंद्रह सौ रुपए महीना तन्ख्वाह को उधार चुकाने से बरी
कर दिया। मैंने किसी को उन्हें लूटने नहीं दिया। और उस बुढ़िया को, जो बहुत बड़ी
चोर और धोखेबाज थी, वहाँ से चलता किया। मैंने उन्हें अपनी रूह की गहराइयों से
प्यार किया। मैं अकबर बादशाह की सल्तनत की मल्लिका बनने के बजाय उनके साथ भीख माँग
सकती थी। जब वह थके होते तो मैं उन्हें थपकियाँ देकर सुलाती, बीमार पड़ते तो उनकी
सेवा करती, गुस्सा होते तो फिर से उन्हें खुशमिजाज बना देती, और जब भी देखती कि
उनके मातहत उन्हें चकमा दे रहे हैं तो उन्हें सतर्क कर देती। उन्होंने मुझसे जैसा
प्यार किया उसमें शुबहे की कोई वजह ही नहीं थी। उन्होंने मुझे अपना विश्वास दिया,
और मैंने कभी उनके भरोसे को नहीं तोड़ा।”
“वो कौन थे?” मैंने अपने संदेह में पूछा।
“धीरज रखें साहब,” उसने जवाब दिया, और फिर से बताने लगी, “दो साल खत्म
होते-होते मैं माँ बन गई।”
उसकी आँखों से आँसू बहने फिर शुरू हो गए थे।
“साहब खुश हुए। बच्चे ने जैसे
हमें एक-दूसरे से और गहरे बाँध दिया था। मैं बच्चे पर फिदा थी। मुझे लगता है इसकी
वजह थी कि उसकी शक्लो-सूरत अपने पिता से बहुत मिलती-जुलती थी। जब साहब नौकरी के
सिलसिले में जिले में मुझसे कहीं दूर जाते, तो बच्चे को देखकर मुझे लगता कि वह मेरे
पास ही हैं। बच्चा आप ही की तरह गोरा था।”
“क्या अब वो नहीं है?” मैंने पूछा।
“धीरज रखें साहब.... जब आप देवबंद
से गुजरे थे और टैंट में अपने दोस्त के साथ ठहरे थे तब मेरा बेटा दो साल का था।
मैं देवबंद में उस कैंप की मालकिन थी, और जो वाइन आपने पी वो आपको इसी हाथ ने दी
थी।”
“लोग एक-दूसरे को कितना कम जानते
हैं!” मैंने उत्तेजना में कहा, “यहाँ
तक कि वो भी जो सबसे घनिष्ठ होते हैं! मैं तुम्हें यकीन
दिलाता हूँ कि मुझे रत्ती भर भी आइडिया नहीं था कि कैंप में कोई महिला भी है।”
“मैं आप पर कितनी खफा थी,” उसने कहा, “इतनी देर तक साहब को बिठाए रखने के लिए।
आप लोग पूरी रात बातें करते रहे। इसीलिए मुझे कोई अफसोस नहीं हुआ जब मैंने आपका
कुत्ता ले लिया। तो, जैसा आप जानते हैं, उसके बाद साहब बुखार की गिरफ्त में आ गए,
जिससे वह उबर भी गए। लेकिन उससे वह इतना चूर-चूर हो गए कि उन्हें यूरोप जाने को
मजबूर होना पड़ा, जहाँ आप जानते हैं...” वह रुक गई।
एक हिंदुस्तानी महिला जहाँ तक हो सकता है कभी उस
व्यक्ति की मौत का जिक्र नहीं करती जिससे वह प्यार करती है। मुझे यह बात पता थी।
मैंने अपना माथा दोनों हाथों में लेकर झुका लिया। उसके बच्चे का पिता इंग्लैंड की
अपनी यात्रा में दुनिया से विदा ले चुका था।
उसने कहना जारी रखा, “जब वह मुझे छोड़कर गए तो अपना सब
कुछ मुझे देकर गए—अपना घर और फर्नीचर, अपने घोड़े, अपनी गाड़ी, प्लेट, बैंक में
अपने शेयर, अपनी घड़ी, अपना ड्रेसिंग-केस, अपनी अँगूठियाँ—हर चीज मुझे दे गए, और
हर वह चीज जो आज मेरे पास है। जब मैंने वह बुरी खबर सुनी तो मेरा दिल बिल्कुल टूट
गया। अगर बच्चे की देखभाल न करनी होती तो मैंने खुद को मौत के हवाले कर दिया होता।
जैसे कि मैंने अफीम खाना और भाँग पीना शुरू कर दिया। जब मैं इस हालत में थी तो
मेरे साहब के भाई- कैप्टेन साहब- आए और बच्चे को अपने साथ ले गए। उन्होंने कोई
