प्रहसन जैसे यथार्थ के नाटक
पहले यथार्थ पर व्यंग्य करने के लिए प्रहसन लिखे जाते थे, फिर जब
यथार्थ खुद ही प्रहसन जैसा हो गया तो नुक्कड़ नाटक लिखे जाने लगे। नुक्कड़ नाटक के
व्यंग्य में प्रहसन की तरह की वक्रता नहीं होती, वह बिल्कुल
सीधा और दो टूक होता है। असगर वजाहत के नए-पुराने नुक्कड़ नाटकों की पुस्तक ‘सबसे सस्ता गोश्त’ में
नाटक ‘मुरलीधर की मुरली’ में
मुरलीधर रिश्वत न लेने का अभियुक्त है। उसपर मुकदमा चलाया जा रहा है जिसमें उसके
बीवी-बच्चे सब उसके खिलाफ हैं कि उसके रिश्वत न लेने से कैसे उनकी जिंदगी फटीचर
बनी हुई है। अड़ोसी-पड़ोसी, समाज उसके विरुद्ध गवाही देने आए
हैं। पैरोडी जैसी स्थितियों में मुकदमे की कार्यवाहियों की अतिरंजित नकल उतारी गई
है। वकील मुरलीधर से पूछता है- ‘क्या तुम बिना घूस लिए दोस्ती-रिश्तेदारी
निभा सकते हो,
परिवार का भरण-पोषण कर सकते हो, बच्चों को
अच्छी शिक्षा दिला सकते हो?’ वगैरह। लेकिन वकील जो
पूछता है उसका कोई जवाब नाटक में नहीं दिया गया है। ऐसे में आज के इस वक्त में,
जो खुद ही पैरोडी जैसा हो गया है, वकील की
बातें किसी को सही भी मालूम दे सकती हैं। नाटक यह नहीं बताता कि आखिर वे क्या तर्क
हैं कि कोई व्यक्ति रिश्वत न ले। नाटक के आखिर में लेखक ने इस सवाल का जवाब
दर्शकों से की जाने वाली गुफ्तगू के जिम्मे छोड़ दिया है। मान लीजिए कि नाटक का
अभियुक्त अंत में यह कहता कि “रिश्वत लेना एक परंपरा है जिसे मेरा जमीर एक
गिरा हुआ काम मानता है।” तो
उसका यह बयान दर्शकों से चर्चा का एक ज्यादा ठोस सूत्र होता।
असगर वजाहत का नाटक ‘सबसे सस्ता गोश्त’ नौवें
दशक में मंदिर-मस्जिद विवाद के समय खूब खेला गया था। संयोग है कि इस समीक्षाकार ने
भी उस दौरान इस नाटक में हिस्सा लिया था। नाटक की खूबी है उसमें तेज गति, गहरा तंज और पाए की नाटकीयता एक साथ हैं। नाटक में हिंदू, मुस्लिम से ऊपर नेताओं की ज़ात दिखाई गई है, जो धर्म
के नाम पर खेल किया करती है। इन नाटकों में अन्य समकालीन मुद्दों को भी उठाया गया
है। नाटक ‘देखो, वोट बटोरे
अंधा’ जातिवादी
राजनीति पर एक मजाकिया टिप्पणी है। नाटक का हर पात्र यहाँ ‘सिरमू’ उपनाम
वाला है। अब गाँव का सिरमू शहर के नेताजी सिरमू की बेटी से अपने बेपढ़े-लिखे बेटे
का ब्याह कराना चाहता है, क्योंकि नेताजी ने चुनाव के वक्त
बताया था कि जाति-बिरादरी से बड़ी कोई चीज नहीं। गाँव के सिरमू का प्रस्ताव सुनकर
नेताजी सिरमू और उनकी विदेश में पढ़ी बेटी सिरमू बेहोश हो जाते हैं। इस तरह असगर
वजाहत हमारे समकालीन वक्त की मूर्खताओं की कुछ परिहासपूर्ण छवियाँ पेश करते हैं।
खास बात ये है कि गाँव का सिरमू भी नाटक में ठीकठाक आर्थिक हैसियत वाला है। लेकिन
उसे यह नहीं पता कि एक ही जाति और वर्ग का होने के बावजूद दुनियावी हैसियत के अपने
तकाजे हैं, जिसमें शिक्षित होना भी एक शै है।
ऐसा नहीं है कि यह पुस्तक सिर्फ बहुश्रुत सार्वजनिक मुद्दों
की ही चर्चा करती है,
इसमें अब तक पर्दानशीं रहते चले आए जरूरी मुद्दे भी हैं। नाटक ‘क्या उपाय है’ स्कॉलरशिप,
फेलोशिप या प्रोजेक्ट लेकर तरह-तरह के टकसाली शोध करने वालों की
प्रजाति पर लिखा गया है। नाटक के शोधकर्ता पात्र हमारी व्यवस्था के रटंतू अकादमिक
तंत्र के प्रतिनिधि हैं। जमाने की सच्चाई से बेखबर वे ज्ञान के संग्रह में लगे हुए
हैं। लोककलाओं का विशेषज्ञ पेरिस से लौटा है और जल्द ही उसे टोक्यो होते हुए
होनोलूलू जाना है; दूसरा
