विलियम हेनरी स्लीमेन का भारत


राजेन्द्र चंद्रकांत राय द्वारा अनूदित पुस्तक स्लीमेन के संस्मरण से गुजरते हुए सबसे पहला अहसास जो होता है वह यह कि हम अपने इतिहास को कितना कम जानते हैं। ऐसा लगने की वजह है कि स्लीमेन इनमें बात की अंतर्कथाओं और उनके उत्स को सामने लाते हैं, और हमें अपनी जानकारियाँ अधूरी लगने लगती हैं। उनमें एक किस्सागोई जैसा मनोयोग है, समाजशास्त्री की अंतर्दृष्टि है और बात की तहों की खोजबीन है। एशियाई सभ्यताएँ बातों को मान लेने की सभ्यताएँ हैं, जबकि पश्चिम कारणों की खोजबीन के जरिए ही आगे बढ़ा है। इन दोनों सभ्यताओं के लोगों में एक द्वंद्वात्मक रिश्ता है जो इन संस्मरणों को विशिष्ट बनाता है। आज से करीब पौने दो सौ साल पहले लिखे गए ये संस्मरण एक देश और समाज की जिंदगी के भीतर उतरते हैं। इन्हें दुनिया की सबसे गतिशील सभ्यता के एक नुमाइंदे ने दुनिया की सबसे परिवर्तनहीन सभ्यता के बारे में लिखा है। आज इतिहास का दस्तावेज बन चुके इन विवरणों और टिप्पणियों में एक भावनिष्ठ समाज की गतिविधियों को वस्तुनिष्ठ तरह से देखा गया है। परंपरा में जीने वाला यह समाज जैसा लापरवाह अपने इतिहास के प्रति रहा है वैसा ही अपने वर्तमान के प्रति भी। वह समाज जो तथ्य को भावना से रिप्लेस करता रहा और तर्क को आस्था से, स्लीमेन ने उस समाज को अपने संस्मरणों में दर्ज किया है। इनमें बार-बार दिखता है कि कैसे लोग सच्चाई से जूझने के बजाय आस्थाओं के भ्रम बनाते हैं। इस तरह एक ऐसा देश बनता है, जहाँ कितने ही बच्चे हैं जिन्हें भेड़िये उठाकर ले जाते हैं— और स्लीमेन जब भेड़ियों की खोहों में रहने वाले इन भेड़िया-बच्चों के माँ-बापों और खुद उनकी दास्तानें सुनाते हैं तो एक क्षण को हम यहाँ की जिंदगी के अजीबपने पर हैरान रह जाते हैं। ऐसे ठग हैं जो बहुत उम्मीदों से खरीदे गए एक गरीब का कंबल हड़पने के लिए उसे और उसके बेटे को जहर दे देते हैं; और बेटे की व्यथा-कथा से विचलित पाठक सोचता है कि आखिर लालच और क्रूरता के दरम्यान कोई तो आनुपातिक सिलसिला होना चाहिए। इसी तरह अवध में वाजिद अली शाह के राज्य की भयानक अराजकताओं और जनता के प्रति क्रूरताओं के ब्योरे भी एक मुसलमान राजा की कृष्ण भक्ति के ब्योरों से प्रसन्न सेकुलर लोगों को दुविधा में डाल सकते हैं। उनकी यह दुविधा इन संस्मरणों को पढ़कर तब थोड़ी और गाढ़ी हो सकती है जब पता चलता है कि काली माई के उपासक दुर्दांत ठगों में तमाम मुसलमान भी शामिल थे। हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का यह एक अलग ही पाठ है।
स्लीमेन के संस्मरणों में हमारे समाज की बुनावट की माइक्रो रियलिटी दिखती है। हमारा भाववादी मन एक थोथी सच्चाई को गढ़कर प्रसन्न रहता है, पर स्लीमेन उसे असल सच्चाई दिखाते हैं। एक संस्मरण में वे हिंदुस्तानियों को सुखी लोग कहते हैं। ऐसे सुखी लोग जो एक गर्म वातावरण में घटनाओं के वास्तविक कारणों तक पहुँचने की पीड़ा भोगना नहीं चाहते। उन्होंने मुहम्मद, मनु और कन्फ्यूशियस का इस बात के लिए व्यंग्यात्मक धन्यवाद किया है कि उन्होंने गर्म जलवायु में अपने लोगों को सोचने के कष्ट से मुक्ति दिलाई। स्लीमेन के मुताबिक उनका लिखा निरंकुशता का कारण और निदान एक साथ है। यह निरंकुशता जहाँ से आती है उनका लेखन उसका स्रोत भी है और जब इसी निरंकुशता की लील जाने वाली आग के मुकाबले वह लोगों का बचाव करता है तो ढाल भी।