जबरदस्ती नहीं की। मैंने ही उन्हें दे दिया। बेटा तब मेरे लिए क्या था मैंने इसकी
परवाह नहीं की। लेकिन वह बूढ़ी औरत जिसे मैं अभी माँ कहकर बुला रही थी और जो अब
मेरी देखभाल करती है, धीरे-धीरे मुझे उस निराशा से बाहर लाई जिसमें मैं घिरी हुई थी,
और किसी हद तक मेरी चेतना वापस आने लगी। तब मैंने अपने बेटे के बारे में पूछना
शुरू किया। मुझमें उसे देखने की एक तड़प आ गई थी। पहले तो उन्होंने बताया कि उसकी
मौत हो चुकी है, पर जब देखा कि मैं नशाखोरी में खुद को फ़ना कर देने पर आमादा हूँ
तो उन्होंने मुझे सच बताया कि बच्चा जीवित है और इन पहाड़ों में एक स्कूल में है। मैं
यहाँ अपने बच्चे के नजदीक रहने के लिए आई हूँ। मैं उसे लगभग रोज देखती हूँ, लेकिन
दूर से ही। कई बार वह मेरे एकदम पास से गुजरता है, और मैं कूद कर उसके पास जाने और
उसे अपने सीने से लिपटा लेने के लिए तड़प उठती हूँ जहाँ वह नन्हा-सा कभी चैन से अपना
सिर रखे रहता था। मैंने प्रार्थना की कि मैं उससे बात कर सकूँ, उसे चूम सकूँ, और
उसे दुआ दे सकूँ। पर वह कभी अकेला नहीं होता। वह हमेशा अपने स्कूल के और छोटे
लड़कों के साथ खेल रहा या बात कर रहा होता है। यह काफी कठोर लगता है कि जब उसकी माँ
इतनी दुखी है तब वह इतना खुश हो। मेरे लिए अपनी दौलत का क्या इस्तेमाल है जब मैं अपने
ही खून और अंग को छू न सकूँ या वो मुझे पहचान न सके। क्या आप उस स्कूल के मास्टर
को जानते हैं?”
“हाँ।”
“क्या आप उन्हें नहीं कह सकते कि
वे मेरे बच्चे को आपसे मिलने की इजाजत दें? तब मैं उसे एक
बार और देख सकूँगी और बात कर सकूँगी। आप उसके पिता के दोस्त थे, इसलिए यह गुजारिश
कहीं से भी अटपटी नहीं लगेगी।”
मैंने खुद को बड़ी ही अजीबोगरीब हालत में महसूस
करते हुए कोई वादा नहीं किया। लेकिन उससे कहा कि मैं देखता हूँ कि क्या हो सकता है
और कि इस बारे में कल उसे बताऊँगा, बशर्ते वह घर पर ही रुके और सड़क की उस चट्टान पर
फिर से न जाए। उसने अपनी गुजारिश के मुतल्लिक मुझसे कोई वादा लेने की जीतोड़ कोशिश
की, पर वादा करना उसे किसी चीज के लिए इनकार करने जितना ही मुश्किल था—वह अभी भी
काफी खूबसूरत और काफी आकर्षक थी। मैंने कोई वादा नहीं किया और अपनी पहले कही बात
पर कायम रहा।
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मैं उस स्कूल में गया जहाँ मेरे दोस्त के बेटे
को ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी में रहे उसके अंकल ने भर्ती किया था। मैंने हर
रंग-रूप के कुछ तीस छात्र वहाँ के प्लेग्राउंड में देखे; पर मैंने जल्द ही उस लड़के को
पहचान लिया जिसे देखने को मैं उत्सुक था। वह वाकई अपने बाप की तरह था, न सिर्फ
कद-काठी और चेहरे-मोहरे में बल्कि व्यवहार के तरीके, चलने के ढंग और छवि में भी।
मैंने उसे बुलाया। वह आया और जिस खुलेपन के साथ उसने मेरा हाथ पकड़ा वो मुझे अच्छा
लगा। स्कूलमास्टर ने मुझे बताया कि लड़का काफी चतुर है, और कि सिर्फ छह साल का
होने के बावजूद चंद ही उसके साथी उससे आगे हैं। मैंने कहा, “उसका
पिता मेरा पुराना दोस्त था। हमारा दोस्ताना तब शुरू हुआ जब हम इस बच्चे की उम्र के
थे। क्या आपको कोई आपत्ति होगी अगर लड़का एक दिन मेरे साथ गुजारे?”