शोधकर्ता सत्य नामक विशेष प्रकाश-किरणों के अनुसंधान में जुटा है, और तीसरा है जिसे आदिवासियों पर शोध के लिए दस लाख का प्रोजेक्ट मिला है।
वे अकालग्रस्त क्षेत्र में अध्ययन के लिए हवाई जहाज से आए हैं, और रहने के लिए फाइवस्टार होटल के जुगाड़ में हैं। स्थानीय दरोगा से वे एक
इंसान की माँग करते हैं जिसपर शोध कर सकें। दरोगा के लिए इंसान की दो ही श्रेणियाँ
हैं—जिंदा या मुर्दा। जो जिंदा इंसान लाया जाता है वो
मुर्दों से भी गया-बीता है, जिसका मुँह खुलवाने के लिए दरोगा
उसे पीट-पीटकर मार डालता है। ये नाटक इस बात की मिसाल है कि नुक्कड़ नाटक सिर्फ
प्रचलित मुद्दों का सरलीकृत बयान भर ही नहीं है; बल्कि
ज्यादा गूढ़ मुद्दों को भी उसमें कहा जा सकता है। पीड़ित जनता और प्रशासन का संबंध
तो लोगबाग जानते हैं, पर इस परिदृश्य में बुद्धिजीवियों का
चरित्र क्या है नाटक इसे दिखाता है।
असगर वजाहत स्थितियों के ‘मैकेनिज्म’ का परिहास की युक्ति के
रूप में इस्तेमाल करते हैं। नाटक ‘आग’ का ‘डॉक्टर पैसा’ दहेज
के लिए बहुओं को आग लगाकर मारने के धंधे का विशेषज्ञ है। उसके पास धंधे के कई
पैकेज हैं। एक पैकेज में सिर्फ आग लगाना शामिल है, जबकि
दूसरे में पुलिस केस वगैरह से निबटने की भी गारंटी है। नाटक ‘मोतियाबिंद’ में
धनी माँ-बाप और उनके द्वारा बिगाड़ी गई संतानों को दिखाया गया है। आँख के डॉक्टर
के बेटे ने बगैर पढ़ाई का कष्ट उठाए खुद को भी आँख का डॉक्टर घोषित कर दिया है,
क्योंकि नेताओं और अभिनेताओं के बेटे भी ऐसा करते हैं। मरीज न मिलने
पर वह माँ के समर्थन से अपने ही पिता का ऑपरेशन करके उन्हें अंधा कर देता है। नाटक ‘सड़क पर’ किंचित
पुरानी काट का है, जब नाटकीयता की गरज से एक पगला किरदार भी
डाला जाता था। नाटक में घायल पड़े इंसान के माध्यम से पुलिस, पत्रकार, सुविधाभोगी मध्यवर्ग वगैरह के चरित्र कहे
गए हैं। नुक्कड़ नाटक के दो अन्य मूर्धन्य लेखकों
गुरुशरण सिंह और सफदर हाशमी के बरक्स देखें तो असगर वजाहत के नाटक प्रत्यक्षतः कम
राजनीतिक मालूम दे सकते हैं, पर अंततः राजनीतिक होना
उनकी मजबूरी है। कारण है कि उनके नाटकों में भारतीय जीवन-तंत्र की विडंबनाएँ बहुत
तीखी होकर प्रस्तुत होती हैं।
पुस्तक में पच्चीस साल के अंतराल में लेखक द्वारा लिखी दो
भूमिकाएँ भी हैं,
जिनमें तत्कालीन नाट्य परिदृश्य और नुक्कड़ नाटक की सैद्धांतिकी की
चर्चा की गई है। उनके मुताबिक प्रोसीनियम के संभ्रांत दर्शकों की तुलना में साधारण
लोगों की विधा होने के कारण नुक्कड़ नाटक में किसी ‘शास्त्रीय समस्या’ को
पेश नहीं किया जा सकता। यहीं से यह समस्या भी खड़ी होती है कि दर्शकों को नुक्कड़
नाटक में रोका या बाँधा कैसे जाए! ‘टिकट लेकर आए दर्शक पाँच-दस मिनट बोर होने की
सामर्थ्य रखते हैं,
पर नुक्कड़ नाटक का दर्शक उखड़ते देर नहीं लगती।’ इसी
क्रम में वे नुक्कड़ नाटक में अभिनेता के काम को ज्यादा जटिल मानते हैं, क्योंकि यहाँ न मंच है न ही सांकेतिकता। दिलचस्प यह भी है कि पहली भूमिका
में नुक्कड़ नाटक को ऐसा ‘छापामार युद्ध’ जो ‘किसी मृत परंपरा का ढाँचा
नहीं है’ मानने
वाले असगर दूसरी भूमिका में शिकायत करते हैं कि वह ‘अपनी परंपरा, अपनी
जड़ों और अपने सौंदर्यबोध से रिश्ता नहीं जोड़ पाया।’ वे
नुक्कड़ नाटक ग्रुपों में अब लगभग नियम की तरह अपना लिए गए एक जैसी वेशभूषा आदि
तौर तरीकों को हमारी संवेदना से दूर पश्चिमी प्रभाव मानते हैं। और सुझाव देते हैं
कि नुक्कड़ नाटक का भविष्य उसके बहुआयामी होने में है।
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