कल्पवृक्षों की फैंटेसी कथाएँशीर्षक इसके एक अध्याय में एक ऐसा वृत्तांत आता है जब लेखक ने पाया कि कल्पवृक्ष कहे जाने वाले तमाम पेड़ों पर सीता और राम उकेरा हुआ है। उसे बताया गया कि इसे स्वयं भगवान ने अपने हाथों से लिखा है। उन्होंने लिखा- मैंने उससे तर्क करने की कोशिश की और ऐसा पेड़ खोज लेना चाहा जिसपर नाम न लिखा हो, परंतु दुर्भाग्य से मैं ऐसा एक भी वृक्ष न खोज सका। कुछ वृक्ष बहुत ऊँचे थे और कुछ बहुत छोटे तने वाले। कुछ बहुत मोटे थे और कुछ एकदम पतले। पर प्रत्येक पेड़ पर नाम मौजूद था। मैं प्रायः निराश हो चुका था जब मैं जंगल के एक ऐसे हिस्से में पहुँचा जहाँ मैंने देखा कि एक पेड़ सड़क के नीचे की ओर चला गया है और एक अन्य पेड़ चट्टान की खड़ी दीवार पर पनपा हुआ है। अब मैं अपनी बात को साबित कर सकता था। क्योंकि मेरा सोचना यही था कि किसी राहगीर ने ही इन वृक्षों पर नाम लिख दिए होंगे। पर कोई भी राहगीर ऐसी दुर्गम जगहों पर खड़े पेड़ों पर नहीं लिख सकता। मैं नाथू को यह दिखा देना चाहता था कि उन दोनों पर न तो राम का नाम लिखा हुआ है और न ही उनकी पत्नी सीता का। मैंने अपने सेवकों में से एक को ऊपर चट्टान पर चढ़ने के लिए कहा, और दूसरे से नीचे खाई में उतरने को। वे दोनों वहाँ गए। उन्हें कुछ भी लिखा हुआ नहीं मिला। पर अचरज की बात यह थी कि इससे उन लोगों का यह विचार नहीं बदला।
उनमें से एक ने कहा- इसमें संदेह नहीं कि भगवान ने अपना नाम प्रत्येक वृक्ष में स्वयं ही लिखा है। इस पेड़ पर भी। पर हो सकता है कि नाम किसी कारण से मिट गया हो। ईश्वर ठीक समय पर फिर से वहाँ अपना नाम उभार देंगे। भाग्यवान मनुष्य की आँखें ही प्रभु के पवित्र नाम को देख सकती हैं।
तुमने नहीं देखा’, मैंने कहा, ये अक्षर तो किसी आदमी द्वारा ही उकेरे गए होंगे, क्योंकि जहाँ नाम लिखा हुआ है वे सभी जगहें इंसानी हाथ पहुँचने की ऊँचाई पर ही हैं।
हाँ, यह तो है। उसने जवाब दिया, क्योंकि इससे अधिक ऊँचाई पर ईश्वर लिखेंगे तो फिर उन्हें कोई भी पढ़ नहीं पाएगा।
ये संस्मरण साहित्यिक पत्रिका हंस में प्रकाशित हुए थे—जब मैं वहाँ काम करता था। इन्हें लेकर तब बहुत से पाठकों के पत्र आए जिन्होंने इसे पत्रिका का सबसे पठनीय स्तंभ बताया। ऐसे भी पत्र आए जिनमें इन संस्मरणों में दर्ज स्थितियों से वर्तमान की तुलना करते हुए कहा गया था कि कुछ भी तो फर्क नहीं आया है तब से अब तक आम आदमी के हालात में। लेकिन वहीं निजी बातचीत में कुछ लोगों ने इस वजह से इनपर शंका प्रकट की कि आखिर इन्हें लिखा तो एक गोरे ने ही है। पूर्वाग्रहों से उपजी ऐसी शंकाओं का हालाँकि ऊपर के संस्मरण में उल्लिखित नाथू की आस्था की तरह कोई इलाज नहीं होता, पर फिर भी ऐसे लोगों को 1849 में स्लीमेन को अवध का रेजीडेंट नियुक्त करते समय उनके लिए लिखी गई प्रशस्ति पढ़ लेना अच्छा होगा। इसके मुताबिक भारतीय चरित्र और भाषा का उनके जैसा ज्ञान विरलों को ही है। वे व्यक्तिगत रूप से भारतीयों के सभी वर्गों में लोकप्रिय और सम्माननीय रहे हैं, जिनपर लोग भरोसा रखते हैं और उनसे डरते भी हैं।    