उसने कहा, “मैंने उसके अंकल से वादा किया है कि वह बाहर नहीं
जाएगा, कि वो अच्छी तरह मेरी निगरानी में रहेगा, लेकिन बेशक वह आपके साथ पूरी तरह
हिफाजत में रहेगा। किसी भी रोज जब आप ठीक समझें मैं उसे भेज दूँगा।”
“क्या उसे अपनी माँ के बारे में
कुछ पता है?” मैंने पूछा।
“बिल्कुल नहीं। जब वह यहाँ आया तो
बहुत ही छोटा था। मुझे कुछ भी नहीं पता कि उसकी माँ कौन है, क्या है और कहाँ है,
क्योंकि उसके अंकल ने माँ-बाप के ब्योरे नहीं दिए। माँ अगर हिंदुस्तानी थी तो जरूर
काफी गोरी रही होगी क्योंकि लड़के में हिंदुस्तानी रंगत नामभर की ही है।”
मैं घर गया, और बच्चे की माँ के लिए संदेशा भेजा।
वह आई। मैंने बहुत ही नम्रता से उससे कहा कि वह बच्चे की खातिर अपनी की गई गुजारिश
को छोड़ दे। उसे समझाया कि यह चीज बच्चे को अस्थिर कर सकती है, और उसके मन को
बेचैन कर सकती है। मैंने उसे सुनिश्चित किया कि वह अब उतना ही खुश है और उतनी ही
देखभाल में है जितना कोई माँ अपने बच्चे के लिए चाह सकती है। यह सुनते ही वह
बेचारी औरत पगला सी गई। वह मेरे पैरों पर गिर पड़ी और मिन्नत करने लगी कि एक बार
वह जी भरकर अपने बच्चे को देख ले, उसके साथ थोड़ी बात कर ले, और एक बार उसका बेटा
उसको चूम सके। उसने कहा कि उसकी मंशा यह नहीं है कि बच्चा जाने कि वह उसकी माँ है; कि अगर मैं उसे अपने घर में
लाता हूँ तो वह एक नौकरानी के जैसे या साईस की बीवी के जैसे कपड़े पहने रहेगी, और
लड़के को यह भनक लगने दिए बगैर कि वह वही इंसान है जो उसे इस संसार में लाई, उससे
बात करेगी।
“तुम अपने वादे से मुकरोगी तो
नहीं ना?” उसके आँसुओं से विचलित होकर मैंने पूछा। “लड़का एक बार को जब तुम्हारे पास आएगा तो तुम ऐसा नहीं करोगी कि उससे अलग
होने से मना कर दो और उसके दोस्तों को ललकारने लगो कि बगैर अदालती आदेश के वे उसे
तुमसे ले जाकर दिखाएँ; जैसा कि माँएँ करती हैं। याद रखना
दून्या (ये उसका नाम था) कि तुम्हारे आँसुओं और अपनी भावनाओं के वशीभूत मैंने बहुत
बड़ा जोखिम लिया है। उससे भी ज्यादा मैं स्कूलमास्टर को धोखा दे रहा हूं, और बच्चे
के अंकल की जानिब बेईमानी कर रहा हूँ। ख्याल रखना कि अगर इस मामले में तुम अपनी
बात पर कायम नहीं रहीं तो मेरे लिए यह कितना अपमानजनक होगा।”
उसने कसम खाई कि वह सब कुछ मेरे कहे अनुसार ही करेगी, मैं सिर्फ उसकी इच्छित
मुलाकात करवा दूं।
“कल बारह बजे,” मैंने कहा “तुम यहाँ आ सकती हो। उस वक्त इस कमरे
में बच्चा मेरे साथ होगा। गरीब औरत की पोशाक में आना, और अपने साथ एक गोद के बच्चे
को लाना। तुम यह शिकायत करोगी कि मेरे यहाँ नौकरी करने वाला तुम्हारा शौहर तुमसे
बुरा बर्ताव करता है। इससे मुझे यह मौका मिलेगा कि मैं तुम्हारा इन्साफ होने तक
तुम्हें यहीं रहने दूँ, इस बीच तुम लड़के से मिल सकोगी; और
जब मैं कमरे से बाहर जाऊँगा, जो कि बहुत थोड़ी देर के लिए होगा, तुम उससे बात कर
सकती हो। तुम्हें अपने किरदार का इल्म है न दुन्या?”
“जी साहेब।”
“कल, बारह बजे....सलाम दुन्या!”
“सलाम साहेब!” कहकर वह खुश हावभाव के साथ चली
गई।
हिंदुस्तान के लोगों जैसे अदाकार दुनिया में
कहीं नहीं हैं। लड़का मेरे पास बारह बजे के थोड़ा पहले आ गया था, और जब दुन्या
अपनी गोद में एक बच्चा लेकर आई तब वह मेरे साथ बैठा था। वह मैले-कुचैले कपड़ों में
कमरे में आई और बोलने लगी। उसने कहा कि उसके मियाँ ने उसे बिना बात के बेरहमी से
मारा है और कि उसकी एक उँगली तोड़ दी और उसे चाकू भोंकने की कोशिश की, पर उसने
बराबर की हिम्मत दिखाकर अपनी जान बचाई है। यह सब उसने पूरी भावभंगिमा के साथ और आँखों
में आँसू भरकर बोला जो कि पूरब में शिकवे-शिकायत जाहिर करने की रिवायत के मुताबिक
ही था। मैंने उसके पति की जानिब काफी गुस्से का इजहार किया, और तेजी से कमरे से
बाहर चला गया, जैसे कि इस बारे में पता करना हो।
मैं गोल
दौड़कर एक बाहरी दरवाजे पर गया, और भीतर दुन्या और उसके बेटे को देखने के लिए झाँका।
वह बच्चे को अपनी वही कहानी बता रही थी, और बच्चा उससे कह रहा था कि वो न रोए। यह
एक अजीब दृश्य था। उसकी आँख से बह रहे आँसू अब बनावटी नहीं थे। लड़के ने उससे पूछा
कि उसका पति कैसे उसे पीटने के लिए आया? तब उसने बताना शुरू किया- “मैं
आग के पास बैठी अपने बड़े बेटे से बात कर रही थी, वो मेरी बाँहों के घेरे में था—बिल्कुल
इस तरह जैसे मैंने तुम्हें कमर से बाँध लिया है—और बेटे से कहा कि ‘बहुत देर हो गई है और तुम्हें सोने के लिए जाना चाहिए,’ और उसे मैंने अपनी छाती से लगा लिया—इस तरह—और उसके माथे को चूमा, फिर
उसकी आँखों को—बिल्कुल इसी तरह आहिस्ता से। हाँ, बिल्कुल इसी तरह। तभी लड़के ने
रोना शुरू कर दिया--”
“वह क्यों रोया? इसलिए कि आपने उसे सोने जाने के लिए कहा था?”