मैं पिछले सालों में चीनी यात्री फाहियान, कोरिया के तीर्थयात्री हे चो, और अल बरूनी, बाबर, इब्न बतूता, बर्नियर से लेकर सीताराम पांडेय और गोडशे शास्त्री तक के अनुभवों पर आधारित भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों के जितने भी वृत्तांतों से गुजरा हूँ उनमें अल बरूनी का भारत ही किसी अर्थ में अपनी विशद पर्यवेक्षीय दृष्टि में इस पुस्तक के समतुल्य कही जा सकती है। लेकिन अल बरूनी का समय इससे आठ सौ साल पहले का होने के अलावा उसकी पुस्तक ज्यादातर तथ्यों का संग्रह है, जबकि स्लीमेन के संस्मरण निहायत रोचक रिपोर्ताज हैं जो घटनाओं की आंतरिक तहों तक जाते हैं और लोगों के स्वभाव, उनके रवैयों और स्थितियों के वास्तविक अंतर्विरोधों का जायजा लेते हैं। उदाहरण के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के आधिपत्य के शुरुआती दिनों का जिक्र करते हुए स्लीमेन मीर कासिम के बारे में लिखते हैं- मूल रूप से कश्मीर का रहने वाला कासिम अली स्वभाव से कोई बुरा आदमी नहीं था, परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी के लोगों से मिली चोटों और अपमानों ने उसे पागलपन की हद तक पहुँचा दिया था। स्लीमेन के संस्मरण में यह स्पष्ट है कि कंपनी के कुछ लोगों ने मीर कासिम के साथ काफी ज्यादतियाँ कीं। लेकिन बात सिर्फ इतनी भी नहीं है; स्लीमेन एक उपकथा बयान करते हैं, जिससे पता चलता है कि कंपनी की कलकत्ता कौंसिल में एक उद्दंड ब्रिटिश अधिकारी ने हालात को बुरी तरह बिगाड़ दिया था। नतीजे में बढ़ती गई तल्खी युद्ध तक पहुँची, जिसमें बंदी बनाए गए 200 सैन्य-असैन्य अंग्रेजों को मीर कासिम द्वारा कत्ल करवा दिया गया और नतीजे में आखिरकार बक्सर की लड़ाई हुई।
इसी तरह स्लीमेन ने मुहम्मद बिन तुगलक को लेकर बड़ा वाजिब आश्चर्य व्यक्त किया है कि आखिर इतनी ज्यादतियाँ करने वाला शासक 27 साल तक गद्दी पर बना कैसे रहा।
स्लीमेन के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता है उसका टु दि प्वाइंट होना, जो शायद अंग्रेजी भाषा की फितरत भी है। यह एक ऐसे सिविल सर्वेंट का गद्य है जिसमें वर्ड्सवर्थ की कविता को भी उद्धृत किया गया है। और जिसने दूसरों के दुखों को पहचाना और अपने तईं भरसक उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया। क्या ऐसा नहीं लगता कि अगर स्लीमेन के नेतृत्व में प्रतिवर्ष कई हजार लोगों की जान लेने वाले ठगी के धंधे का उन्मूलन न किया गया होता, तो वह आज तक जारी होता। आखिर वह तब भी तो पिछले चार सौ साल से जारी था।


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भीष्म साहनी के नाटक

न्यायप्रियता जहाँ ले जाती है

आनंद रघुनंदन