“हाँ,”
दुन्या ने कहा, “लेकिन उसका पिता अंदर आ गया, और सोचा कि मैं
बच्चे से बदसलूकी कर रही हूँ। उसने मुझे गाली दी और फिर मारा।”
वह अपने बच्चे पर टकटकी लगाए थी। उसके पास अपने
साथ हुई कथित ज्यादती के लिए बेझिझक रोने का अच्छा बहाना था। आड़ के पीछे, जिसने
मुझे उनकी निगाहों से छिपाया हुआ था, भावुक होकर मेरे भी आँसू निकल आए।
मैं कमरे में वापस आया, और कहा, “दुन्या, क्योंकि तुम्हें अपने
साथ किसी अनहोनी का डर है, इसलिए तब तक यहाँ से मत जाना जब तक मैं न कहूँ। पर तुम
अपने गोद के बच्चे को झाड़ू लगाने वाले की बीवी को देखभाल के लिए दे दो। मुझे
तुम्हारे बच्चे जितने छोटे बच्चे के घर में होने से दिक्कत होती है।”
वो किस कदर आभारी थी! उसने अपना सिर मेरे पाँवों में
रख दिया। उसकी उँगलियों की पोरें मेरे घुटनों को छू रही थीं।
चार्ल्स लैंब ने कहा है कि गरीब के बच्चे पैदा
होने के बाद से ही प्रौढ़ होते हैं। हिंदुस्तान में वही बात रईस लोगों के बच्चों
के बारे में कही जा सकती है। दून्या के छोटे से लड़के ने उसके जालिम पति के बर्ताव
पर बात की और प्रताड़ित पत्नी से हमदर्दी जताई, मानो उसे अदालत में इस मामले पर
फैसला सुनाने के लिए बुलाया गया हो। उसने यहाँ तक कहा, “कितना बदमाश आदमी है जो इतनी
अच्छी दिखने वाली महिला को मारता है!” और उसने दुन्या को वह
रुपया दे दिया जो पिछले रोज मैंने उसे स्कूल में मुलाकात के वक्त दिया था। कितनी
खुशी के साथ दुन्या ने उस सिक्के को बच्चे के हाथ से लेकर अपने पल्लू में बाँध
लिया। यह उसके लिए उन तमाम जवाहरात से भी ज्यादा कीमती मालूम देता था जो बच्चे के
दिवंगत पिता ने उसे गुजर चुके दिनों में दिए थे। यह उसके अपने बेटे का दिया उपहार
था, जो जीवित था, पर उसके लिए ‘नहीं’
जैसा था। दुन्या ने फारसी में कहा—लड़का यह जबान नहीं समझता था। यह भाषा दुन्या के
पिता ने उसे सिखाई थी ताकि नौकर उनकी बातचीत के मजमून को न जान सकें। उस जबान में,
लड़के की हाजिरी में, दून्या अब मुझसे मुखातिब थी।
“क्या यह बहुत ज्यादा अपने पिता
की तरह नहीं है?”
“बहुत,”
मैंने जवाब दिया।
“क्या यह उतना ही समझदार होगा?”
“उस लिहाज से यह अभी बहुत छोटा है।”
“लेकिन यह उतना ही खुले दिल का
होगा” (उसने सिक्के की ओर इशारा किया)। “और वैसा ही लंबा, वैसा ही सजीला, वैसा ही जज्बाती, उतना ही विनम्र, और
उतना ही दयालु।”
लड़के के जूतों में कीचड़ लगी थी। दुन्या ने इसे
देखा और अपने छोटे हाथों से उसे साफ कर दिया; और मुस्कुराई। उसने ऐसे ढंग और लहजे में उससे कुछ
नजराना माँगा जिसमें हिंदुस्तान के काफी गरीब नौकर अपने सबसे मगरूर मालिक से माँगते
हैं।
लड़का शरमा गया और मेरी ओर देखने लगा।
“क्या तुम्हारे पास उसे देने के
लिए कुछ नहीं है?” मैंने पूछा।
“कुछ नहीं,”
उसने कहा, “मैंने अपना रुपया उन्हें दे दिया।”
“उसे वह खूबसूरत नीला रिबन दे दो
जो तुमने अपने गले में बाँधा हुआ है, मैं तुम्हें वैसा ही दूसरा दिला दूँगा।” मैंने कहा।
उसने अपने गले से रिबन निकाला और दुन्या को दे
दिया।
दुन्या ने रिबन को अपने बालों में लपेट लिया और
फिर से रोने लगी।
“मत रो, नादान औरत,” मैंने कहा, “मैं कुछ करूँगा कि तुम्हारा पति
तुम्हें दोबारा ना पीटे!”
वो समझ गई, और अपने आँसू पोंछ लिए।
दुन्या ने फिर से मुझसे फारसी में कहा, “साहेब, वे स्कूल में बच्चों की
ठीक से साफ-सफाई नहीं करते हैं। हुक्म दें तो मैं यह कर दूँ।”
“चार्ली, तुम इस हालत में मेरे
पास क्यों आए हो, तुम्हारी गर्दन कितनी मैली है?” मैंने
लड़के से कहा।
“हम गर्म पानी से हफ्ते में सिर्फ
एक बार नहाते हैं—सैटरडे को, और आज थर्सडे है।” उसने जवाब दिया।
“लेकिन मैं तुम्हें इस हालत में
मेरे साथ खाना खाने की इजाजत नहीं दे सकता,” मैंने
हिंदुस्तानी में कहा, “तुम्हें अच्छी तरह नहाना होगा, मेरे
बच्चे! दुन्या बच्चे को नहलाओ!”
अनिच्छुक कदमों से बच्चा अपनी माँ के पीछे-पीछे
मेरे गुसलखाने में गया। मैंने परदे से झाँककर देखा; मुझे डर लग रहा था कि माँ और बच्चे को अलग करने
में कहीं कोई मुसीबत न हो, और आधा इस बात पर पछतावा था कि मैं उन्हें एक साथ लाया
ही क्यों। जब दुन्या बच्चे के बालों को रगड़कर धो रही थी तो उसने पूछा, “तुमारा ममा कहाँ है?”
लड़का बोला, “मुझे नहीं पता।”
मैं यह जताने के लिए खाँसने लगा कि मैं सुन रहा
हूँ और कि वो ऐसे प्रश्न न करे। वह तुरंत ही चुप हो गई।
मुझे मॉल पर एक लेडी के साथ घुड़सवारी पर जाना
था। मेरा घोड़ा दरवाजे पर ले आया गया। लेकिन मुझे दुन्या को लड़के के साथ अकेले
छोड़ने में डर लग रहा था, भले ही उसने बाकायदे मुझसे वादा किया था कि वो उसके साथ
कहीं नहीं जाएगी। हालाँकि धरती पर उन्हें हमेशा के लिए जुदा कर देने में कोई
जल्दबाजी करना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था, पर लड़के की खातिर मुझे यह करना ही था।
यह सोचते हुए कि कैसे उन्हें अलग किया जा सकता
है, मैं कुछ देर अपने बरामदे में ऊपर-नीचे होता रहा। आखिरकार मैंने यह तय किया कि
किसी तरकीब से मैं लड़के को उसके स्कूल भेज दूँगा और हालात पर भरोसा करूँगा कि
दुन्या को समझा पाऊँ कि वो नहीं लौटेगा। मैंने साईस को आदेश दिया कि मेरे छोटे टट्टू
पर जीन कस दे, और दून्या से कहा कि मेरी इच्छा है कि मैं लड़के को अपने साथ
घुड़सवारी पर ले जाऊँ, और कहा कि जब हम यहाँ नहीं होंगे तो वह कुछ खा ले। मेरे
सीने में एक टीस उठी कि मेरे इरादों को लेकर वह कितनी मासूम थी—क्योंकि वह खुश लग
रही थी कि मैं उसके बच्चे की इतनी परवाह कर रहा हूँ कि उसे लोगों के बीच मेरे साथ
देखा जाए।
जैसे ही घर हमारी नजरों से ओझल हुआ, मैंने
लैंडोर का रास्ता पकड़ा, लड़के को स्कूलमास्टर के सुपुर्द किया, अपने साईस से यह
कहकर कि अँधेरा होने तक टट्टू को बाहर ही रखे, माल की ओर रवाना हो गया, अपना तय
कार्यक्रम पूरा किया, और साढ़े सात बजे के करीब घर लौटा। दुन्या बरामदे में हमारा
इंतजार कर रही थी।
“बेटा कहाँ है?” मुझे अकेला लौटा देखकर उसने पूछा।
मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि उतरकर उसके
पास गया। उसकी कलाइयाँ पकड़कर मैंने बहुत ही नम्र आवाज में कहा- “दुन्या, मैंने अपना वादा पूरा
किया। तुम अपने बेटे से मिलीं, उससे बात की, उसे चूमा। यह काफी है। अब वह अपने
स्कूल जा चुका है। अगर तुम वाकई उससे प्यार करती हो तो तुम्हें दोबारा उससे मिलना
नहीं चाहिए।”
वह मेरी पकड़ में काँपने लगी। उसने दीनता से मेरी ओर देखा--जैसे कुछ बोलना चाह रही हो ऐसे हाँफते हुए कई बार साँस खींची और बेहोश होकर मेरे पैरों पर गिर पड़ी। मैंने उसे उठाया, घर के अंदर ले गया, और अपने बिस्तर पर लिटा दिया; फिर नौकर को मेरे बँगले के करीब रहने वाले एक डॉक्टर को बुलाने भेजा। डॉक्टर आया। जब वह अपना हाथ उसके सीने पर रखकर उसकी धड़कन जाँच रहा था, तो मैंने संक्षेप में उसे बताया कि क्या मामला घटित हुआ है। वो अभी भी उसकी नब्ज पर उँगली रखे हुए था, और दुन्या के खूबसूरत चेहरे को गौर से देख रहा था। उसकी नाक और कानों से खून रिसकर बिस्तर की चादर और उसके पहने हुए कपड़ों पर धब्बे बनाने लगा था। कुछ मिनटों में डॉक्टर ने उसकी कलाई पर से अपना हाथ हटा लिया। “कुछ नहीं है कहने को! उसकी मुसीबतें खत्म हुईं। वो आराम कर रही है।”
उसने दुनिया से विदा ले ली थी.... never more on her/ Shall sorrow light, or shame****
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*जॉन
मिल्टन के ‘पैराडाइज लॉस्ट’ की
पंक्ति : heaven's artillery thunder in the skies।
**दक्षिण
अमेरिका महाद्वीप के दक्षिणी कोने में स्थित एक द्वीपसमूह।
***महाराजा
रंजीत सिंह की सबसे कमउम्र रानी जिंद कौर, जिन्हें 1848 से 1861 तक 13 साल
अंग्रेजों ने उनके बेटे दलीप सिंह से जुदा रखा। माँ से अलग किए जाने के वक्त दलीप
सिंह की उम्र 9 साल की थी।
****पी.बी.शेली की कविता 'द डेथ ऑफ हाइडी' का अंश।
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लेखक : जॉन लैंग (जॉन लैंग का जन्म 19 दिसंबर 1816 को सिडनी में हुआ। 21 साल की उम्र में वे इंग्लैंड चले गए, जहाँ उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई की। 1842 में वो भारत आ गए। यहाँ उन्होंने मेरठ से ‘मुफस्सिलाइट’नाम का अखबार निकालने के अलावा वकालत में भी नाम कमाया। रानी झाँसी और सेना के ठेकेदार अयोध्या प्रसाद के मुकदमों से उन्हें खासी शोहरत मिली। उन्होंने कई उपन्यास, कहानियाँ और संस्मरण लिखे। उनकी मौत मसूरी के पास लैंडोर में हुई, जहाँ कैमल्स बैक कब्रिस्तान में उनकी गुमनाम कब्र को प्रसिद्ध लेखक रस्किन बांड ने कुछ साल पहले ढूँढ़ निकाला था। उनके इस संस्मरण का यह अनुवाद इंडिया टुडे वार्षिकी में प्रकाशित हो चुका है।)
पढ़ा और मुझे बहुत अच्छा लगा, मन को छू गई
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